नया इंडिया, 13 फरवरी 2013 : वेंडी डोनिगर की किताब, ‘द हिंदूज़: एन आल्टरनेटिव हिस्ट्री’ को पेन्गुइन पब्लिशर्स ने वापस लेने की घोषणा क्या की, भारत के विद्वत्जगत में भूकंप आ गया। लगभग सभी अंग्रेजी अखबार और उन अखबारों में लिखनेवाले लोगों ने इस विदेशी प्रकाशन संस्थान को धिक्कारा है। उसकी कायरता को कोसा है। उनका कहना है कि इस पुस्तक पर कानूनी प्रतिबंध की मांग अदालत में पिछले चार साल से चल रही थी। इसके पहले कि अदालत कुछ फैसला करती, पेन्गुइन जैसे समर्थ और प्रसिद्ध प्रकाशक ने ‘हिंदू उग्रवादियों’ के आगे घुटने टेक दिए। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार है।
जहां तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल है, मैं उसका पूर्ण पक्षधर हूं और मैं मानता हूं कि किसी पुस्तक या फिल्म पर प्रतिबंध लगाना सामान्यतया उचित नहीं है। लेकिन प्रश्न यह भी है कि जिसे हम अभिव्यक्ति कह रहे हैं, वह अभिव्यक्ति है या अभिवमन है? शौच या वमन का विरोध कौन कर सकता है? वह तो स्वाभाविक है लेकिन आप उसे सरे-आम करें तो वह आपकी स्वतंत्रता है या स्वच्छंदता है? उसे आप अपनी स्वतंत्रता मानते हैं लेकिन वह दूसरों की स्वतंत्रता का हनन करती है। सच्ची स्वतंत्रता वही है, जो न आपकी स्वतंत्रता का हनन करे और न ही दूसरों की स्वतंत्रता का!
श्रीमती वेंडी डोनिगर जैसे लेखकों से मैं पहला प्रश्न यह करुंगा कि आपने हिंदू धर्म के बारे में यह पुस्तक क्यों लिखी है? आपकी असली मंशा क्या है? क्या आप सत्य-शोधक हैं? यदि हां तो आपने उन धर्मों का सत्य-शोधन पहले क्यों नहीं किया, जिनमें आप पली-बढ़ी हैं और जो आपके सबसे निकट हैं? यदि वेंडीजी पहले यहूदी और ईसाई धर्म का वैकल्पिक इतिहास लिखतीं और फिर इस्लाम का, तो उनका लिखे हिंदू धर्म के इतिहास पर शायद ही कोई आपत्ति करता और यदि करता तो वह कह सकती थीं कि मैं तो सत्यशोधक हूं। मेरी नज़र में सारे धर्म एक-जैसे हैं। सभी धर्मों में सत्ता-पिपासा, यौनाचार और लालच का नंगा नाच हो रहा है लेकिन उन पर आध्यात्मिकता का पर्दा डाल दिया गया है। उसे मैंने हटाया है। यही काम महर्षि दयानंद ने किया, ‘सत्यार्थप्रकाश’ लिखकर! उन्होंने पहले 10 अध्यायों में अपने ‘धर्म’ के पाखंडों को उजागर किया और शेष चार अध्यायों में दूसरे ‘धर्मों’ की कड़ी आलोचना की। उस पुस्तक का दर्जनों देशी और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और लाखों लोग उसे पढ़ चुके हैं। उस पुस्तक पर भी कई बार प्रतिबंध लगा लेकिन उन प्रतिबंधों के विरुद्ध जन-आंदोलन भी हुए।
वेंडी की पुस्तक का जवाब उससे भी तगड़ी पुस्तक लिखकर दिया जाता तो बेहतर होता लेकिन प्रश्न यह है कि क्या कीचड़ को कीचड़ से साफ़ किया जा सकता है? नहीं, लेकिन कांटे से कांटे को तो निकाला ही जाता है। यह रास्ता ज़रा कठिन होता है। वेंडी को वह पुस्तक लिखने के लिए लाखों रुपए की शोधवृत्ति मिली होगी और उसने वर्षों के परिश्रम से वह पुस्तक लिखी होगी। पता नहीं, किन-किन ताकतों और तत्वों ने उसकी पीठ थपथपाई होगी? उस पुस्तक की काट करनेवाले किसी भारतीय विद्वान को क्या कोई उतनी ही सुविधाएं और सहायता देनेवाली संस्था भारत में है? इसीलिए जिन लोगों ने उस पर मुकदमा चलाया, उन्होंने सस्ता सौदा पकड़ा और वे फायदे में रहे।
लेकिन उन्हें नुकसान भी हुआ। उनके मुकदमे और उनकी जीत की खबर ने वेंडी की किताब का अभूतपूर्व प्रचार भी कर दिया। अब उसे काफी लोग पढ़ेंगे। उसकी वापसी के पहले उसके कई संस्करण हो जाएंगे। वह इन्टरनेट पर भी जमकर पढ़ी जाएगी। उस पर प्रतिबंध की मांग करनेवाले उसके बड़े प्रचारक सिद्ध हो गए। यदि अब भी वे लोग उस पुस्तक के तथ्यों और तर्कों को काटनेवाला शक्तिशाली ग्रंथ प्रस्तुत नहीं करेंगे तो उस पुस्तक की भौतिक अनुपस्थिति से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा।
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