R Sahara, 12 Oct 2003 : हमारे देश के दलित कितने बदकिस्मत हैं कि उनको नेता भी मिले हैं तो मायावती जैसे ! नेता और उसके अनुयायियों में कुछ तो साम्य होना चाहिए? क्या साम्य है, उनके बीच? मायावती की जीवन-शैली किसी ‘मनुवादी’ से क्या कम है? ऐसा नहीं है कि अवैध सम्पत्तियों का अम्बार सिर्फ मायावती के पास ही है| देश का हर महत्वपूर्ण राजनेता वैसा ही है, जैसी कि मायावती है| फर्क इतना है कि मायावती पकड़ी गई है और वे अभी तक पकड़े नहीं गए हैं| भारतीय राजनीति लुटेरों और चोरों का अड्डा है| यदि कोई भी बड़ा राजनीतिज्ञ आज पाक-साफ होता तो देश में उसकी इज्जत नेहरू, लोहिया या जयप्रकाश जैसी होती| मान लिया कि सभी नेता मनुवादी हैं लेकिन मायावती तो यह सिद्घ करतीं कि वे ‘मनुवादी’ नहीं हैं| क्या भारत के दलित हराम की कमाई पर पलते हैं? क्या वे तिलक, तराजू और तलवार के दम पर लोगों का खून पीते हैं? हजारों वर्षों से वे अपने हाड़ तोड़ रहे हैं और तब भी उन्हें न्याय नहीं मिल रहा, सम्मान नहीं मिल रहा, बराबरी नहीं मिल रही| अपने दस-पन्द्रह वर्ष के कार्यकाल में कांशीराम और मायावती को कितने मौके मिले कि वे चाहते तो दलितों का रूपान्तरण कर देते लेकिन वैसा करने के बजाय उन्होंने स्वयं का रूपान्तरण कर लिया| दलित राजनीति के दम पर पहले उन्हें विधायक, सांसद और मुख्यमंत्री का तिलक मिला| तिलक मिलते ही उन्होंने खुद को तराजू पर चढ़ा दिया| तिलक और तराजू के बाद हाथ में आई तलवार को उन्होंने बंदर की तरह इस्तेमाल किया| वे पूरे ‘मनुवादी’ बन गए| तिलक, तराजू और तलवार ! अब दलित बेचारे क्या करें? उनके पास अब लगाने के लिए क्या रह गए? सिर्फ जूते चार ! ये चार जूते, अब वे किसे लगाऍं ?
मायावती लाख कहें कि उन्हें इसलिए फॅंसाया गया है कि वे दलित हैं, उनकी इस बात पर कौन भरोसा करेगा? क्या आज तक जितने नेता पकड़े गए हैं, वे सब दलित ही हैं? इसके अलावा अपने कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिए दलितों की ओट लेना उन्हें कलंकित करना है| क्या दलित लोग कहते हैं कि भ्रष्टाचार करो? भारत के दलितों के जीवन में जितनी सच्चाई है, कितने अन्य लोगों में है? उनके पास छिपाने के लिए क्या है? उनका जीवन पारदर्शी नहीं होगा तो किसका होगा? वहॉं न कोई आर है न पार है| कोई पर्दा ही नहीं है तो आर और पार कहॉं होगा? अपने चारों तरफ सत्ता और पत्ता का पर्दा डालकर मायावती ने खुद को दलितों से अलग कर लिया है| यदि प्रो. एम.एन. श्रीनिवास के शब्द का प्रयोग करें तो मायावती-कांशीराम का ‘संस्कृतिकरण’ हो गया है| वास्तव में यह ‘संस्कृतिकरण’ नहीं ‘कुसवर्णीकरण’ है| याने सवर्णों की सब गंदी आदतों का वरण है| मूल प्रश्न यह है कि भारत के दलितों और पिछड़ों का प्रतिनिधित्व गॉंधी और लोहिया ने ज्यादा किया या मायावती-कांशीराम युगल ने? इन दोनों नेताओं ने दलितों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व तो किया लेकिन सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से वे निकृष्टतम ‘मनुवाद’ के प्रतिनिधि बन गए| दलितों को सोचना पड़ेगा कि क्या ये लोग उनके सच्चे प्रतिनिधि हो सकते हैं? अपनी सभी शासनकालों में मायावती ने दलितों के लिए क्या किया? यह ठीक है कि औसत दलित के दिल में थोड़े आत्म-विश्वास का संचार जरूर हुआ लेकिन क्या यह उधार का आत्मविश्वास नहीं था? मुख्यमंत्री दलित है, इसलिए कोई दलित फूला न समाए, ये भी कोई बात हुई? आज मायावती मुख्यमंत्री हैं तो आप फूलकर गुब्बारा हो जाऍं और कल वह नहीं रहे तो आप पिचक जाऍं, क्या यह कोई सामाजिक उपलब्धि है? यह तो कृत्र्िाम गर्वोन्माद है, नकली उठान है| इससे भारत के दलितों का कौनसा कल्याण होनेवाला है? जब तक दलित की मानसिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति में परिवर्तन नहीं होता, सम्पूर्ण दलित राजनीति दलितों को अनंत काल तक दलित बनाए रखने का उपकरण बनी रहेगी| दलितों को विचार करना होगा कि वे अपने इन ‘नव-मनुवादी’ नेताओं की तोप का भूसा क्यों बनें? अपनी दो जून की रोटी कमाने के लिए जिन्हें अपना खून-पसीना एक करना पड़ता है, वे बर्थ-डे केक काटनेवाले ढोंगी नेताओं के लिए करोड़ों रुपए क्यों जमा करें या रिश्वत के क्रीम से बने हराम के केक का टुकड़ा अपने मुंह में क्यों रखें?
