R Sahara, 1 June 2003: राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अभी सिर्फ एक पास ही फेंका है लेकिन यह मामूली पासा कहीं पूरी शतरंज के उलटने का बहाना न बन जाए| अब केंद्र सरकार भी कह रही है कि वह सारे देश में ऊंची जातियों के गरीबों को भी आरक्षण देगी| अब मुसलमानों में भी जो गरीब हैं, उनके लिए आरक्षण की मांग उठ आई है| यदि ऊंची जाति के गरीबों को आरक्षण मिल रहा है तो नीची जातियों के गरीबों को क्यों नहीं मिले? पिछड़ों में जो ज्यादा गरीब हैं, उन पर भी विशेष ध्यान क्यों नहीं दिया जाए? गरीबों को आरक्षण देने का कौन विरोध कर सकता है और गरीब की जात क्या पूछना, मज़हब क्या पूछना, भाषा क्या पूछना? क्या मरीज का इलाज जात, मजहब, भाषा या प्रांत के आधार पर किया जाता है? यदि गरीब की जात नहीं पूछना है तो अमीर की क्यों पूछना? किसी भी जात का अमीर हो, उसे आरक्षण क्यों मिलना चाहिए?
इस प्रश्न का उत्तर डॉ. राममनोहर लोहिया यह कहकर दिया करते थे कि सिर्फ अमीर होने से आदमी बड़ा नहीं बनता| भारत का समाज कुछ ऐसा विचित्र है कि यदि आप अमीर हैं लेकिन निचली जाति में पैदा हो गए हैं तो आपको कोई बड़ा नहीं मानेगा| आपके साथ भेदभाव होता रहेगा| आपको आर्थिक समता तो मिल जाएगी लेकिन सामाजिक समता नहीं मिलेगी| इसी तर्क को सामाजिक न्याय का आंदोलन बनाकर पिछले 35 साल में अनेक नेताओं ने भारतीय राजनीति का रूप ही बन दिया| न केवल पिछड़ी जातियों को आरक्षण मिला बल्कि इन्हीं जातियों के अनेक राज्यों में लगातार सत्ता भी हथियाई| तीन दशक के इस अनुभव का परिणाम क्या निकला? क्या हम भारतीयों के दिल में से ऊंच-नीच का भाव कम हुआ?
शायद उल्टा ही हुआ| जातिवाद की जड़ें गरी हुईं| जाति के नाम पर समाज टूटा| वैमनस्य बढ़ा| लोग अच्छे-बुरे का फर्क भूल गए| हर काम को जात की तराजू पर तौला जा रहा है| हर अदमी की जात पूछी जा रही है| इससे बड़ी राष्ट्रघाती प्रवृत्ति क्या हो सकती है? क्या यही लोहिया का सपना था? वे विशेष अवसर के सिद्घांत में विश्वास करते थे लेकिन यह सिद्घांत प्रतिपादित करते समय वे लगातार ‘जात-तोड़ो आंदोलन’ चलाने की बात भी कहते थे| आज ‘जात-तोड़ो’ का कोई नामलेवा-पानीदेवा नहीं है| अगर जात तोड़ो आंदोलन जोरों से चलता तो आरक्षण अपने आप असंगत हो जाता| पिछड़े ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते, अपनी जातीय केंचुली छोड़ते जाते लेकिन आजकल वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रहे हैं, यह केंचुली गैंडे की खाल बनती जा रही है| अगड़ों के सारे दुर्गुण उनमें भरते जा रहे हैं और समाज में टूटन बढ़ती जा रही है| आरक्षितों में नया वर्ग उभर रहा है, जिसे उच्चतम न्यायालय ने ‘मलाईदार परत’ कहा है| ऊंची जातियों के गरीबों में इस ‘मलाईदार परत’ के विरुद्घ अंदर ही अंदर ईर्ष्या की आग सुलग रही है| इसी आग को ठंडा करने काउपाय अब केंद्र सरकार खोज रही है|
लेकिन यह कोई स्थायी या दूरगामी उपाय नहीं है| उच्चतम न्यायालय ने 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण को अनुचित बताया है| इस निर्देश का उल्लंघन किए बिना ऊंची जातियों के बरीबों को आरक्षण नहीं दिया जा सकता| इसके अलावा क्या यह तय करना आसान है कि कौन अमीर है और कौन गरीब? और यदि यह ऊंची जातियों के बारे में तय किया जा सकता है तो सारे भारतीयों के बारे में क्यों नहीं किया जा सकता? यदि आरक्षण देना है तो केवल गरीबों को दिया जाए| एक-एक आदमी को परख कर दिया जाए|
थोक में न दिया जाए| समूहों और जातियों के नाम से न दिया जाए| अब खास जातियां खास धंधों से बंधी हुई नहीं हैं| उनमें काफी तरलता आ गई है| जाति और वर्ग के संबंध अब तेजी से बदलते जा रहे हैं| इन नई सच्चाइयों को देखना और मानना अब जरूरी हो गया है| जातियों के नाम पर दिया गया आरक्षण जातिवाद के जहर को और तेजी से फैलाएगा| यदि भारत में सच्चे लोकतंत्र को स्थापित करना है तो जातिवाद को जड़मूल से उखाड़ना जरूरी है|
जातीय आरक्षण के लिए कानून बनाने की बजाय अब जातिसूचक उपनामों को खत्म करने के लिए कानून बनना चाहिए| यदि आरक्षण का आधार अब गरीबी बनेगी तो यह बहस यहीं नहीं थमेगी| यह ऊंची जातियों को लांघकर पिछड़ों और अनुसूचितों तक पहुंचेगी| इन जातियों मे तूफान उठोगा, बगावत फैलेगी, असंतोष भड़केगा| सुपात्र की उपेक्षा और कुपात्र की पूजा कब तक चलेगी? नेता लोगों को सिर्फ वोटों से मतलब है| उन्होंने ऊंची जातियों को रिझाने के लिए यह पैंतरा भरा है लेकिन इसी बहाने उन्होंने भारत की नब्ज पर हाथ रख दिया है| जिस दिन भारत में जन्म के बजाय कर्म का बोलबाला होगा, हजारों वर्ष की गंदगी छंट जाएगी| अनंत शक्तियों के छिपे हुए झरने फूट पडेंगे|
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