नवभारत टाइम्स, 21 अप्रैल 2002 : छत्र्पति शिवाजी ने कभी कहा था ‘गढ़ आला, सिंह गेला’ यानी किला तो पा लिया लेकिन सेनापति खो दिया| वही बात आज के जनसंघियों पर लागू होती है| वे गुजरात जीतते जा रहे हैं लेकिन रोज भारत हारते जा रहे हैं| सारा भारत कह रहा है, मुख्यमंत्र्ी को हटाओ| वह अकर्मण्य है, अहमन्य है, अनाड़ी है और गोवा से भाजपा का जवाब आता है कि तुम कौन होते हो, यह सब बकवास करने वाले ? यह गुजरात की जनता बताएगी कि नरेंद्र मोदी कौन है ? इसीलिए गुजरात में अब चुनाव का बिगुल बजेगा| इसे कहते हैं, लोकतंत्र्| लोक तय करेगा कि तंत्र् कैसा हो ?
कौन-सा लोक तय करेगा ? गुजरात का लोक तय करेगा ? क्या गुजरात का लोक अपने आपे में है ? जो आपे में नहीं है, क्या वह कोई सही निर्णय कर सकता है ? यदि गुजरात की जनता आपे में होती तो क्या वहां डेढ़ माह तक अनवरत हिंसा चलती रह सकती थी ? गोधरा की क्रिया पर जो प्रतिक्रिया हुई, वह स्वाभाविक है, इसमें संदेह नहीं| वह प्रतिक्रिया कई गुना अधिक भी हो सकती थी, लेकिन क्रिया और प्रतिक्रिया का यह तांडव जहां चल रहा है, वहां आज लोकतंत्र् का राज है या भीड़तंत्र् का ? भीड़तंत्र् के भूसे में से भाजपा लोकतंत्र् की सुई तलाश रही है, क्या राजधर्म का निर्वाह इसे ही कहते हैं? क्या लाशों के अंबार पर सत्ता का महल खड़ा करना ही राजधर्म है ? लहूलुहान गुजरात में आज चुनाव का बिगुल बजाना लोकतंत्र् को लहू के दरिया में से गुजारना है|
इसमें शक नहीं कि गुजरात में आज चुनाव हो जाए तो नरेन्द्र मोदी प्रचंड बहुमत से जीतेंगे| वे क्रोध और घृणा की लहर पर सवार हैं| लेकिन गुजरात की जनता का यह निर्णय क्या लोकतांत्रिक कहा जाएगा ? क्या कोई निर्णय इसलिए लोकतांत्रिक हो जाता है कि उसे बहुसंख्या का समर्थन है ? यदि कल भारत की बहुसंख्या यह तय कर ले कि भारत के अ-हिंद दोयम दर्जे के नागरिक होंगे तो क्या बहुसंख्यकों के इस निर्णय को लोकतांत्रिक कहा जाएगा ? यदि हिटलर के जर्मनी में बहुंसख्यक जर्मन अल्पसंख्यक यहूदियों के उन्मूलन को सही ठहराते रहे तो क्या उनका यह निर्णय लोकतांत्रिक था ? लोकतंत्र् का अर्थ केवल संख्या बल नहीं है, सुनिश्चित मूल्यमान भी हैं| यदि केवल संख्याबल से ही लोकतंत्र् चल सकता होता तो संविधान की क्या जरूरत रहती ? क्या बहुंसख्या के आधार पर संविधान का उल्लंघन किया जा सकता है ? क्या यह सच नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों के मतों के आगे तीस करोड़ मतदाताओं की राय मात खा जाती है ? पहले इंदिरा गांधी और अब जयललिता को जिन्होंने अपदस्थ किया, वे न्यायाधीश बहुमत में थे या अल्पमत में थे? जिन मतदाताओं ने उन्हें प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बनाया, उनके मुकाबले वे घोर अल्पमत मे थे| यहां बहुमत के मुकाबले अल्पमत की आवाज क्यों सुनी जाती है ? इसीलिए कि वह विवेक की, न्याय की, धैर्य की, निष्पक्षता की, धर्म की आवाज होती है| गुजरात में चुनाव की चुनौती अधर्म की आवाज है| राजधर्म से पतित हुई सरकार को सन्मार्ग पर लाने की बजाय भाजपा उसे संख्याबल की पालकी में बैठाना चाहती है| वह क्रोध और उन्माद की आवाज़ को विवेक की आवाज का चोला पहनाना चाहती है| नरेंद्र मोदी हटते तो भाजपा के ही कोई पटेल या मेहता या राणा मुख्यमंत्री बनते| भाजपा ने नरेंद्र मोदी को इस तरह पकड़ रखा है, जैसे उनके हटने पर गुलाम नबी आज़ाद या अहमद पटेल को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाना पड़ेगा| इसके बजाय कि पार्टी, सरकार को काबू करती, सरकार ने पार्टी को काबू कर लिया है| शेर पूँछ हिलाता, उसकी बजाय पूँछ शेर को हिला रही है|
