दैनिक भास्कर, 8 जून 2013 : मियॉं नवाज़ शरीफ के इस तीसरे प्रधानमंत्री-काल में क्या भारत-पाक संबंधों में कोई बुनियादी सुधार होगा? यह प्रश्न आजकल मुझसे पाकिस्तान का हर नेता और टीवी एन्कर पूछता है। मियां नवाज शरीफ मूल रुप से पाकिस्तान के दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी तत्वों के नेता माने जाते हैं। हम यह कह दें तो खास हर्ज नहीं कि वे पाकिस्तान की भाजपा के नेता हैं। उन्होंने ही अफगानिस्तान में तालिबान को आगे बढ़ाया था और उन्होंने ही भारत के लिए जवाबी एटमी धमाका किया था। उनके दूसरे प्रधानमंत्री-काल में ही कारगिल-युद्ध हुआ था। उनके अपने तख्ता-पलट के पहले तक यह माना जाता था कि फौज के साथ किसी भी पाकिस्तानी नेता के घनिष्ट संबंध हैं तो वे मियां नवाज़ के हैं।
लेकिन मियां नवाज़ ने ही पहल की थी कि जिसके कारण प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान गए थे। अटलजी न केवल ‘मीनारे-पाकिस्तान’ पर गए बल्कि उन्होंने घोषणा भी की थी कि भ्ज्ञारत पाकिस्तान के अस्तित्व को स्वीकार करता है। उनकी इस घोषणा से पाकिस्तान में पहली बार यह विश्वास जमा कि भारत पाकिस्तान को खत्म नहीं करना चाहता। भारत और पाकिस्तान के संबंधों की असली जड़ यही है। हर पाकिस्तानी के दिमाग में यह बात ठूंस-ठूंसकर भर दी गई है कि भारत के नेताओं ने 1947 का बंटवारा अभी तक स्वीकार नहीं किया है। यदि भारत हमला करेगा तो पाकिस्तानियों को कौन बचाएगा? जाहिर है कि फौज बचाएगी! पाकिस्तान के लोकतंत्र पर फौज इसीलिए भारी पड़ती है। इसी कारण नेताओं की मीठी-मीठी घोषणाओं के बावजूद दोनों देशों में संबंध-सुधार नहीं होता।
क्या फौज इस बार भी भारी पड़ेगी? शायद नहीं। पिछले पांच वर्षों में आसिफ ज़रदारी की सरकार इतनी कमजोर रही कि फौज चाहती तो उसे निगल जाती। लेकिन जनरल अशफाक परवेज़ कयानी के नेतृत्व में पाकिस्तानी फौज अपनी मर्यादा में रही। यह भी ठीक है कि बलूच नेता अकबर बुगती की हत्या, लाल-मस्जिद कांड, कराची नौसैनिक अड्डे का घेराव, उसामा बिन लादेन की हत्या आदि वे घटनाएं हैं जिन्होंने पाकिस्तानी फौज का दबदबा कम कर दिया था लेकिन यह सत्य है कि पांच साल तक एक लोकतांत्रिक सरकार लगातार चलती रही, ऐसा पाकिस्तान में पहली बार हुआ। अब जबकि मियां नवाज़ ने अपने स्पष्ट बहुमत की सरकार बना ली है तो यह सरकार तो ज़रदारी की गठबंधन सरकार से ज्यादा मजबूत है। फौज इस पर हाथ कैसे डालेगी? और फिर नए सेनापति की नियुक्ति शीघ्र ही खुद मियां नवाज़ करेंगे।
मिया नवाज़ पंजाबी हैं। वे कोई सिंधी या बलचू या पठान नहीं हैं। वे उस पंजाब की आवाज़ हैं, जो सब प्रांतों से बड़ा है। अकेले पंजाब की जनसंख्या शेष सारे पाकिस्तान से ज्यादा है। पंजाब को ही भारत से सबसे ज्यादा खतरा दिखाई पड़ता है, क्योंकि वही भारत के सीमांत पर स्थित है। बाकी प्रांतों के कई जन-नेताओं ने मुझसे कहा कि वे भारत से कोई खतरा महसूस नहीं करते। इसीलिए भारत के साथ यदि पूरे आत्म-विश्वास के साथ कोई बातचीत कर सकता है तो वह मिया नवाज़ ही है।
