राष्ट्रीय सहारा, 1 दिसंबर 2002 : उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने ऐसा काम कर दिया, जो प्राय: नेता लोग नहीं करते| उन्होंने देश के सोचने-विचारने वाले लोगों को बड़ी मुसीबत में डाल दिया है| हिन्दुत्वादी उन्हें छद्म-हिन्दू कह रहे हैं तोसेक्यूलरवादी उन्हें छद्म-सेक्यूलर! श्री आडवाणी ने ऐसा क्या कह दिया है कि उन्हें दोनों तरफ से मार पड़ रही है| मूल प्रश्न यहहै कि क्या हिन्दुत्व और भारतीयता एक-दूसरे के पर्याय है ? क्या भारत हिन्दू राज्य और हिन्दू राष्ट्र दोनों एक साथ हो सकता है ?
श्री आडवाणी ने संसद में सिर्फ यह कहा है कि भारत न तो हिन्दू-राज्य है और न ही बन सकता है| लेकिन वह हिन्दू राष्ट्र है औररहेगा| यानी पहले राष्ट्र और राज्य का अन्तर समझा जाए| उसे समझे बिना इस विषय पर बहस ही नहीं हो सकती| अभी जोबहस चल रही है, वह अंधेरे में लठ चल रहा है| हिन्दुत्ववादियों का नाराज़ होना बिल्कुल स्वाभाविक है, क्योंकि वे कभी राष्ट्रऔर राज्य की बारीकी में गए ही नहीं| उन्हें शायद जाने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि उनकी प्रेरणा की जड़ जिस काल में है, उसमें राष्ट्र और राज्य अलग-अलग थे ही नहीं| उनके लिए राष्ट्र ही राज्य है और राज्य ही राष्ट्र है| वेदों से लेकर महाभारत कालतक न तो कोई हिन्दू राष्ट्र था, न मुस्लिम राष्ट्र, न ईसाई राष्ट्र और न ही कोई यहूदी राष्ट्र ! उस समय तक हिन्दुत्व या इस्लाम याईसाइयत या जायनवाद ही नहीं था तो मजहब पर आधरित कोई राष्ट्र विद्यमान कैसे होता ? जहां तक आधुनिक राज्य का प्रश्न है, चार लक्षणों वाले राज्य सुनिश्चित भू-भाग, जनता, सरकार और सम्प्रभुता का उस ज़माने में अस्तित्व ही कहां था ? राष्ट्र-राज्य कीकल्पना तो अभी कुछ सदी पुरानी है और वह भी यूरोप में पैदा हुई है| पहले तो कोई राष्ट्र-राज्य हो यानी राष्ट्र भी हो ओर राज्यभी हो और फिर वह मज़हब पर आधारित हो, यह बिल्कुल अजूबा है| 20 वीं सदी के पहले इस तरह के राज्य का कोईउदाहरण नहीं मिलता| धर्म (मज़हब) पर आधरित राष्ट्र-राज्य का सबसे पहला उदाहरण सिर्फ 1947 में सामने आया| वह था-पाकिस्तान ! पाकिस्तान के अलावा दुनिया का कौन सा ऐसा राज्य है, जो धर्म (मज़हब) के आधार पर बना हो ? इस्राइल भीनहीं| ईरान भी नहीं| सउदी अरब भी नहीं| वेटिकन को ईसाइयत पर आधरित राज्य कहा जा सकता है लेकिन क्या वेटिकनभी सचमुच कोई राज्य है ? जहां तक इस्राइल का सवाल है, वह वंशवाद पर आधरित राष्ट्र-राज्य है, मज़हब पर नहीं| 1948 मेंजिन यहूदियों ने इस्राइल की स्थापना की थी, उनमें से कई यहोवा को, न तोरा को और न जायनवाद को मानते थे| कईनास्तिक थे और कई साम्यवादी ! ईरान इस्लामी है लेकिन इस्लाम के पैदा होने के कई हजार साल पहले से वह राष्ट्र है औरउसका राष्ट्र-बोध इतना सुदृढ़ है कि वह इस्लाम के गढ़ सउदी अरब के विरूद्घ भी तलवारें भांजने से बाज़ नहीं आता| स्वयंसउदी अरब इस्लाम के नाम पर नहीं बना| वह इस्लाम के पहले से था और किसी अन्य नाम से जाना जाता था| सारे अरबजगत में राष्ट्रवाद का आधार मूलत: अरब-भाव है| इस्लामी भाव आजकल समानान्तर गुंथा हुआ है, इसमें शक नहीं लेकिनअरब राष्ट्रों को मज़हब पर आधरित राष्ट्र नहीं माना जा सकता|
जैसे सउदी अरब या इराक या यमन को अरब राष्ट्र कहा जाता है, क्या वैसे ही भारत को हिन्दू राष्ट्र कहा जा सकता है ? जरूरकहा जा सकता है बशर्ते कि भारत के सन्दर्भ में हिन्दू का वही मतलब हो जो ‘अरब‘ का होता है, उन राष्ट्रों के संदर्भ में| अरबदेश में रहने वाला कोई भी नागरिक चाहे वह मुसलमान हो, ईसाई हो, काफि़र (नास्तिक) हो, स्वयं को अरब कहता है औरसारी दुनिया भी उसे अरब के तौर पर ही जानती है| लगभग इसी प्रकार प्रत्येक भारतीय को पिछले तीन-चार सौ साल से सारीदुनिया में ‘हिन्दू‘ ही माना जाता है| चाहे उसे ‘हिन्दी‘, ‘हिन्दवी‘, ‘हुन्दू‘, ‘हन्दू‘, ‘इंदू‘, ‘इंडीज‘ या ‘इंडियन‘ कहा जाए, इन सब शब्दोंका मतलब हिन्दू ही होता है| इसीलिए जब विदेशी मीडिया भारत को ‘हिन्दू इंडिया‘ कहता है तो उसका अभिप्राय सांप्रदायिकबिल्कुल भी नहीं होता| विदेशियों के लिए हिन्दू शब्द भारत का पर्याय है| इसीलिए भारत को हिन्दुस्तान कहा जाता है ? इंड सेइंडिया और ‘इंडस‘ बना है| हिन्द का बिगड़ा हुआ रूप ही ‘इंड‘ है| सिंधु नदी का ही नाम इंडस