यह भाजपा की मजबूरी है| भाजपा राजनीतिक दल है| कोई गीता प्रेस, गोरखपुर नहीं है| वह धंधा करने बैठी है, धर्मादा बांटने नहीं| राजनीतिक धंधे का तकाजा है कि किसी भी तरह कुर्सी में बने रहें| विपक्ष के आगे दब्बू दिखाई न पड़ें| नरेंद्र मोदी को हटाएंगे तो क्या गुजरात में जीती हुई बाजी नहीं हार जाएंगे ? बाजी जीतने का लोभ भाजपा की आंख की पट्टी बन गया है| भाजपा यह नहीं देख पा रही है कि वह सेक्यूलरवादियों की तोप का भूसा बन गई है| यह आरोप उसके चेहरे पर मस्से की तरह चिपक गया है कि साम्प्रदायिकता ही भाजपा की राजनीति है| भाजपा के तथाकथित राष्ट्रवाद को गुजरात जितना बेपर्दा कर रहा है, किसी अन्य घटना ने नहीं किया| सत्तारहित भाजपा केवल साम्प्रदायिक दिखाई पड़ती थी, लेकिन सत्तावान भाजपा ने दिखाई पड़ने और सचमुच वैसा होने का भेद समाप्त कर दिया है| भाजपा के गोवा प्रस्ताव ने अटलजी के आंसुओं को फिल्मी रंग दे दिया है| प्रधानमंत्री के आंसू मरहम बन गए थे, वे अब जले पर नमक की तरह दिखाई पड़ रहे हैं| गोवा प्रस्ताव में दुराग्रह का वहीं दानव झांक रहा है, जो कभी आपातकाल में सिर उठा रहा था| विनाशकाले विपरीत बुद्घि |
गोवा के जमघट ने यह सिद्घ कर दिया है कि भाजपा राष्ट्रभक्तों का नहीं, पार्टीभक्तों का संगठन है| वह भी किसी अन्य दल की तरह ही एक दल है| राष्ट्रहित उसके लिए गौण है, पार्टीहित सर्वोपरि है| गुजरात की जीत के लिए वह अपना सर्वस्व खोने के लिए तैयार है| गोवा जमघट के पहले लगता था कि केवल नरेंद्र मोदी ने राजधर्म की अवहेलना की है| अब लगता है कि स्वयं भाजपा को ही पता नहीं कि राजधर्म क्या है ? राजधर्म तो दूर की बात है, ऊँची बात है| लगता है, भाजपा अपने पार्टी धर्म के प्रति भी सचेत नहीं है| गोधरा में 27 फरवरी को सुबह 8 बजे जिन्हे जिंदा जलाया गया, वे कौन थे ? क्या वे कारसेवक नहीं थे ? क्या वे रामभक्त नहीं थे ? क्या वे भाजपा के कार्यकर्ता नहीं थे ? जो मुख्यमंत्र्ी अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के हत्यारों को ही नहीं पकड़ सका, वह कैसा कारसेवक है, कैसा रामभक्त है, कैसा भाजपाई है ? उसे मुख्यमंत्र्ी बने रहने का क्या अधिकार है ? उसे तो उसी दिन इस्तीफा स्वयं ही दे देना चाहिए था| जो राजधर्म क्या, पार्टी धर्म ही नहीं निभा सके, उसे पार्टी बर्दाश्त कर रही है, इससे बड़ा अचरज क्या हो सकता है ? नरेंद्र मोदी का आचरण किसी भी स्वयंसेवक, किसी भी रामभक्त, किसी भी भाजपाई, किसी भी राष्ट्रवादी की दृष्टि में शर्मनाक ही कहा जाएगा| जो नरेंद्र मोदी रामभक्तों के हत्यारों को नहीं पकड़ सका, उससे मुसलमानों की रक्षा की उम्मीद करना तो पानी को बिलोकर मक्खन निकालना है| हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों के लिए नरेंद्र मोदी निकम्मेपन का निकृष्टतम उदाहरण है|
