नया इंडिया, 10 दिसंबर 2014: विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने गीता को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ घोषित करने की इच्छा व्यक्त की है। वे, क्योंकि विदेश मंत्री हैं, इसीलिए सारे विपक्षी दल उनके पीछे पड़ गए हैं। यदि वे विदेश मंत्री नहीं होतीं तो उनकी राय की कोई परवाह भी नहीं करता, क्योंकि न तो वे गीता की महान पंडिता की तौर पर जानी जाती हैं और न ही वे किसी हिंदू संप्रदाय की मुखिया हैं। इसीलिए गीता पर उनकी राय को लेकर इतना बौखलाने की जरुरत क्या है? हर व्यक्ति की अपनी-अपनी समझ होती है और अपनी-अपनी राय होती है।
भगवद्गीता ऐसा ग्रंथ है, जिसे किसी राज्य या सरकार के टेके की जरुरत नहीं है। ग्रंथ ही नहीं, कई व्यक्ति भी ऐसे होते हैं, जो राज्य और सरकार से ऊपर होते हैं। उन्हें किसी पद या पुरस्कार या औपचारिक मान्यता के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। गीता को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ घोषित करने की मांग ऐसी है, जैसे कि यह मांग करना कि महात्मा गांधी को भारत का प्रधानमंत्री बना देना चाहिए था। अरे, गीता तो विश्व-ग्रंथ है। वह अंतरराष्ट्रीय ग्रंथ है। वह सार्वदेशिक है। वह सिर्फ हिंदुओं के लिए ही नहीं, सिर्फ भारतीयों के लिए ही नहीं, मानव-मात्र के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है। उसे सांप्रदायिक दृष्टि से देखना बिल्कुल अनुचित है। वह महाभारत नामक महान साहित्यिक कृति का आध्यात्मिक अंश है।
यदि आप उसे ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ की चहारदीवारी में बांधना चाहेंगे तो उस पर तरह-तरह की बहसें चल पड़ेगी। गीता को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ कहें तो गुरु ग्रंथ साहब को क्यों नहीं? वेदों को क्यों नहीं? उपनिषदों और दर्शनों को क्यों नहीं? ये धर्मग्रंथ हैं, इसलिए कुरान को क्यों नहीं? बाइबिल को क्यों नहीं? जिन्दावस्ता को क्यों नहीं? क्या ये सब ग्रंथ अराष्ट्रीय हैं? क्या इन ग्रंथों में भारत के खिलाफ कुछ आपत्तिजनक बात कही गई है? इतना ही नहीं, गीता की अनेक परस्पर विरोधी व्याख्याएं की गई हैं। सांख्यवादी, अद्वैतवादी, कर्मवादी, समर्पणवादी, अकर्मवादी, इहलोकवादी, परलोकवादी! याने शास्त्रार्थों का पिटारा खुल पड़ेगा। गीता को हम बस गीता रहने दें तो वह मानव-मात्र के लिए कहीं अधिक कल्याणकारी होगा।
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