यह मियां नवाज का आत्म-विश्वास था कि उन्होंने कह दिया था कि उन्हें बुलाया नहीं गया तो भी वे भारत जाएंगें और उन्होंने अपने शपथ-समारोह में भारतीय प्रधानमंत्री को भी आने के लिए कह दिया था। भारत की तरफ से गर्मजोशी की कमी का मतलब यहां यह लगाया जा रहा है कि अब मियां नवाज़ को अपना एक-एक कदम फूंक-फूंककर रखना चाहिए।
शायद इसीलिए उन्होंने अपनी शपथ के बाद दिए गए प्रथम भाषण में भारत का जिक्र तक नहीं किया। मैंने जब यहां विदेश मंत्रालय के उच्च अधिकारियों से इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि वे जब संसद में अपना नीति-वक्तव्य देंगे, तब शायद विस्तार से बोलेंगे। स्वयं मियां नवाज़ ने मुझसे हुई पहली मुलाकात में कहा था कि युद्धों और मुठभेड़ों के दिन लद गए। अब हम दोनों मुल्कों को मिलकर नए एशिया के निर्माण में जुट जाना चाहिए।
वास्तव में मियां नवाज़ ने परमाणु-बम बनाकर पाकिस्तान के दिल से यह डर निकालने की कोशिश की थी कि भारत उसे खा जाएगा। परमाणु बम के बावजूद करगिल-युद्ध हो गया, क्योंकि फौज ने साचा कि यह आखिरी मौका है कि डंडे के जोर पर कश्मीर को खींच लिया जाए। पाकिस्तानी परमाणु बम ने अब मियां नवाज़ के इस विश्वास को मजबूत किया है कि भारत से डरने की जरुरत नहीं है और साथ ही करगिल जैसे युद्ध छेड़ना बेकार है। पाकिस्तानी जनता के मन से भारत का डर निकलते-निकलते ही निकलेगा। फौज और आईएसआई का रवैया आसानी से नहीं बदलेगा। फिर भी मियां नवाज़ के प्रधानमंत्री बनने पर पाकिस्तानी चित्त-शुद्धि की यह प्रक्रिया ज़रा तेज होगी।
यों भी पाकिस्तान अपनी आंतरिक समस्याओं में इस बुरी तरह उलझा हुआ है कि उसे भारत से युद्ध छेड़ने की फुर्सत ही नहीं। चुनाव के दौरान भारत-विरोधी प्रचार लगभग हुआ ही नहीं। अपने पहले भाषण में मियां नवाज़ ने पाकिस्तान को समस्याओं का जंगल कहा और यह भी कह दिया कि वे पाकिस्तान की जनता को कोई सब्ज-बाग नहीं दिखांएगे। उनका सारा ध्यान मंहगाई, बिजली संकट, भ्रष्टाचार और आतंकवाद जैसी समस्याओं पर केंद्रित है। ऐसी स्थिति में क्या वे भारत से मुठभेड़ करना चाहेंगे या उससे व्यापार आदि बढ़ाना चाहेंगे? उनकी पार्टी की सरकार सिर्फ पंजाब प्रांत में ही बनी है। अन्य प्रांतों को साथ लेकर चलना भी उनकी प्राथमिकता है। वे भारत से भिडें़गे या अपनी राजनीतिक गुत्थियां सुलझाएंगे।
मियां नवाज़ का यह भी सौभाग्य है कि संसद और अन्य प्रांतों में इस समय उनके जितने भी विरोधी हैं, उनमें से भारत के विरुद्ध दुश्मनी की घोषणा करनेवाला कोई भी प्रमुख दल या नेता नहीं है। अर्थात उन पर भारत से संबंध बिगाड़ने का दबाव बहुत कम रहेगा। पाकिस्तानी संसद में एक भी शब्द भारत के विरुद्ध नहीं बोला गया। पाकिस्तान के लगभग सभी नेताओं ने मुझे आश्वस्त किया है कि यदि मियां नवाज़ भारत से संबंध-सुधार की कोई बड़ी पहल करेंगे तो वे उसका समर्थन करेंगे लेकिन लगभग हर नेता और बुद्धिजीवी ने यह भी पूछा है कि आपकी सरकार क्या इस लायक है कि वह कोई पहल कर सके?
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं और आजकल पाकिस्तान में हैं)
इस्लामाबाद
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7 जून 2013
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