है| सिंध से हिंद बना है| सिंधुका ही सरल रूप हिन्दू है| पुरानी ईरानी भाषा में ‘स‘ को ‘ह‘ बोला जाता था| ‘स‘ को ‘ह‘ बोलने की प्रथा मेवाड़ में अभी तकप्रचलित है| ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ को वहां ‘हत्यार्थ-प्रकाश‘ बोलते हैं| इस दृष्टि से सिंधु देश को हिन्दू देश कहा जाए, इसमें कोईबुराई नहीं लेकिन क्या हिन्दुत्ववादियों को ‘हिन्दू‘ शब्द की यह परिभाषा स्वीकार है ? यदि हां तो भारत का प्रत्येक नागरिकहिन्दू कहलाने का अधिकारी है, चाहे वह मुसलमान हो, ईसाई हो, सिख हो, यहूदी हो, बौद्घ हो, ! ‘हिन्दू‘ शब्द की इस व्यापकपरिभाषा को क्या हिन्दुत्ववादी सचमुच मानते हैं ? जाहिर है कि नहीं मानते| अगर वे मानते होते तो फिर हिन्दू और गैर-हिन्दू मेंभेद क्यों करते ? क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में गैर-हिन्दुओं को प्रवेश मिल सकता है ? क्या कोई मुसलमान कभी सरसंघचालक बन सकता है ? डॉ. जाकिर हुसैन और डॉ. अब्दुल कलाम भारत के राष्ट्रपति तो बन सकते हैं, सर संघचालक नहींबन सकते| आखिर क्यों ? इसीलिए नहीं कि अगर वे अपने आपको हिन्दू कह भी लें तो भी हिन्दुत्ववादी उन्हें कभी हिन्दू माननेको तैयार नहीं होंगे| ‘मुहम्मदी हिन्दू‘ और ‘मसीही हिन्दू‘ सिर्फ कहने की बातें हैं|
हिन्दुत्ववादी कृपया सोचें कि हिन्दू होना और भारतीय होना एक सिक्के के दो पहलू क्यों नहीं हैं ? क्या हर भारतीय हिन्दू है औरक्या हर हिन्दू भारतीय है ? जाहिर है कि हर भारतीय हिन्दू नहीं है| भारत में लगभग हर मज़हब के लोग है और ऐसे लाखों-करोड़ों लोग हैं, जिन्हें पता ही नहीं कि उनका मज़हब क्या है या उनकी अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान क्या है| उनमें सेकुछ ऐसे है जिन्हें अगर आप हिन्दू कह दें तो वे उस पर आपत्ति नहीं करेंगे लेकिन बहुत-से ऐसे हैं, जो किसी भी कीमत परस्वयं को हिन्दू कहलवाने के विरूद्घ होंगे| यदि ऐसा नहीं होता तो करोड़ों लोग जनगणना के समय स्वयं को मुसलमान, ईसाई, बौद्घ, जैन, पारसी, यहूदी आदि क्यों घोषित करते हैं ? वे अहिन्दू हैं| वे हिंदू नहीं है लेकिन भारतीय तो हैं| जहां तक हरहिन्दू के भारतीय होने का सवाल है, यह सवाल भी अब खटाई में पड़ गया है| भारत का हर हिन्दू तो भारतीय है लेकिन नेपाल, बर्मा, बांग्लादेश, पाकिस्तान, सूरीनाम, मोरिशस, टि्रनिडाड, फीजी आदि में रहने वाले लगभग दो करोड़ हिन्दू क्या हिन्दू नहींहैं ? ये पक्के हिन्दू हैं लेकिन वे भारतवंशीय हैं, जैसे कि भारत से गया हुआ कोई भी हिन्दू या मुसलमान या सिख या ईसाई हैलेकिन उन्हें भारतीय मानना तो अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लघंन है| वे अपने-अपने देश के प्रामाणिक नागरिक है ओरदेशभक्त हैं| वे हिन्दू हैं लेकिन भारतीय नहीं हैं| इसी प्रकार अनेक गौरांग और अश्वेत अफ्रीकी, जो पिछले कुछ दशकों में‘हिन्दू‘ बन गए हैं, क्या हम उन्हें भारतीय कह सकते हैं ? इसीलिए भारतीयता और हिन्दुत्व एक-दूसरे के पर्याय नहीं हो सकते| दोनों शब्दों की एक-दूसरे में व्याप्ति जरूर है लेकिन एक को दूसरे का पर्याय मानना अतिव्याप्ति दोष से पीडि़त होना है| हिन्दुत्व के महान प्रवक्ता विनायक दामोदर सावरकर द्वारा प्रदत्त हिन्दू की परिभाषा विदेशों में बसे हिन्दुओं पर भी लागू नहींहोती, क्योंकि भारत उनका ‘पुण्यभू‘ तो है लेकिन ‘पितृभू‘ नहीं| उनके पुरखे कई पीढि़यों से वहीं पैदा हो रहे हंै और वहीं मररहे हैं| इसी प्रकार चीन और जापान के बौद्घों का पितृभू तो उनका अपना देश है लेकिन उनका पुण्यभू क्या है, कहां है ? भारत में है| क्या इसीलिए वे देशद्रोही कहलाएंगे ? क्या उनका राष्ट्रवाद अधूरा माना जाएगा ? क्या उनकी देशभक्ति पर सदासंदेह किया जाएगा ? इंडोनेशिया के बाली द्वीप में बसे लाखों हिन्दुओं को क्या भारत का दलाल माना जाएगा ? यूरोप औरअमरीका के किसी भी ईसाई राष्ट्र का पुण्यभू उनके अपने देश में नहीं है| स्वयं ईसा मसीह और बाइबिल का जन्म एशिया मेंहुआ था| दुनिया के सभी ईसाइयों के पवित्र्तम तीर्थ तो बेथलेहम और यरूशलम में हैं| ऐसी स्थिति में क्या इन ईसाइयों को हमअराष्ट्रीय कहेंगे ? यदि कैथोलिकों का पुण्यभू रोम को भी मान लिया जाए तो क्या होगा ? क्या इटली के अलावा दुनिया के सभीकैथोलिक अराष्ट्रीय नहीं हो जाएंगे ? उनका पितृभू तो अपना देश होगा लेकिन पुण्यभू इटली ही होगा| ऐसी स्थिति में क्याजर्मन, फ्रांसीसी और भारतीय कैथोलिकों को देशभक्त नहीं, रोमभक्त माना जाएगा ? यदि सावरकर की परिभाषा मान लें तोभारत के अलावा कोई भी राष्ट्र हिन्दू राष्ट्र नहीं हो सकता| नेपाल भी नहीं, क्योंकि नेपालियों का पुण्यभू भारत है और पितृभूस्वयं नेपाल है| यही बात मोरिशस, सूरीनाम और टि्रनिडाड जैसे राष्ट्रों पर भी लागू होती है| भारत के भूगोल की लक्ष्मण-रेखाको हिन्दुत्व कभी का लांघ चुका है| हिन्दुत्व के लिए भारत का महत्व आज भी है लेकिन अब वह भारत का पर्याय नहीं रह गयाहै|
