R Sahara, 23 Nov 2003 : क्या अपने देश में कोई ऐसा नेता है, जो यह कहे कि मैं दिलीपसिंह जू देव नहीं हॅूं ? पिछले 45 वर्षों में देश के लगभग हर महत्वपूर्ण नेता से मेरा सम्पर्क रहा है,च लेकिन आज तक मैं ऐसे किसी नेता को नहीं जानता जो अपनी राजनीति और अपनी गृहस्थी चलाने के लिए सेठों, दलालों और राजकीय कृपाकांक्षियों से पैसा नहीं लेता| पैसा लेते वक्त कोई भी नेता देनेवाले को यह कहने की हिमाकत नहीं कर सकता कि मैं आपका कोई भी गलत काम नहीं करॅंगा और यह भी नहीं कह सकता कि मैं कोई सौदेबाजी नहीं करूगा याने ‘लाव और आर्डर’ नहीं होगा| जो लोग बरसों-बरस प्रतिपक्ष में रहे हैं, वे इस सिद्घांत का पालन सहज रूप में करते रहे हैं| पैसा लेना उनकी मजबूरी है लेकिन घुटने टेकना नहीं| अब सभी दलों के नेता इसी जुगाड़ में रहते हैं कि कोई पैसेवाला फॅंसे और किसी भी क़ीमत पर उसे दुहा जाए| दिलीपसिंह जू देव इसी बीमारी के प्रतीक हैं| नेता लोगों को पार्टी और चुनाव के अलावा खुद के लिए भी बड़े पैसे की लाग होती है| हर पैसा देनेवाले को वे सब्जबाग दिखाते हैं और उसके आगे घुटने टेकने में भी उन्हें शर्म नहीं आती| पैसा ही नहीं, पैसेवाला भी उनके लिए खुदा होता है| जिसे नेता की तरह बर्ताव करना चाहिए, वह दलाल की तरह पेश आता है| दलाली चाहे वह तोपों की करें, ताबूतों की करें, खदानों की करें या चर्बीवाले जैन वनस्पति की करें| जिन्हें हम शेर समझते हैं, वे वास्तव में गीदड़ निकलते हैं| भारतीय राजनीति ऐसे ही गीदड़ों का टीला है|
अगर हमारे नेताओं का बर्ताव शेरों की तरह होता तो वे सारा लेन-देन शेरों की तरह करते| मैंने राजनारायण को पैसा लेते अपनी ऑंखों से देखा है| दर्जनों लोगों की उपस्थिति में वे पैसा लेते थे और सबको बताते थे| वे किसी कमरे में छुपकर गीदड़ों की तरह रिश्वत नहीं लेते थे| दलालों के जरिए सौदेबाजी नहीं करते थे| इस तरह का लेन-देन भी महात्मा गॉंधी, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह और सावरकर के लेन-देन से एक पायदान नीचे है, क्योंकि यह स्वार्थ और परमार्थ के ताने-बाने से बुना हुआ है, जबकि इन महापुरुषों का लेन-देन शुद्घ परमार्थ के लिए होता था| आजकल राजनीति में जो पैसा खाया जाता है, उसकी तुलना उक्त लेन-देन से करना वेश्या को साध्वी के आसन पर बिठाना है| यदि पैसा राजनीति के लिए, पार्टी के लिए, धर्म-परिवर्तन रोकने के लिए लिया जा रहा है तो वह संगठन के कोषाध्यक्ष के पास सीधा क्यों नहीं जाता ? उसके लिए दलाली करना या दलाली का नाटक करना जरूरी क्यों है ? यह शायद इसलिए जरूरी हो गया है कि बिना पैसे राजनीति में आजकल किसी का दबदबा कायम नहीं होता| निजी दबदबे के लिए निजी कोष आवश्यक है| हर नेता निजी कोष के चक्कर में फॅंसा हुआ है| यदि ऐसा नहीं होता तो सभी पार्टियॉं अपने रंगे हाथ पकड़ाए हुए नेताओं का बचाव क्यों करती हैं ? जब बड़े नेता निजी कोष के चक्कर में हैं तो छोटे नेता क्यों न हों ? इसीलिए जब बड़े नेता फॅंसते हैं तो छोटे नेता और सारी पार्टी उनके बचाव में टूट पड़ते हैं और जब छोटे नेता फॅंसते हैं तो बड़े नेता मरहमपट्टी करते दिखाई पड़ते हैं| यदि सचमुच कोई नेता पार्टी या सामाजिक कार्य के लिए पैसा लेता हो और उसके विरुद्घ कोई झूठा आरोप लगाए या उसे किसी साजिश में फॅंसाने की कोशिश करे तो ऐसे व्यक्ति को वह पार्टी ही नहीं, सारा समाज ही चकनाचूर कर देगा| यह असंभव नहीं कि दिलीपसिंह जू देव को किसी साजिश में फॅंसाया गया हो लेकिन क्या देश में उनके प्रति कोई सहानुभूति है ? कुछ विरोधी दलों के नेता उनके विरुद्घ बढ़-चढ़कर बयान दे रहे हैं बिल्कुल वैसे ही जैसे लोग शव-यात्राओं में जाते वक्त सोचते हैं कि ‘देखो, वह मर गया लेकिन मैं तो जिन्दा हूं|’ जिन्दा रहनेवाला उस समय यह नहीं सोचता कि मौत का फन्दा उसके गले पर भी हर क्षण कसता जा रहा है| वे सब नेता ईमानदार हैं, जो पकड़े नहीं जाते लेकिन हर नेता घबराया हुआ है कि किसी भी दिन मौत का यह फन्दा उसके गले में भी पड़ सकता है|
शिक्षा और चिकित्सा छज्जे पर
शिक्षा और चिकित्सा में भी पैसे का वैसा ही बोलबाला हो गया है, जैसा कि राजनीति में| दिल्ली के एक प्रसिद्घ अस्पताल में अपने मित्र राजू अय्यर से मैं मिलने गया| उन्हें केंसर था| लगभग 30 हजार रुपए रोज़ उनसे झपटे गए| छह लाख रुपए उनके घरवालों ने दिए और एक दिन उनका शव वे घर ले आए| अय्यरजी बचनेवाले नहीं थे, यह सबको पता था| वे नहीं बचे, इसमें अस्पताल का कोई दोष नहीं लेकिन अस्पताल ने पूरे परिवार को हमेशा के लिए बीमार कर दिया| यही हाल शिक्षा का है| दिल्ली के कुछ पब्लिक स्कूलों में शिशुओं की भर्ती के लिए दो लाख से पॉंच लाख रु. तक देने पड़ते हैं और बच्चों की मासिक फीस पॉंच हजार रु. प्रति माह तक है| ये पब्लिक स्कूल हैं, जिनमें पब्लिक के बच्चे पॉंव भी नहीं धर सकते| ऐसे स्कूल और ऐसे अस्पताल इस देश में क्यों चल रहे हैं, समझ में नहीं आता| इस तरह के अस्पतालों और स्कूलों में जानेवाले लोग भ्रष्टाचार नहीं करेंगे तो क्या करेंगे ? जो कुछ खर्च वे यहॉं करेंगे उसे वह सारे समाज से जीवन-भर क्यों नहीं वसूलेंगे ? शिक्षा और चिकित्सा दोनों ही परम पवित्र व्यवसाय हैं लेकिन अब दोनों को छज्जे पर बिठाया जा रहा है|
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