नया इंडिया, 18 फरवरी 2014: भारत के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने कंधार-यात्रा की और अफगानिस्तान के कृषि विश्वविद्यालय का उद्धाटन किया, वे बधाई के पात्र हैं। आप पूछ सकते हैं, इसमें बधाई की बात क्या है? उन्हें बधाई इसलिए कि कंधार जाने की हिम्मत उन्होंने की। कंधार और काबूल में फर्क है। काबुल कोई भी जा सकता है, क्योंकि वह शहर आजकल एक किले के समान है और वहां हामिद करजई के अलावा अमेरिकियों का भी राज है। जबदस्त बंदोबस्त है जबकि कंधार तो तालिबान की राजधानी रहा है। यह वही कंधार है, जिसने उसामा बिन लादेन को पैदा किया, यह वही कंधार है, जहां भारत का अपह्त जहाज 1999 में ले जाया गया, यह वही कंधार है, जहां आतंकवादियों के सबसे ज्यादा अड्डे हैं। कंधार उन गिलजई पठानों का गढ़ है, जो तालिबान आंदोलन की रीढ़ हैं। उस कंधार में चाहे एक दिन के लिए ही खुर्शीद ने जाने की हिम्मत की, यह बड़ी बात है। 1999 में अटलजी के विदेश मंत्री जसवंतसिंह भी कंधार गए थे लेकिन वे हमारे अपह्त विमान को छुड़ाने गए थे। साथ में नोटों की गड्डियां ले गए थे। और उनकी मुद्रा उस समय विदेश मंत्री की नहीं, बल्कि एक याचक भारतीय की थी, जो किसी भी कीमत पर अपने नागरिक की जान बचाने पर आमादा थे।
लेकिन खुर्शीद के सिर पर सद्भाव और कृपा का साया था, क्योंकि वह विश्वविद्यालय भारत की मदद से बना है। भारत ने पिछले 10-12 साल में अफगान भाइयों के लिए क्या-क्या नहीं किया? उनका संसद भवन बनाया, सड़कें बनाई, बिजलीघर बनाए,, स्कूल-कॉलेज बनाए, अस्पताल बनाए। उन्हें 12 हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा की मदद की। इतनी मदद भारत ने आज तक किसी भी देश की नहीं की। भारत ने अफगान-ईरान सीमांत पर जो जरंजदिलाराम सड़क बनाई है, उसने अफगानिस्तान को आवागमन की आजादी दी है। यों तो अफगानिस्तान हमेशा आजाद मुल्क रहा है लेकिन चारों तरफ जमीन से घिरे रहने की वजह से पाकिस्तान उसे ब्लेकमेल करता रहता था। अफगानिस्तान के सारे रास्ते पाकिस्तान होकर जाते थे। अब ईरान के रास्ते होकर अफगानिस्तान सारी दुनिया से संपर्क रख सकता है। इसका श्रेय भारत को है। अटलबिहारी वाजपेयी को है, जिन्होंने वह सड़क बनवाई।
लेकिन करजई के बाद भारत की भूमिका क्या होगी, इस पर मनमोहन सरकार शून्य में ताक रही है। उसके पास कोई रणनीति, कोई विचार, कोई विकल्प नहीं है। पता नहीं खुर्शीद ने अपनी कुछ घंटों की यात्रा में करजई से इस मुद्दे पर कोई विचार किया नहीं? यह ठीक है कि भारत अकेला अफगानिस्तान की सुरक्षा की जिम्मेदारी नहीं ले सकता। जब ब्रिटेन, रूस और अमेरिका वहां मुंह की खा गए तो भारत की क्या बिसात है लेकिन कूटनीति ऐसी चीज है, जो असंभव को भी संभव बना सकती है किन्तु कूटनीति की यहां कौन कहे, इस सरकार ने सारी नीतियों को कूट-कूट कर कचरा बना दिया है।
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