यह ठीक है कि हिन्दू धर्म उस अर्थ में धर्म नहीं है, जिस अर्थ में इस्लाम या ईसाइयत हैं लेकिन वह कोई मात्र् विचारधारा भी नहींहै| वह मार्क्सवाद या पूंजीवाद या फ्रायडवाद की तरह भी नहीं है| वह संस्कृति जरूर है लेकिन उससे ज्यादा भी है| संस्कृतिइहलोक को संवारती है और संवरा हुआ इहलोक संस्कृति का निर्माण करता है लेकिन हिन्दुत्व का संबंध क्या केवल इहलोक सेहै ? क्या उसका जोर परलोक पर उसी तरह नहीं है, जैसे कि किसी भी अन्य संगठित धर्म का होता है ? क्या हिन्दू धर्म याहिन्दुत्व का स्वर्ग-नरक, आत्मा-परमात्मा, बंधन-मोक्ष, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि से कोई संबंध नहीं है ? न केवल है बल्कि अन्यमज़हबों से भी ज्यादा है| अन्य धर्मों या मज़हबों की ही तरह हिन्दू की संतान हिन्दू क्यों कहलाती है ? क्या मार्क्सवादी का बेटामार्क्सवादी और आर्यसमाजी का बेटा आर्यसमाजी ही होता है ? बिना कुछ किए-धरे जैसे ईसाई का बेटा ईसाई, मुसलमान काबेटा मुसलमान कहलाता है, वैसे ही हिन्दू का बेटा हिन्दू कहलाता है| यहां सावरकर जैसे विचारक हिन्दू धर्म को हिन्दुत्व सेअलग करके देखना पसंद करते हैं| वे हिन्दुत्व को धर्म नहीं, संस्कृति कहते हैं| हिन्दुत्व को राष्ट्रवाद का सांस्कृतिक आधारअवश्य बनाया जा सकता है लेकिन क्या उसे संस्कृति तक सीमित रखा जा सकता है ?
संगठित धर्म और संस्कृति के घाल-मेल को रोकने की क्षमता किस संगठन में है| यह ठीक है कि हिन्दू धर्म इस्लाम औरईसाइयत की तरह संगठित नहीं हैं| पर्याप्त विकेंदि्रत और विविधतामय है लेकिन इस्लाम और ईसाइयत की विकेंद्रीयता औरविविधता भी अध्ययन का विषय है| संस्कृति की श्रेष्ठता के संबंध में इस्लाम और ईसाइयत का दावा हिन्दुत्व की तरह बहुतमजबूत नहीं हो सकता, क्योंकि ये धर्म अपेक्षाकृत नए हैं (1400 और 2000 साल), आक्रामक हैं और बहुराष्ट्रीय हैं लेकिन जिसे‘हिन्दुत्व‘ कहा जाता है, वह लगभग प्रागैतिहासिक है और असंख्य आक्रमणों के बावजूद भारत (आधुनिक दक्षिण एशिया) मेंहजारों वर्षों से अविच्छिन्न रहा है| हिन्दू संस्कृति की तरह ईसाई संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति भी अनेक देशों में अपने आरंभसे अब तक अविच्छिन्न रही है लेकिन इसी आधार पर राष्ट्रनिर्माण का दावा कहीं देखने में नहीं आता| केवल संस्कृति के आधारपर राष्ट्र का दावा तो किया जा सकता है और यह दावा मज़हब के आधार पर किए गए दावे से कहीं बेहतर है क्योंकि संस्कृतिका जन्म मज़हब के बहुत पहले हो जाता है और उसके बाद भी वह बनी रहती है| संस्कृति की सरिता का पाट इतना चौड़ाहोता है कि उसमें मज़हबों की कई धाराएं एक साथ समाहित हो जाती हैं| अगर यह सत्य है और इस तर्क में कुछ दम है तोअकेली हिन्दुत्व या हिन्दू धर्म की धारा को भारतीय संस्कृति का पर्याय कैसे मान लिया जाए ? पिछले दो हजार वर्षों में जिनअभारतीय संस्कृतियों और धर्मों की धाराएं भारत में घुलमिल गई हैं, उनका भी कोई स्थान आज के भारत में है, या नहीं ? केवलहिन्दू धर्म या हिन्दुत्व को भारत के राष्ट्रवाद का आधार मानने पर क्या हम वर्तमान भारत को अतीत की काल-कोठरी में बंदनहीं कर देंगे ? केवल हिन्दुत्व को भारत के राष्ट्रवाद का आधार मानने का एक परिणाम यह भी है कि जवाबी तौर पर ‘साझासंस्कृति‘ (कम्पोजिट कल्चर) जैसे मूर्खतापूर्ण मान्यताएं प्रतिपादित होने लगती हैं, याने यह माना जाने लगता है कि भारत कीअपनी कोई संस्कृति ही नहीं है बल्कि इधर-उधर से आई हुई संस्कृतियां मिलकर साझेदारी में भारत को चला रही हैं| संस्कृतियों की समानांतरता की यह अवधारणा राष्ट्रीय एकात्म पर कुठाराघात है| जहां राष्ट्रीय एकात्म नहीं, वहां राष्ट्रवाद कैसा ?