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यह संयोग की बात है कि पिछले हफ्रते जब मोरिशस से लौट रहे थे तो श्री ह.डो.देवेगौडाजी और मेरी सीट जहाज में साथ-साथ ही थी| यों तो हम दोनों ने अपने उच्चायुक्त श्री परिपूर्णसिंह हेयर के घर भी साथ ही भोजन किया था लेकिन जहाज में जो बात हुई, वह बड़ी प्रासंगिक है| देवेगौड़ाजी ने कहा कि उनकी सबसे बड़ी चिंता भ्रष्टाचार है| भ्रष्टाचार-निवारण के लिए उन्होंने जो योजना सुझाई, वह यह थी कि राष्ट्रपति के तहत एक ऐसा आयोग बनाया जाए जो बिल्कुल स्वायत्त हो| इस आयोग का काम यह देखना हो कि प्रत्येक आयकर दाता अपनी चल-अचल सम्पत्ति का सही-सही ब्योैरा जमा कराए| जो भी गलत ब्यौरा जमा कराए, उसकी शिकायत होने पर या ज़रा भी सन्देह होने पर उसकी जॉंच करवाई जाए, कड़ी सजा का प्रावधान हो और इस आयोग का फैसला अन्तिम हो| इस आयोग को सरकार के प्रभाव से मुक्त रखा जाए| देवेगौडाजी ने पूछा कि मेरी राय क्या है? मैंने कहा प्रस्ताव अच्छा है, लेकिन अपूर्ण है| अनारंभ ही उसकी नियति है| अपूर्णताऍं जरा विस्तार का विषय है लेकिन मूल प्रश्न है कि ऐसा आयोग कौन बनाएगा? नेतागण ! नेतागण क्यों बनाऍंगे? उन्हें मरना है क्या? सबसे ज्यादा वे ही फॅंसेंगे| वे अपने पॉंव पर कुल्हाड़ी क्यों मारेंगे? इस पर देवेगौड़ाजी ने कहा कि “तब क्या करें ? देश को गड्ढे में जाने दें ?” मैंने कहा, नहीं | सबसे पहले देश के समस्त पंचों, पार्षदों, विधायकों और सांसदों तथा सभी दलों के राष्ट्रीय अध्यक्षों से लेकर जिला पार्टी अधिकारियों तक की चल-अचल सम्पत्ति की सार्वजनिक घोषणा प्रति वर्ष करवाने का कानून बने| जिन्हें सत्ता का सुख भोगना है, उन्हें इतनी असुविधा झेलने के लिए तो तैयार रहना ही चाहिए| यदि राजनीतिक-तंत्र का शुद्घिकरण शुरू हो तो नौकरशाही और थैलीशाही अपने आप सही रास्ते पर आ जाएगी| यह छोटी-सी शुरुआत भी कौन करेगा? कोई दिखाई नहीं पड़ता, जो कम से कम खुद से ही शुरू करे| मैंने कहा, ‘देवेगौडाजी, आप ही कुछ हिम्मत क्यों नहीं करते?’ कोई एक पत्थर तो खिसकाए, पूरे पहाड़ को भरभराने में कुछ देर नहीं लगेगी|
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