R Sahara, 27 April 2003 : जून के प्रथम सप्ताह में सूरिनाम में सातवॉं विश्व हिन्दी सम्मेलन होनेवाला है| सांसद बालकवि बैरागी ने राज्यसभा में सरकार से पूछा है कि उसका आयोजन कौन कर रहा है, भारत सरकार का उसमें क्या योगदान है, उसके प्रतिनिधिमंडल में किन्हें शामिल किया जा रहा है और शामिल करने के मानदंड क्या हैं? इन प्रश्नों के अलावा उन्होंने जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है, वह यह है कि सम्मेलन का लक्ष्य क्या है? उसका प्रयोजन क्या है? यह प्रश्नों का प्रश्न है| यह प्रश्न सिर्फ सातवें ही नहीं, पिछले सभी सम्मेलनों के बारे में उठाया जाना चाहिए था| पिछले 30 साल से आयोजित हो रहे इन सम्मेलनों में भारत सरकार के करोड़ों रुपए खर्च होते हैं लेकिन यह पता नहीं चलता कि उनकी निष्पत्ति क्या होती है| विश्व-स्तर पर हिन्दी का प्रचार-प्रसार होना तो बहुत दूर की बात है, भारत में ही इन सम्मेलनों का क्या असर होता है? ये सम्मेलन अपने पीछे कटुता, विद्वेष, शिकायतें या अपि्रय प्रसंगों के अलावा क्या छोड़ जाते हैं? मराठी, बांग्ला, असमिया आदि भाषाओं के सम्मेलनों की तरह हमारे सम्मेलनों में जनता क्यों नहीं उमड़ती? हमारे सम्मेलन जेबी सम्मेलन होकर क्यों रह जाते हैं?
सुधाकर पांडेय कोई छोटा-मोटा नाम नहीं है| उनका महाप्रयोग हिंदी जगत की खास खबर नहीं बनी| यदि भारतीय भाषा सम्मेलन की विज्ञप्ति नहीं जाती तो दिल्ली के लोगों को पता ही नहीं चलता कि सुधाकरजी चले गए| हिन्दी अखबारों का हाल यह है कि किसी ने उन्हें सुधाकर की जगह सुधारक लिख दिया और किसी ने पाण्डेय की जगह पाण्डे लिख दिया| कुछ अखबारवालों ने फोन पर पूछा कि यह नागरी प्रचारिणी सभा क्या है? एक संवाददाता ने पूछा कि क्या वे भारतीय भाषा सम्मेलन में थे? यह हिन्दी पत्रकारिता की दशा का दर्पण है| हमारे नौजवान पत्रकार व्यावसायिक दृष्टि से तो योग्य हैं लेकिन हिन्दी, उसके साहित्य, उसके लेखकों, उसके योद्घाओं और उसके सेवियों के बारे में उनकी अनभिज्ञता चिंता का विषय है|
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने वीर सावरकर पर बोलने के लिए मुझे अपने छात्रावास में बुलाया| सभा लगभग दो घंटे चली| रात 10 बजे से 12 बजे तक ! भाषण के बीच में एक-दो छात्र बीच में बोल पड़े| मैंने उनके उत्साह को सराहा और कहा कि भाषण के बाद आप जमकर बोलिए और खुलकर सवाल कीजिए| यदि आप कोई नया मुद्दा लाएंगे और मेरे तर्कों को काटेंगे तो मैं आपकी बात सहर्ष मानूंगा लेकिन भाषण के बाद जब प्रश्नोत्तर का दौर चला तो श्रोतागण दो खेमों में बंट गए| जबर्दस्त हंगामा हो गया| दोनों पक्षों के छात्र बड़े जागरूकम मालूम पड़ रहे थे| सावरकर, जिन्ना और गॉंधी के बारे में उन्होंने काफी पैने प्रश्न उठाए लेकिन मुझे लगा कि दोनों खेमों के छात्र जागरूक नहीं, अति-जागरूक थे| मुख्य-विषय और मुख्य-वक्ता तो दरकिनार हो गए| सभा-गृह वास्तविक अखाड़ा बन गया| आरोप-प्रत्यारोप और धक्का-मुक्की में कार्यक्रम समाप्त हुआ लेकिन अखबारों से पता चला कि बाद में मार-पीट भी हुई, पर्चेबाज़ी और पोस्टरबाज़ी भी चल रही है और विश्वविद्यालय ने जॉंच भी बैठा दी है| क्या दशा हो गई है, शिक्षा के इस महान केंद्र की? मुक्त-विचार की जगह मुक्काचार चल पड़ा है|
