नया इंडिया, 23 सितंबर 2014: अफगानिस्तान से आने वाली यह खबर बहुत अच्छी है कि डॉ. अशरफ गनी और डॉ. अब्दुल्ला के बीच समझौता हो गया है। चार माह पहले हुए राष्ट्रपति के चुनाव-परिणाम का भी फैसला हो गया है। फैसला यह हुआ है कि गनी तो राष्ट्रपति होंगे लेकिन अब एक प्रधानमंत्री की तरह मंत्री-प्रमुख भी होगा। उसका निर्णय अब्दुल्ला करेंगे। वे चाहें तो स्वयं भी बन सकते हैं या अपने किसी प्रतिनिधि को नियुक्त कर सकते हैं। याने अफगान सरकार में सत्ता के दो केंद्र होंगे। एक गनी और दूसरे अब्दुल्ला। वैसे वर्तमान संविधान में प्रधानमंत्री का, मंत्री-प्रमुख का कोई पद नहीं है। इसलिए समझौते में प्रावधान यह भी है कि दो साल के अंदर लोया जिरगा (महासंसद) बुलाई जाए, जो यह नया पद निर्माण करेगी। तब तक राष्ट्रपति और मुख्य कार्यकारी मंत्री सत्ता में बराबरी की भागीदारी करेंगे।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि गनी और अब्दुल्ला में समझौता हो गया। इसके बावजूद हो गया कि चुनाव आयोग द्वारा दुबारा की गई मतगणना में गनी को विजयी पाया गया। गनी चाहते तो अड़ जाते लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने देशभक्ति और उदारता का परिचय दिया और अपने प्रतिद्वंदी के साथ सत्ता में हिस्सेदारी स्वीकार कर ली। यदि ऐसा नहीं होता तो यह भी संभव था कि अब्दुल्ला के गैर-पठान समर्थक- ताजिक, हजारा, उजबेक, किरगीज वगैरह- बगावत और हिंसा पर उतारु हो जाते। अब्दुल्ला अपने आपको गनी के मुकाबले अधिक अनुभवी और योग्य भी मानते हैं। इसके बावजूद उन्होंने नंबर-2 की स्थिति स्वीकार कर ली, यह भी इस बात का सूचक है कि इस समय अफगानिस्तान के लोग व्यक्तिगत मान-अपमान के गणित में उलझने की बजाय अपने देश के पुननिर्माण में अधिक रुचि रखते हैं। बस देखना यही है कि अगले दो साल में गनी और अब्दुल्ला के बीच तलवारें न खिंच जाएं।
अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी की पहल पर यह समझौता हुआ है तो अब उन्हें ही देखना होगा कि यह सफल भी हो। यह तो स्पष्ट है कि अमेरिकी फौजों की उपस्थिति संबंधी समझौते पर अब आसानी से दस्तखत हो जाएंगे। नए नेताओं की राह आसान नहीं है। हामिद करजई को तो अंतरराष्ट्रीय सहायता प्रचुर मात्रा में मिलती रही हैं लेकिन अब उसके झरने सूख रहे हैं। अमेरिका की दिलचस्पी भी पहले-जैसी नहीं रही। टैक्स की आमदनी घटती जा रही है। भ्रष्टाचार बेलगाम है।
आतंकवादी, तस्कर और तालिबानी तत्वों की गहरी सांठ-गांठ है। इसके अलावा अब पाकिस्तानी फौज भी पहले से अधिक सक्रिय हो जाएगी। ऐसी स्थिति में दोनों नेताओं को राष्ट्रीय एकता का बिगुल तो फूंकना ही होगा, उसके अलावा ऐसी नई विदेश नीति घड़नी होगी जो अफगानिस्तान को अपने पांव पर खड़ा कर सके।
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