भारत के राष्ट्रीय एकात्म को सुदृढ़ बनाने में जो भूमिका तथाकथित हिन्दुत्व या हिन्दू धर्म अदा कर सकता है, वह भूमिका कोईअन्य धर्म अपने देश में अदा नहीं कर सकता| यह भारत का सौभाग्य है| हिन्दू जैसा लचीला शब्द दुनिया के किसी भीशब्दकोश में नहीं है| यह शब्द लगभग अपरिभाषेय है| इतना अपरिभाषेय कि जो भी अपने आपको हिन्दू कह दे, उसे आपकोहिन्दू मानना पड़ेगा| हिन्दू धर्म परस्पर अनुकूल ओर प्रतिकूल धार्मिक मान्यताओं का समुद्र है| यह दुनिया के सारे मज़हबोंऔर संस्कृतियों को आत्मसात कर सकता है| इसीलिए हिन्दुत्व को जीवन-पद्घति भी कहा गया है| ऐसी उदार और व्यापकजीवन-पद्घति के रहते भारत में ‘साझा संस्कृति‘ की बात विभाजनकारी, विखंडनकारी और विध्वंसकारी मालूम पड़ती हैलेकिन भारत की जो एक विशाल, व्यापक, सर्वस्वीकारिणी, विविधतामय किन्तु एकरूप संस्कृति बन गई है, क्या उसे केवलहिन्दुत्व की परिधि में बांधा जा सकता है ? उसे ‘हिन्दुत्व‘ का नाम देना जरूरी क्यों है ? यह ठीक है कि तथाकथित हिन्दुत्व केबिना आज भारतीय राष्ट्रवाद की कल्पना नहीं की जा सकती लेकिन यदि हिन्दुत्व को भारतीय राष्ट्रवाद का पर्याय नहीं मानाजाएगा तो क्या हिन्दुत्व मर जाएगा ? वास्तव में भारतीयता और हिन्दुत्व दूध और चीनी की तरह घुल-मिल गए है लेकिन जैसे दूधचीनी नहीं होता और चीनी दूध नहीं होती, हिन्दुत्व भारतीयता का पर्याय कैसे हो सकता है ? हिन्दुत्व कुछ बिन्दुओं परभारतीयता से बड़ा है और कुछ पर छोटा | दोनों जैसे हैं, उन्हें वैसा ही क्यों नहीं रहने दिया जाए ? एक-दूसरे का पर्याय बनाकरहम उन्हें उलझन में क्यों फंसाएं ?
राष्ट्रवाद का आधार धर्म नहीं
राष्ट्रवाद का आधार जैसे संस्कृति मज़हब, भाषा, इतिहास और भूगोल जैसे कई तत्व एक-एक करके या मिल-जुलकर बनसकते हैं, वैसे ही अर्थ (पैसा) भी मजबूत आधार बन सकता है| राष्ट्रों के आर्थिक स्वार्थ उनके राष्ट्रवाद पर भारी पड़ रहे हैं| इसीलिए आजकल यूरोपीय आर्थिक समुदाय, आसियान और दक्षेस जैसे राष्ट्रों के महासंघ हर महाद्वीप पर उभर रहे हैं| राष्ट्रऔर व्यक्ति दोनों के राष्ट्रवाद के निर्धारण में अर्थवाद जर्बदस्त भूमिका निभा रहा है| अमेरिकी राष्ट्रवाद का आधार क्या है ? उसका मूलाधार पैसा है, डॉलर है| डॉलरानंद ही ब्रह्रमानंद है| आज के विश्वग्राम और संचार-क्रांति के वातावरण में भौगोलिकराष्ट्रवाद की छाती पर वणिकवाद सवार हो चुका है| जिधर दो पैसे का फायदा हो, लोग उधर ही चल पड़ते हैं| भारत के चतुरऔर प्रबुद्घ बीस लाख लोग अमरीका में क्यों जा बसे हैं ? उन्हें क्या कहा जाए ? उनका पितृभू तो भारत है लेकिन पुण्यभू क्याहै ? क्या अमरीका नहीं, जो उनका पण्यभू बन चुका है| पण्यभू यानी पैसा भू| पण्यभू ही उनका पुण्यभू है| उनके जीवन कासर्वोच्च लक्ष्य क्या है? अमेरिका में बस जाना, ग्रीन कार्ड पा जाना, अपनी संतान को अमेरिकी नागरिक बनते हुए देखना ! क्यायह परराष्ट्रवाद नहीं है ? जरा इस परराष्ट्रवाद की तुलना मुसलमानों के तथाकथित परराष्ट्रवाद से करें| ज़रा मालूम करें किभारत के कितने मुसलमान पिछले 1400 साल में भारत छोड़कर अपने तथाकथित ‘पुण्यभू‘ यानी मक्का-मदीना या कर्बला-मशद आदि में जाकर बस गए हैं ? ऐसे 1400 परिवारों को ढूंढना भी मुश्किल होगा| खिलाफत आंदोलन के दौरान 1919-20 में जब भारत के कुछ अति उत्साही मुसलमान काबुल पहंुच गए तो उन्हें बादशाह अमानुल्लाह ने लगभग वापस खदेड़ दिया| हज के लिए मक्का-मदीना जाना और उनकी तरफ मुंह करके नमाज़ पढ़ना एक बात है और उन राष्ट्रों के प्रति निष्ठा रखनाबिल्कुल दूसरी बात ! सिखों का तीर्थ ननकाना साहब है तो क्या यह मान लिया जाएगा कि उनका पुण्यभू पाकिस्तान है ? उनकीनिष्ठा भारत में नहीं पाकिस्तान में है ? भारतीय मुसलमानों द्वारा अरबों की नकल करना, उनकी तज़र् पर अपने नाम रखना, अपनी परम्पराओं का सम्मान न करना, इतिहास के विदेशी आक्रांताओं के प्रति सहानुभूति रखना सरासर नादानी है, जैसा किदुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम देश इंडोनेशिया ने अपने आचरण से सिद्घ किया है| यदि इंडोनेशिया की तरह मुसलमान भारतमें बहुसंख्या में होते तो शायद वे अरबों की मानसिक गुलामी से मुक्त हो जाते| मुसलमान होना और अरबों की गुलामी करनादो अलग-अलग बातें हैं| इस्लाम को पूरे भक्ति-भाव से मानने वाले लोग देशभक्त भी हो सकते हैं, यह तथ्य इतिहाससिद्घ है| अगर ऐसा नही होता तो ईरान में खलीफा उमर के पुतलों को उसी तरह अपमानित नहीं किया जाता जैसे कि भारत में रावणके| जहां तक पाकिस्तान के प्रति भारत के मुसलमानों के रूख का सवाल है, वह वैसा नहीं है, जैसा कि अरब देशों या ईरानऔर अफगानिस्तान के प्रति है| इन देशों के प्रति भारतीय मुसलमानों का झुकाव जरूर है लेकिन वह सतही है, आकस्मिक हैऔर असमंजसभरा है जबकि पाकिस्तान के प्रति वह ज़रा आत्मीय है, गहन है, भावुकतामय है| उसका कारण है| वह कारणशुद्घ इस्लाम नहीं है| वह है, दोनों देशों में बंटे हुए परिवार और पिछले सौ वर्षों के हिन्दू-मुस्लिम संबंध ! भारत के मुसलमानक्या पाकिस्तान को अपना पुण्यभू समझते हैं ? उसे वे अपना पुण्यभू समझें, इसका कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता| वहां नमक्का-मदीना जैसा कोई तीर्थ है और न कर्बला और गैलानी की दरगाह जैसी स्मारक-स्थल है| वह पैगम्बर की जन्म-स्थली भीनहीं है| इसके विपरीत भारत से पाकिस्तान गए मुसलमान का पुण्यभू अगर कहीं है तो वह हिंदुस्तान ही है| हिंदुस्तान के दर्शनकरने की हसरत पाकिस्तान के हर ‘मुहाजिर‘ के दिल में छिपी होती है| भारत से गया उर्दूभाषी मुसलमान आज भी पाकिस्तानके असली निवासियों-पंजाबियों, पठानों, सिंधियों और बलूचों के साथ घुल-मिल नहीं पाया है| बांग्लाभाषी मुसलमान तो 1971 में अलग हो ही गए थे| यदि इस्लाम राष्ट्रवाद का आधार होता तो पाकिस्तान के दो टुकड़े क्यों होते ? ईरान और एराक, दोमुस्लिम राष्ट्र आपस में दस साल तक क्यों लड़ते और एक दूसरे के लाखों मुसलमानों का खून क्यों बहाते ?
