नया इंडिया, 12 सितंबर 2014 : विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की काबुल-यात्रा बड़े नाजुक समय में हुई है। आजकल वहां जैसी अनिश्चय की स्थिति बनी हुई है, उसमें कोई भी विदेशी नेता काबुल जाने से घबराता है। वहां हुए राष्ट्रपति चुनाव को तीन माह बीत गए लेकिन अभी तक उसका फैसला नहीं आया है। डॉ. अब्दुल्ला और डॉ. अशरफ गनी दोनों अड़े हुए हैं कि ‘मैं जीता हूं’। निर्णय तो आएगा ही। किसी एक के पक्ष में आएगा।
जाहिर है कि दूसरा पक्ष आसमान सिर पर उठा लेगा। काबुल के सिर पर इस तनाव का अलाव तो जल ही रहा है, अमेरिकी वापसी का खौफ भी सवार है। उसकी वापसी का मतलब है-तालिबान की वापसी। तालिबान की वापसी पाकिस्तान के लिए भी शुभ नहीं होगी। फिर भी वह किसी तरह उनके साथ ताल-मेल बिठा लेगा लेकिन वह अफगानिस्तान और भारत के लिए तो बहुत ही चुनौती भरा वक्त होगा। अफगानिस्तान के टुकड़े भी हो सकते हैं। अफगानिस्तान का एक हिस्सा भारत-विरोधी आतंकवाद का अड्डा भी बन सकता है। यह सब कुछ एकदम न भी हो तो भी अफगानिस्तान में अराजकता फैल सकती है।
ऐसी आशंकाओं के माहौल में सुषमा स्वराज का काबुल जाकर राष्ट्रपति हामिद करजई को आश्वस्त करना अपने आप में महत्वपूर्ण है। बहाना हमारे नए दूतावास भवन का उद्घाटन करना था। पिछले कई दशकों से हमारा दूतावास काबुल की घनी बस्तियों में चलता रहा है। उस पर आतंकवादियों ने कई बार आक्रमण भी किए हैं लेकिन यह नया दूतावास वजीर अकबर खान नामक अत्यंत प्रतिष्ठित और सुरक्षित क्षेत्र में लगभग 240 करोड़ रु. की लागत से बना है। सुषमा स्वराज ने छह करोड़ रु. राष्ट्रीय ध्वज स्थल बनाने के लिए भी दिए हैं। अफगानों के लिए हम एक शानदार संसद भवन का भी निर्माण कर रहे हैं। अब तक भारत 12 हजार करोड़ रु. से ज्यादा की मदद दे चुका है।
अफगानिस्तान को इस समय फौजी प्रशिक्षण और आधुनिक हथियारों की सबसे ज्यादा जरुरत है। मैं पिछले 12 साल से लिखता रहा हूं कि सबसे ज्यादा ध्यान इस बात पर दिया जाए कि वहां पांच लाख जवानों की तगड़ी फौज खड़ी की जानी चाहिए। उसके बिना सारी आर्थिक सहायता और सामरिक सहयोग बेकार सिद्ध होने में देर नहीं लगेगी। खबरों से पता नहीं चला है कि इस दिशा में भारत की विदेश मंत्री ने कोई ठोस कदम उठाया है या नहीं? उन्होंने भाषण अच्छा दिया और बातचीत भी अच्छी की है। उसका असर तो अच्छा हुआ है लेकिन ठोस कार्रवाई बेहद जरुरी है।
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