R Sahara, 14 Sep 2003 : हिन्दी दिवस, 14 सितम्बर मनाने के दो तरीके हैं | एक तो सरकारी तरीका है और दूसरा वह, जो दुनिया में किन्हीं भी भाषाप्रेमियों का होता है | सरकारों का भाषा से नहीं, कुर्सी से प्रेम होता है| अगर भाषा के कारण कुर्सी उलटती हो या जमती हो तो वे अवश्य ही भाषा-प्रेम का ढोंग रचाऍंगी| अब से तीन साल पहले प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के निवास पर भारतीय भाषा सम्मेलन ने भव्य सभा आयोजित की थी | उसमें उन्होंने इच्छा व्यक्त की थी कि हर हिन्दी-दिवस पर प्रधानमंत्री निवास में इस तरह का आयोजन होना चाहिए लेकिन पिछले साल इस दिन वे विदेश चले गए और इस साल वे दिल्ली में हैं, लेकिन भूल गए कि उन्हें हिन्दी दिवस पर क्या करना है| याद दिलाने पर भी उन्हें याद नहीं आया | क्यों नहीं आया ? शायद इसलिए कि पिछले समारोह में उन्हें कुछ खरी-खरी सुननी पड़ी थी, हालॉंकि हर खरी-खरी शहद में भीगी हुई थी| खरी-खरी सुनने के बावजूद पिछले दो वर्षों में उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया कि उनकी तारीफ़ में कसीदे काढ़े जाऍं| वे कह सकते हैं कि मैंने संयुक्तराष्ट्र्र संघ में हिन्दी में भाषण दिया और अब भी दूंगा| यह उन्होंने अच्छा किया लेकिन क्या ये कोरा कर्मकांड नहीं है ? यह कोरा कर्मकांड तब नहीं माना जाएगा जबकि वे भारत में भी सदा हिन्दी या किसी अन्य भारतीय भाषा में ही बोलें | वे संसद तक को नहीं बख्शते| संसद में भी वे अंग्रेजी में लिखा हुआ पढ़ते हैं| संसद का इससे बड़ा अपमान क्या होगा ? ज़रा याद करें कि गॉंधी ने क्या कहा था ?
गॉंधीजी ने कहा था कि आजाद भारत की संसद में यदि कोई स्वभाषा जानते हुए भी अंग्रेजी में बोले तो उसे सख्त सजा दी जानी चाहिए | किस-किसको सजा देंगे ? कौन है, जो अंग्रेजी जानते हुए अंग्रेजी में नहीं बोलता ? प्रधानमंत्री अंग्रेजी नहीं बोल सकते लेकिन अंग्रेजी पढ़ तो सकते हैं| इसीलिए अफसरों के लिखे भाषण पढ़ देते हैं | कोई और प्रधानमंत्री ऐसा करे तो वह इतना बुरा नहीं है लेकिन हिन्दी का एक महान वक्ता, पत्रकार और कवि ऐसा करे तो करोड़ों हिन्दीभाषियों को देश और विदेश में चोट पहॅुंचती है | संयुक्तराष्ट्र्र संघ में उनका जो हिन्दी-भाषण होता है, क्या वह वास्तव में हिन्दी-भाषण होता है ? वास्तव में वह अंग्रेजी-भाषण होता है | हिन्दी में तो उसका अनुवाद पढ़ा जाता है| कोई अफसर मौलिक भाषण अंग्रेजी में लिखे और किसी देश का प्रधानमंत्री उसका अनुवाद पढ़े, यह तो उसका और उसके देश का, दोनों का अपमान है | इस अपमान से बचने के लिए नवंबर 1999 में संयुक्तराष्ट्र्र संघ में मैंने अपने तीनों भाषण अंग्रेजी में ही पढ़े| हिन्दी में पढ़ा गया भाषण संयुक्तराष्ट्र्र के रिकॉर्ड में भी नहीं जाता| रिकॉर्ड में मूल अंग्रेजी भाषण ही जाता है| इसीलिए फालतू ढोंग क्यों किया जाए? संयुक्तराष्ट्र्र में हिन्दी लाऍं और अपने राष्ट्र्र में अंग्रेजी की गुलामी करें, यह कैसे चलेगा ? विदेशी कामों में विदेशी भाषाओं का उपयोग किया जा सकता है लेकिन स्वदेशी कार्यों में स्वभाषा के प्रयोग का व्रत हमें लेना चाहिए | राष्ट्र्रपतियों, प्रधानमंत्रियों आदि को तो विदेशों में भी स्वभाषा का ही प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि वे व्यक्तिगत हैसियत में वहॉं नहीं जाते | वे वहॉं अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हैं | आम नागरिक अगर यह सोच रहे हों कि हिन्दी दिवस पर हमारे नेता हमें कुछ प्रेरणा देंगे तो उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी | उनका लक्ष्य हिन्दी नहीं, कुर्सी है | लोकभाषा तभी राजभाषा बनेगी, जब आप राज की कुर्सी हिला देंगे | कुर्सी हिलाने के साथ-साथ प्रत्येक भारतीय को अपना निजी काम-काज स्वभाषा में करने का आग्रह रखना होगा| अपने प्रामाणिक हस्ताक्षर किसी भी कीमत पर हम विदेशी भाषा में न करें | सदा स्वभाषा में करें | सरकार चाहे जो करे, हम अपनी लीक न छोड़ें | लोक भाषा किसी न किसी दिन राजभाषा अवश्य बनेगी |
हिन्दी को संविधान ने राजभाषा घोषित कर दिया लेकिन क्या वह सचमुच भारत की राजभाषा है ? क्या सरकारी कामकाज हिन्दी में होता है ? सरकार के समस्त महत्वपूर्ण काम मौलिक तौर पर अंग्रेजी में होते हैं | हिन्दी राजभाषा नहीं, अनुवाद भाषा है | नाम उसको महारानी का दिया हुआ है और काम उससे नौकरानी का लेते हैं | क्या आज तक एक भी विधेयक मूल हिन्दी में पेश किया गया और वह कानून बना ? जो संसद अपने पचास साल के जीवन में एक भी कानून राजभाषा में नहीं बना पाई, वह भी क्या संसद है ? क्या उच्चतम न्यायालय ने आज तक एक भी फैसला राजभाषा में दिया है ? जिस देश की संसद और सबसे उॅंची अदालत का बुनियादी काम परदेसी भाषा में होता हो, उस देश को कोई आज़ाद देश कहेगा ? क्या देश की सबसे उॅंची पढ़ाई स्वभाषा में होती है ? जब 1965-66 में मैंने अपना अन्तरराष्ट्र्रीय राजनीति का शोधग्रंथ हिन्दी में लिखने की कोशिश की तो मुझे स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ ने निकाल बाहर किया| क्या किसी स्वाधीन देश में कभी ऐसी हिमाकत होती है? यदि राममनोहर लोहिया, मधु लिमए और आचार्य कृपालानी जैसे लोग सरकार पर टूट नहीं पड़ते तो शायद मैं पीएच.डी. ही नहीं कर पाता | उस समय के मेरे दो समर्थक प्रधानमंत्री भी बने – चंद्रशेखरजी और अटलजी लेकिन वे भी क्या कर पाए ? चंद्रशेखरजी तो कुछ माह ही प्रधानमंत्री रहे लेकिन उन्होंने मेरे अनुरोध पर मालदीव के दक्षेस सम्मेलन में हिन्दी में भाषण दिया लेकिन अटलजी ने आजतक किसी भी दक्षेस सम्मेलन में चंद्रशेखरजी की तरह मौलिक भाषण हिन्दी में नहीं दिया | तीन साल पहले प्रधानमंत्री निवास पर हुए समारोह में जिस वाक्य पर सबसे अधिक तालियॉं बजी थीं, वह यह था – “आप हिन्दी की वजह से देश के प्रधानमंत्री हैं तो क्या प्रधानमंत्री की वजह से देश में हिन्दी नहीं होनी चाहिए ?” यही प्रधानमंत्री जब केवल “श्री अटलबिहारी वाजपेयी” थे और आपात्काल में कैदी थे तो उन्होंने हिन्दी के बारे में क्या लिखा था, कृपया पढि़ए, उन्हीं के शब्दों में –
बनने चली विश्वभाषा जो, अपने घर में दासी |
सिंहासन पर अंग्रेजी को, लखकर दुनिया हॉंसी |
लखकर दुनिया हॉंसी, हिन्दीवाले हैं चपरासी |
अफसर सारे अंग्रेजीमय, अवधी हो मदरासी |
कह कैदी कविराय, विश्व की चिन्ता छोड़ो |
पहले घर में, अंग्रेजी के गढ़ को तोड़ो |
कैदी कविराय अब प्रधानमंत्री बन गए हैं | बने हुए पॉंच साल हो गए हैं | क्या कैदी कविराय बताऍंगे कि उन्होंने देश को और खुद को अंग्रेजी की कैद से मुक्त कराने के लिए कोई प्रयत्न किया या नहीं ? क्या अब भी वे अंग्रेजी के कैदी बने रहेंगे ? प्रधानमंत्री बन जाने पर भी क्या हिन्दीवाले की हैसियत चपरासी की ही रहेगी ?
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