क्या ये तथ्य यह सिद्घ नहीं करते कि जिन्ना का द्विराष्ट्रवाद बोगस था ? मज़हब के आधार पर किसी भी स्वस्थ राष्ट्र और राज्यका निर्माण नहीं किया जा सकता| यदि मज़हब को आधार बना लिया जाए तो उस सनातन और विशाल भारत का क्या होगा, जिसकी सीमाएं कभी ईरान से इंडोनेशिया तक, अफगानिस्तान की वक्षु सरिता से मलक्का की जल-संधि तक और पामीर केपठार से श्रीलंका तक फैली हुई थीं| वह वृहद भारत राष्ट्र आज भी जीवित है, हालांकि इस राष्ट्र-क्षेत्र् में अनेक राज्य अब स्थापितहो गए हैं| भारत की यह सनातन सत्ता आज लगभग दर्जन भर राज्यों में बंट गई है, लेकिन उसकी आत्मा एक ही है, उसकीसंस्कृति एक ही है, उसकी परम्परा एक ही है| यहां हम न भूलें की वृहद भारत क्षेत्र् के इन ग्यारह राज्यों में पाँच इस्लाम बहुल ( ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव), चार बौद्घ बहुल (तिब्बत, भूटान, श्रीलंका, बर्मा) और दो हिन्दू बहुल(भारत और नेपाल) राष्ट्र हैं| इन समस्त राष्ट्रों पर क्या एक मज़हब, एक ध्वज, एक संविधान, एक ढांचा, एक नेता थोपा जासकता है ? इन राष्ट्रों में एक अविछिन्न और सूक्ष्म एकता है लेकिन उसका आधार मज़हब नहीं है| वह सांस्कृतिक एकताअवश्य है लेकिन क्या उस पर हिन्दू, इस्लामी या बौद्घ संस्कृति का लेबल चिपकाया जा सकता है| ये लेबल सनातन भारतऔर वर्तमान दक्षिण एशिया को एकता के सूत्र् में बांधना तो दूर, भारत को ही तोड़ने में सहायक होंगे| पुराना भारत या वर्तमानदक्षिण एशिया अनेक राष्ट्रीयताओं का समुच्चय नहीं है| वह एकात्म राष्ट्र है लेकिन उसमें अनेक राज्य बन गए हैं| वहबहुराज्यीय राष्ट्र है| वह ‘मल्टी-स्टेट नेशन‘ है| क्या उसे हम उस अर्थ में हिन्दू राष्ट्र कह सकते हैं, जिस अर्थ में सावरकरजी यागोलवलकरजी भारत को हिन्दू राष्ट्र कहलवाना चाहते थे ? यदि उसे सिन्धुवाले अर्थ में भी राष्ट्र समझे तो भी वह केवल सिन्धु पारके क्षेत्रें को समाहित करेगा, जो कि हमारे सनातन भारत-राष्ट्र के क्षेत्र् से काफी कम होगा| जिसे अभी हम भारत कहते हैं, वहतो खंडित भारत है, नौ टुकड़ों में बंटा हुआ भारत है| पहले जो समग्र भारत था या भविष्य में जो कभी होगा, वह कैसा होगा ? क्या उसका आधार कोई एक धर्म हो सकता है ?
जहां तक ‘हिन्दू धर्म‘ या ‘हिन्दू संस्कृति‘ जैसे नामों का सवाल है, भारतीय धर्मग्रन्थों, दर्शन-शास्त्रें, स्मृति ग्रंथों या शास्त्रीय साहित्यमें इनका जिक्र तक नहीं आता| हिन्दू शब्द ही विदेशी है| यह शब्द न तो वेद में है, न उपनिषद में है, न मनुस्मृति में है, नरामायण में है, न महाभारत में है, न गीता में है ? तो यह फिर आया कहां से ? यह शब्द विदेशियों का दिया हुआ है| यदि आपइन विदेशियों का मज़हब जानना चाहें तो जरूर जानिए| वे मुसलमान थे| शेख सादी ने गुलिस्तां में हिन्दू शब्द का प्रयोग कियाहै, वह भी कोई अच्छे अर्थों में नहीं| यह कैसी विडंबना है कि मुसलमानों से नफरत करने वाले हिन्दुत्ववादी उन्हीं के दिए हुएशब्द पर फिदा हैं| हिन्दू शब्द पर वे मर मिटने को तैयार है| हिन्दू शब्द पूरे हिन्दुस्तान को कभी जोड़ने वाला शब्द था लेकिनवह अब इसे तोड़ने वाला शब्द बन गया है| यह शब्द नहीं, तिलिस्म है| इसका अर्थ छत्र्पति शिवाजी, वीर सावरकर, गोलवलकर और बाल ठाकरे एक ढंग से लगाते हैं| गांधी, विवेकानंद, रवीन्द्र दूसरे ढंग से लगाते हैं और दयानंद की दृष्टि तोबिल्कुल ही अलग है| दयानंद को हिन्दू शब्द बिल्कुल पसंद नहीं था| यदि आज वे जीवित होते तो शायद कहते कि यहभारतीयों की दिमागी गुलामी का प्रतीक है| जैसे मोरिशस और फीजी के भारतीयों को अंग्रेज ‘कुली‘ कहते थे तो क्या वहां वेभारतीय अब भी खुद को कुली ही कहते रहें ? भारतीय अपने आपको भारतीय या भारतवंशीय क्यों न कहें ? यदि भारतीय औरहिन्दू एक-दूसरे के पर्याय हैं तो बेहतर, व्यापकतर और प्राचीनतर पर्याय को ही क्यों नहीं चुना जाए ? यदि हिन्दू शब्द से कुछलोगों को बहुत प्रेम है और कई कारणों से उसे छोड़ा नहीं जा सकता तो उसके अर्थ को अतिव्याप्ति दोष से मुक्त करें यानी उसेभारत का पर्याय कहने की बजाय केवल उन बहुसंख्यक भारतीयों के लिए प्रयोग करें जो मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्घ आदिनहीं हैं| केवल हिन्दू हैं|