गुजरात ने भाजपा को मौका दिया था कि वह स्वयं को एक महान पार्टी सिद्घ करती| अटलजी को मौका मिला था कि वह स्वयं को महान प्रधानमंत्री सिद्घ करते लेकिन यह अवसर भी उन्होंने गंवा दिया| 27 फरवरी को ही गोधरा के गुंडे पकड़े जाते तो क्या बाद में हुआ नरसंहार होता ? और अगर होता तो निकम्मे मुख्यमंत्री की कुर्बानी देकर भाजपा यह संदेश देती कि राजधर्म के आगे सब धर्म छोटे हैं| वह राज करना भी जानती है और धर्म क्या है यह भी समझती है| देश का कैसा दुर्भाग्य है कि भाजपा का प्रतीक अब अटल बिहारी वाजपेयी नहीं, नरेंद्र मोदी हैं| कौन चेहरा है और कौन मुखोटा, यह समझना ही कठिन हो गया है| गुजरात पहुंचने में प्रधानमंत्री को 25 दिन लग जाएं और मुख्यमंत्री 24 घंटे तक गोधरा की खबर तक न ले, इससे बढ़कर अजूबा क्या हो सकता है ? मान लिया कि नेतागीरी आपके बस की बात नहीं| आप कम से कम अभिनेतागीरी ही कर डालते| यदि आप सहानुभूति का अभिनय भी नहीं कर सकते, आप लोक रंजन भी नहीं कर सकते तो आप राजधर्म का पालन कैसे करेंगे? यह ठीक है कि गुजरात के हर मुहल्ले, हर गली और हर घर के आगे सिपाही खड़े नहीं किए जा सकते थे और हिन्दुओं के अकूत आक्रोश की बाढ़ पर कोई सरकार ढक्कन नहीं लगा सकती थी लेकिन वह कम से कम अपना राजधर्म निर्वाह करती हुई तो दिखाई पड़ सकती थी| जवाहरलाल नेहरू भी 1974 के दंगे नहीं रोक पाए लेकिन दुनिया देख रही थी कि भारत का प्रधानमंत्री फायर बि्रगेड के जवानों की तरह जलते हुए मुहल्लों में दौड़ रहा है| लेकिन जलते हुए गुजरात पर सत्तारूढ़ दल के नेता जिस तरह के निर्विकार-निस्संग बयान जारी कर रहे थे, यानी जैसे ‘क्रिया की प्रतिक्रिया होती है’, ‘भारत के माथे पर कलंक है’ आदि-आदि, उससे ऐसा लग रहा था कि हमारे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री राजधर्म नहीं, पत्र्कारिता धर्म निभा रहे हैं| कभी निर्विकार बयान जारी करना, कभी आंसू बहाना और कभी चुनाव की धमकी देना, क्या-क्या अदाएं हैं, हमारे रामभक्तों की | इन बांकी अदाओं पर रामभक्त फिदा हो रहे हैं और आपस में खुसपुसा रहे हैं कि हिंदुओं ने पहली बार मुसलमानों को सबक सिखाया है| फिर भी हमें देश के सभी हिंदुओं के वोट क्यों नहीं मिलेंगे ? कोई उनसे पूछे कि गुजरात के अलावा क्या भारत बेवकूफ या नपुंसक है ? गुजरात की आग सारे भारत में क्यों नहीं फैली? सारे भारत ने गुजरात जैसा बर्ताव क्यों नही किया, क्या उसका कोई सबक नहीं है ? उनका सबक यही है कि शेष भारत अपने आपे में है, भीड़तंत्र् के कब्जे में नहीं है| शेष भारत में भी हिंदू बहुसंख्या में है और गोधरा की हिमाकत ने उनका भी खून खौला दिया था, लेकिन उनकी प्रतिक्रिया एक विधिभीरू और धर्मभीरू हिंदू की थी| वे राज और धर्म दोनों से बंधे थे, जबकि गुजरात के हिन्दू की प्रतिक्रिया एक ऐसे हिन्दू की थी, जो विधि और धर्म दोनों से ऊपर उठ चुका है| इसका कारण क्या है ? क्या नरेंद्र मोदी नही ? ‘राजा कालस्य कारणम्र’| यदि शेष भारत में भी नरेंद्र मोदी होते तो निश्चय ही गुजरात के बाहर भी खून की नदियां बहती| इस निष्कर्ष का निहितार्थ और भी भंयकर है, वह यह कि जहां-जहां रामभक्तों का शासन होगा, क्या वहां-वहां विधि का शासन और धर्म का शासन खटाई में नहीं पड़ जाएगा ? भाजपा के गोवा अधिवेशन में इस राक्षसी पहेली को सुलझाया जाना चाहिए था, राजधर्म की मीमांसा की जानी चाहिए थी लेकिन उसने गुजरात में चुनाव का आहवान किया और दम तोड़ दिया| गुजरात जब तक बुखार में है, जीत की पूरी संभावना है लेकिन भारत में क्या होगा ? भारत में जीत कैसी होगी ? गुजरात पाइए और भारत खोइए|
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