पिछले दिनों ईरान के राष्ट्रपति भारत आए थे| उन्होंने दिल्ली के चुने हुए दो सौ मुसलमानों के सामने विस्मयकारी भाषण दिया| उन्होंने भारतीय मुसलमानों से कमहा कि इस्लाम तो शांति का धर्म है| उससे गजनी और गोरी जैसे लुटेरों और हत्यारों को क्यों जोड़ा जाता है? उन्होंने इस्लाम की कौनसी इज्जत बढ़ाई है? इन्ही राष्ट्रपति मुहम्मद खातमी की पुस्तक ‘इस्लाम, डायलॉग एंड सिविल सोसायटभ्’ मुझे ईरानी दूतावास ने भिजवाई है| इस पुस्तक में खातमी साहब ने जो विचार व्यक्त किए हैं, वे जमालुद्दीन अफगानी, शेख मुहम्मद आबिद, इकबाल, मुत्तहरी, अली शरीयती आदि की परम्परा में हैं| उनकी पुस्तक से पता चलता है कि उन्हें प्लेटो, हीगल, कांट आदि पश्चिमी विचारकों के बारे में अच्छी जानकारी है और
वे पश्चिमी सभ्यता की ताजातरीन प्रवृत्तियों से भी वाकिफ हैं| वे मध्यममार्गी और स्याद्रवादी मालूम पड़ते हैं| वे इस्लाम के मध्यकालीन सिद्घांतों पर मजबूती से कायम रहते हुए आधुनिकक पश्चिमी मूल्यों को भी आत्मसात करना चाहते हैं| इसे ही वे ‘सभ्यताओं के सम्वाद’ का नाम देते हैं| उन्होंने मुसलमानों से दो-टूक शब्दों में कहा है कि वे अंधविश्वास छोड़ें और तर्क तथा बौद्घिकता को अपना औजार बनाऍं ताकि वे दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकें| राष्ट्रपति खातमी राजनेता तो हैं ही, लेकिन मंझे हुए विद्वान भी हैं| इस तरह के विद्वान जितने ईरान में हैं, शायद किसी अन्य मुस्लिम देश में नहीं हैं| कुम, तेहरान, इस्पहान, मशद और शीराज़ में कई बार ऐसे आयतुल्लाहों और हुज्जतुल्लाहों से मेरी भेंट हुई है, जिन्हें वेदों के मंत्र और गीता के श्लोक कंठस्थ हैं| पिछले दिनों जामिया मिलिया में ईरान के आयतुल्लाह मुहम्मद एराकी के साथ ‘इस्लामी और भारतीय एकेश्वरवाद’ (वहदतुलवजूद) पर सार्वजनिक सम्वाद करते हुए मैंने पाया कि यदि हमारे पंडितों को इस्लाम के बारे में उतनी जानकारी हो, जितनी की भारतीय दर्शन के बारे में शिया-आयतुल्लाहों को है तो पता नहीं कितनी दूरियॉं पाटी जा सकती हैं|
अब राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए यह आवश्यक नहीं होगा कि उम्मीदवार उसी राज्य का रहनेवाला हो| याने अब राज्यसभा में उ.प्र. का प्रतिनिधित्व कोई उत्तरप्रदेशी ही करे, यह जरूरी नहीं होगा| पहले यह जरूरी था| पहले भी दूसरे प्रदेशों के लोगों को किसी भी प्रदेश से चुनकर राज्यसभा में भिजवा दिया जाता था| यह पहले अपवाद होता था, अब यह छूट बन गई है| तो फिर इस सदन का नाम राज्यसभा ही क्यों रहने दिया जाए? इसे ‘कृपा-पात्र सभा’ क्यों न कह दिया जाए? कोई भी पार्टी या उसका नेता अपने चहेतों को जहॉं से भी चाहे चुनवाकर राज्यसभा में भिजवा दे| राज्यसभा में पहुंचकर कोई सदस्य अपने राज्य के हिंदी की बजाय अपनी पार्टी या नेता के हितों की वकालत करे, यह अब बिल्कुल स्वाभाविक होगा|
दलबदल के बारे में मंत्रिमंडल का निर्णय शुभ है| अब किसी भी संसद या विधायक को दल-बदल करने की छूट नहीं मिलेगी| यह कानून बनने के बाद यदि कोई दल-बदल करना चाहेगा तो पहले उसे सदन से इस्तीफा देना होगा| अब तक दल-बदल चोर दरवाज़े से होता रहता है याने अगर किसी भी पाटर्भ् के एक-तिहाई सदस्य टूट जाऍं और दल बदलना चाहें तो बदल सकते हैं याने कोई अकेला चोरी करे तो चोर है और एक-तिहाई मिलकर करें तो साहूकार हैं| यह गणितीय जादूगरी अब खत्म होगी| लेकिन कानून बनाते वक्त भजनलालीय स्थिति पर भी विचार करना होगा याने यदि पूरा का पूरा दल ही पलटा खा जाए तो कानून क्या करेगा
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