यदि ऐसा करेंगे तो यह पूरी ईमानदारी होगी| उस स्थिति में हिन्दू राष्ट्र जैसी कोई अवधारणा जीवित ही नहीं रह पाएगी, क्योंकिहिन्दू राष्ट्र का तब मतलब होगा, शुद्घ मज़हबी राष्ट्र ! मज़हबी राष्ट्र ही नहीं, मज़हबी राज्य भी, जैसा कि सउदी अरब, ईरान तथापाकिस्तान होने का दावा करते हैं| भारत-विभाजन के समय पाकिस्तान ने इस धारणा को माना लेकिन भारत ने इसे रद्दकिया| इसे पुनर्जीवित करने का मतलब है, जिन्ना और गोलवलकर को जुड़वा-भाई सिद्घ करना| एक भारत को इस्लाम केनाम पर तोड़ता है तो दूसरा ‘हिन्दुत्व‘ के नाम पर ! क्या हम भारत को पाकिस्तान बनाना चाहते हैं ? अगर हिन्दुत्व का मतलबसम्पूर्ण भारतीयता हैं, हिन्दुस्तानियत है तो हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में कोई बुराई नहीं है और तब हिन्दू राज्य का मतलब भी वहीहोगा, जो भारत राज्य का है लेकिन हिन्दुत्व का मतलब अगर संकीर्ण है तो उसके आधार पर राष्ट्र की कल्पना नहीं की जासकती है और राज्य की तो बिल्कुल भी नहीं| स्वयं हिन्दू धर्मशास्त्र् ऐेसे राज्य का निषेध करते है, जिसका आधार संकीर्ण हो| वेकिसी जाति, संप्रदाय या मज़हब पर आधारित राज्य का समर्थन नहीं करते| वे राजा का धर्म केवल एक बताते है| वह है, प्रजाकी सेवा ! इसीलिए गुज़रात के संदर्भ में मैंने ‘राजधर्म‘ शब्द का प्रयोग किया था| राजा का धर्म हिन्दू या मुसलमान नहीं होता| वह केवल राज करना होता है| ऐसा राज, जो किसी भेदभाव के बिना किया जाए| भारतीय संविधान इसी तरह के राज काप्रावधान करता है| हिन्दू मान्यताओं की कसौटी पर यह संविधान खरा उतरता है लेकिन क्या हम इसे हिन्दू संविधान कह सकतेहैं ? यदि इस संविधान का आधार हिन्दुत्व होता या हिन्दू धर्म होता तो क्या यह कुछ-कुछ सउदी अरब, ईरान या पाकिस्तान केसंविधानों की तरह नहीं हो जाता ? भारत का संविधान भारतीय संविधान ही है, हिन्दू संविधान नहीं| इसीलिए भारत हिन्दू-राज्यनहीं, भारत राज्य है|
सर्वप्रथम हिन्दुस्थानी फिर कुछ और
हिन्दू और हिन्दुत्व दोनों ही शब्द-सापेक्ष्य हैं यानी उन्हें किसी दूसरे शब्द की अपेक्षा है| दूसरा शब्द यानी ऐसा शब्द, जो हिन्दूसे अलग किसी अन्य समुदाय का बोध करवाता हो| ये अन्य कौन हैं ? वे सब हैं जो, यह कहें कि हम हिन्दू नहीं हैं| किसी कोआप जबरदस्ती हिन्दू कैसे कह सकते हैं ? यानी भारत में कुछ लोग हिन्दू होंगे और कुछ अहिन्दू ! लेकिन क्या इसी भारत मेंकुछ भारतीय और कुछ अभारतीय भी होंगे ? नहीं होंगे| सभी भारतीय होंगे| जो नहीं होंगे, वे विदेशी होंगे| भारत के नागरिकनहीं होंगे| भारतीय शब्द भारत को तो दुनिया से अलग करता है लेकिन भारतीयों को एक-दूसरे से अलग नहीं करता| किसीज़माने में हिन्दू शब्द की भूमिका भी यही थी लेकिन अब क्या है ? भारत में हिन्दू शब्द विदेशी अपने साथ लाए और अपनेसन्दर्भ में लाए| इसलिए जब तक राजनीति में हिन्दू शब्द रहेगा, भारत में ‘हम‘ और ‘वे‘ का भाव रहेगा| देश और विदेशी काभाव रहेगा| अपने और पराये का भाव रहेगा| जिस देश में ‘हम‘ और ‘वे‘ का भाव रहे, वह कभी सच्चा राष्ट्र बन ही नहीं सकता| सम्पूर्ण एकात्म के बिना किसी राष्ट्र की कल्पना ही नहीं की जा सकती| ऐसी स्थिति में हिन्दुत्व को भारत के राष्ट्रवाद का आधारबनाया जाए या नहीं, यह विचारणीय प्रश्न है| यह कोई संयोग नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी तथाउसके पहले जनसंघ आदि संगठनों के नाम में हिंदू शब्द कहीं नहीं आया है|
हिन्दू शब्द नया है और विदेशी है जबकि आर्य या भारतीय शब्द पुराने हैं और स्वदेशी हैं| आर्यावर्त या भरतखंड में रहने वालेआर्य या भारतीय कहलाते हैं| आर्य शब्द न जातिसूचक है, न धर्मसूचक है, न संप्रदायसूचक है| ईरान के शहंशाह खुद को‘आर्य मेहर‘ कहा करते थे| अफगानिस्तान के मुसलमान अब भी ‘आर्य‘ उपनाम लगाते है और अपने बच्चों के नाम ‘वेद‘, ‘अवेस्ता‘, ‘कनिष्क‘ आदि रखते हैं| ‘आर्य‘ शब्द निरपेक्ष भी है| हिन्दू की तरह सापेक्ष्य नहीं है यानी आर्य को आर्य होने के लिएआर्य से भिन्न किसी जाति या समुदाय की उपस्थिति आवश्यक नहीं है| लोग आर्य होंगे या अनार्य होंगे| अनार्य वे होंगे, जो आर्योमें अश्रेष्ठ या अनाड़ी होंगे| अनार्य का ही अपभ्रंश अनाड़ी है | अर्थात आर्य शब्द गुणवत्ता का सूचक है| शुद्घ गुण, कर्म औरस्वभाव के आधार पर यह तय होगा कि कौन आर्य और कौन अनार्य ? कोई भी आर्य, अनार्य बन सकता है और कोई अनार्य, आर्य ! भारत के किसी भी संप्रदाय का व्यक्ति आर्य या अनार्य हो सकता है| आर्य शब्द भारत के राष्ट्रवाद का स्वस्थ सांस्कृतिकआधार हो सकता है| यह शब्द हिन्दू शब्द से कहीं अधिक व्यापक है| इसमें अतिव्याप्ति दोष दिखाई नहीं पड़ता| आर्य औरसंस्कृति शब्द एक-दूसरे के बहुत निकट हैं| आर्य का अर्थ श्रेष्ठ होता है और संस्कृति भी श्रेष्ठ कर्मों और श्रेष्ठ विचारों की परम्पराका दूसरा नाम है| वह राष्ट्रवाद कितना भास्वर होगा, जिसका आधार श्रेष्ठता हो|
इसका मतलब क्या यह है कि हिन्दू और हिन्दूत्व आदि शब्द ही उड़ा दिए जाएं ? इन्हें उड़ाया नहीं जा सकता| ये रूढ़ हो गएहैं| ये रहेंगे और चलेंगे| इन शब्दों के पीछे गहन तपस्या, भयंकर संघर्ष और विलक्षण आत्मोत्सर्ग का इतिहास छिपा हुआ है| येशुद्घ भौगोलिक शब्द अब जन-जीवन , इतिहास और साहित्य के अभिन्न अंग बन चुके हैं| सीमित अर्थ में इनका प्रयोग जारीरहे तो कोई बुराई नहीं है लेकिन जैसे ‘भारतीय दर्शन‘ शब्द है, वैसे ही अनेक उत्सवों, पर्वों, परम्पराओं, विधि-विधानों, कर्मकांडोंऔर अवधारणाओं आदि के लिए जहां-जहां ‘हिन्दू‘ शब्द का प्रयोग किया जाता है, वहां ‘भारतीय‘ शब्द का यथासंभव प्रयोग क्योंनहीं किया जा सकता ? ‘भारतीय दर्शन‘ को हिन्दू दर्शन भी कहा जा सकता था लेकिन तब उसका अर्थ बहुत सीमित हो जाताऔर हिन्दू शब्द उसका सही प्रतिनिधित्व भी नहीं करता, क्योंकि एक तो उसमें बौद्घ, जैन और चार्वाक जैसे दर्शन भी शामिलहैं और उस काल में हिन्दू शब्द का अस्तित्व ही नहीं था| उस दर्शन के लिए हिन्दू शब्द का प्रयोग करना तो हास्यास्पद है| उससमय हिन्दू नामक लोग भारत में थे ही नही ंतो उन लोगों के दर्शन को हिन्दू दर्शन कैसे कहा जा सकता है ? फिलहाल भारतकी सम्पूर्ण परम्परा को हिन्दू परम्परा कहा जाता है| ऐसा कहकर हम उस परम्परा से मुसलमानों, ईसाईयों, सिखों, जैनों, यहूदियों आदि को जान-बूझकर अलग करने की व्यवस्था कर रहे होते हैं| हिन्दू नाम सुनते ही वे अपने-अपने दड़बे में सिकुड़जाते हैं जबकि उन्हीं परम्पराओं के साथ भारतीय विशेषण जुड़े तो उनका संकोच घटेगा, वे खुलेंगे और यह समझेंगे किभारतीय होने और मुसलमान होने में कोई अन्तर्विरोध नहीं है| आजकल पाकिस्तान के मुसलमान सिंधु सभ्यता पर गर्व करतेहै| पीपुल्स पार्टी के नेता एतजाज़ अहसन ने सिंधु सभ्यता पर अभी-अभी एक ग्रंथ लिखा है| पेशावर और लाहौर के संग्रहालयोंमें अपने भूतकाल को सावधानी से संवारा जा रहा है लेकिन इसी सिंधु सभ्यता को आप बस हिन्दू सभ्यता कह दीजिए और फिरदेखिए कि उसके परिणाम क्या होते है| यदि अफगानिस्तान के पठाने और ताजि़क अपने पुरखों पर गर्व करते हुए भीप्रामाणिक मुसलमान हो सकते हैं और प्रामाणिक मुसलमान होते हुए भी अफगानिस्तान (आर्याना) के इतिहास पर गर्व करसकते हैं तो भारत के मुसलमान अपने इस्लाम के पहले के अतीत से दुश्मनी या दूरी रखें, यह जरूरी क्यों होना चाहिए ? वेगौरी, गज़नी और बाबर जैसे हमलावरों को अपना पुरखा क्यों मानें ? वे हमलावर अफगानिस्तान से आए थे लेकिन स्वयंअफगान भी इन्हें अपना पुरखा नहीं मानते, क्योंकि वे गैर अफगान वंशों की संतति थे तो भारतीय मुसलमानों को क्या पड़ी हैकि वे इन पर गर्व करें ? इसके अलावा मान लें कि कोई हमारा पुरखा ही है और उसने कुछ गलत काम किए हैं तो उन्हें सहीक्यों ठहराया जाए ? भारतीय मुसलमानों को क्या यह पता नहीं है कि विदेशी मुस्लिम सुल्तानों के दरबार में उनकी हैसियत क्याथी ? वे दोयम दर्जे के कृपा-पात्र् थे| क्या उन्हें पता नहीं कि तुर्की और मुगल हमलावरों ने जब भारत के मुसलमान बादशाहों परहमला बोला तो उन्होंने हिन्दू कम और मुस्लिम फौजियों को ज्यादा कत्ल किया| किनके घर ज्यादा लूटे गए और किनकीस्त्रियों के साथ ज्यादा बलात्कार हुए, क्या यह बताने की जरूरत है ? ऐसे में भारत के मुसलमान विदेशी लुटेरों औरअत्याचारियों को इस्लाम का प्रतीक क्यों बनाए ? यदि वे इस्लाम और खुद पर गर्व करना चाहते है तो उन्हें अपने आपकोइस्लाम के रूहानी और इन्कलाबी सिलसिले से जोड़ना होगा और उनके इस जुड़ाव में उनका इस्लाम-पूर्व भूतकाल कहीं भीआड़े नहीं आएगा| वे परम्परा और परिवर्तन की बेजोड़ मिसाल बन सकते हैं| वे बिल्कुल एकाकार हो सकते हैं लेकिन यहतभी होगा, जब भारत में से ‘हम‘ और ‘वे‘ का भाव ख़त्म होगा| राजनीतिक दृष्टि से प्रयुक्त हिन्दू शब्द ‘हम‘ और ‘वे‘ का भावजीवित रखने वाला शब्द है| जब तक राष्ट्र के लिए ‘हिन्दू‘ शब्द का प्रयोग होता रहेगा, भारत के मुसलमान अल्पसंख्यक बनेरहेंगे| स्थायी ‘अल्पसंख्यक‘ और ‘बहुसंख्यक‘ की धारणा लोकतंत्र् का मज़ाक है| सच्चे लोकतंत्र् में बहुसंख्यक कभीअल्पसंख्यक हो जाता है और अल्पसंख्यक कभी बहुसंख्यक ! क्या यह विडम्बना नहीं कि भारत की राज्य-व्यवस्था तोलोकतांत्र्िक है और समाज व्यवस्था जातितांत्र्िक और संप्रदायतांत्रिक है ? राज्य में तरलता है, चेतना है, जागृति है लेकिनसमाज में जड़ता है, मूढ़ता है, मूर्च्छा है| स्वाधीन भारत का यह मूलभूत अन्तविर्रोध है| इसलिए उपप्रधानमंत्र्ी लालकृष्णआडवाणी ने कहा कि भारत हिन्दू राज्य नहीं है| सच्चाई तो यह है कि आज के ज़माने में कोई भी राज्य हिन्दू राज्य या इस्लामीराज्य या ईसाई राज्य नहीं हो सकता| इस्लाम के बहाने खड़ा किया गया पाकिस्तान क्या सच्चा इस्लामी राज्य है ? क्या वहांनिज़ाम-ए-मुस्तफा है ? जब पाकिस्तान इस्लामी राज्य नहीं बन सकता तो भारत हिन्दू राज्य कैसे बन सकता है लेकिन इससे भीबड़ा सवाल यह है कि क्या भारत हिन्दू राष्ट्र है और क्या उसे हिन्दू राष्ट्र बनाया जा सकता है|
उसे हिन्दू राष्ट्र उसी रूप में समझा जा सकता है, जिसे रूप में एराक मुस्लिम राष्ट्र है या अमेरिका ईसाई राष्ट्र है या श्रीलंकाबौद्घ राष्ट्र है या इस्राइल यहूदी राष्ट्र है| अर्थात जिस देश में जिस धर्म को मानने वाले बहुसंख्यक हों, उस देश को उस धर्म केनाम से जाना जा सकता है लेकिन राष्ट्र की कल्पना धर्म से अधिक व्यापक और गहरी है| यदि कोई सचमुच देशभक्त है औरराष्ट्रवादी है तो वह अपने राष्ट्रीय एकात्मक के लिए धर्म को आधार क्यों बनाएगा और वह संस्कृति के लिए भी वह शब्द चुनने मेंसंकोच करेगा जो धर्म का पर्याय है| हिन्दू शब्द ऐसा ही है| कब उसे धर्म के लिए और कब संस्कृति के लिए प्रयुक्त कियाजाएगा, कुछ पता नहीं चलता| यह बात इस्लामी, ईसाई बौर बौद्घ शब्दों पर भी लागू होती है| ऐसा नहीं है कि इस अर्न्तविरोधसे केवल भारत ही ग्रस्त है| श्रीलंका में बौद्घ शब्द ने काफी सिरदर्द पैदा किया है| श्रीलंका में बौद्घ धर्म और बौद्घ संस्कृतिको राष्ट्रवाद का आधार बनाया गया| इसी का परिणाम है कि वहां के हिन्दू और ईसाई पिछले 30 साल से निरंतर युद्घ औरबगावत की मुद्रा में है| कहा जाता है कि सिंहलभाषी बौद्घ राष्ट्रवादी हैं और तमिलभाषी हिन्दू, ईसाई और मुसलमानपरराष्ट्रवादी हैं| क्या 21वीं सदी के भारत मे हम भी यह दृश्य देखना चाहते हैं ? यदि नही तो हमें अपने राष्ट्रवाद के आधार केबारे में पुनर्विचार करना पड़ेगा या कम से कम उस शब्द के बारे में तो विचार करना ही पड़ेगा, जो भारतीय राष्ट्रवाद को एकांगीबनाता है| या पिछले चार-पांच सौ साल के इतिहास की विसंगतियों को पांच-छह हजार साल के इतिहास पर भी थोप देता है| इतना ही नहीं, वह भारत के वर्तमान और भविष्य के मार्ग को भी कंटकाकीर्ण बनाता है|
भारत-विभाजन और स्वतंत्र्ता के 55 वर्ष बाद भी यदि हम राष्ट्रवाद की उस धारणा पर पुनर्विचार करने का सत्साहस नहीं करेंगे, जो खिलाफत आंदोलन, मुस्लिम लीग के उत्कर्ष और सत्ता की बंदरबांट के दौर में पैदा हुई थी तो दक्षिण एशिया का भविष्य तोअंधकारमय हो ही जाएगा, भारत जिस रूप में आज है, वह भी रह पाएगा या नहीं, यह चिंता का विषय हो जाएगा| हम ज़रायाद करें कि ‘हिन्दुत्व‘ के महानतम प्रवक्ता वीर सावरकर ने अब से 80 साल पहले अपनी पुस्तक ‘हिन्दुत्व‘ का समापन करतेहुए क्या कहा था| सावरकर जी ने कहा था कि उन्होंने हिन्दू राष्ट्र की धारणा ‘अपने अहिन्दू बंधुओं अथवा विश्व के अन्य किसीप्राणी की किसी प्रकार कष्ट पहुंचाने हेतु नहीं ‘प्रतिपादित की है|’ यह प्रयास करना हमारा कर्तव्य है कि हम देश में निवासकरने वाले हिन्दुओं, मुसलमानों, पारसियों, ईसाइयों और यहूदियों में यह भाव जागृत कर सकें कि हम सब ही सर्वप्रथमहिन्दुस्तानी हैं ओर तदुपंरात कुछ और| क्या इस लेख की आत्मा इन्हीं शब्दों में नहीं बसी है ?
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