Nav Bharat Times, 17 Dec 2002 : गुजरात में जैसी प्रचंड विजय भाजपा को मिली, वैसी पिछले कई दशकों में किसी पार्टी को नहीं मिली| भाजपा-जैसी पार्टी में कोई प्रांतीय नेता नरेन्द्र मोदी की तरह राष्ट्रीय स्तर पर उभरा हो, यह भी अपूर्व है| फिर भी यह प्रश्न क्यों कि गुजरात में कौन जीता ?
गुजरात में क्या हिन्दुत्व जीता है ? क्या नरेन्द्र मोदी जीते हैं ? क्या भाजपा जीती है ? जवाब सीधा-सादा है कि ये तीनों ही जीते हैं| यह जवाब चारों तरफ से आ रहा है| सब इसी जवाब को सही मानकर चल रहे हैं| इतना सही कि कोई प्रश्न ही नहीं पूछ रहा| प्रधानमंत्री ने भी कह दिया कि यह विजय ‘अप्रत्याशित’ और ‘आश्यर्चजनक’ है| इस बात को भी सभी मान रहे हैं| लेकिन क्या ये दोनों बाते तर्क की कसौटी पर खरी उतरती हैं ? यदि यह ठीक से पता चल जाए कि जीत किसकी हुई है तो यह भी अपने आप ही पता चल जाएगा कि यह जीत ‘अप्रत्याशित’ और ‘आश्यर्चजनक’ नहीं है|
जो यह कह रहे हैं कि यह जीत ‘अप्रत्याशित’ और ‘आश्यर्चजनक’ है, वे पहले दिन से ही यह नहीं समझ पा रहे कि आखिर गुजरात में हुआ क्या है| गुजरात में जो हुआ है, वह स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ| शायद दुनिया के किसी अन्य देश में भी नहीं हुआ| जो हुआ, उसका नाम है, गोधरा ! क्या आपने कभी सुना कि किसी देश में अल्पसंख्यकों ने इतनी बड़ी हिमाकत की हो ? बहुसंख्यक वर्ग के 57 लोगों को जिंदा जला दिया हो और हत्यारों का बाल भी बाँका न हुआ हो| सरकार सोई रही और हत्यारे खुले-आम घूमते रहे| गोधरा की प्रतिक्रिया सौगुनी हो सकती थी| सारा भारत भभक सकता था लेकिन नहीें भभका | मोदी सरकार की अकर्मण्यता ने आम जनता की कर्मण्यता और पौरुष, दोनों को चुनौती दी| आम जनता ने कानून अपने हाथ में ले लिया और वह नर-संहार में जुट गई| गोधरा में गुजरात सरकार जैसी नाकारा सिद्घ हुई, वैसी ही वह नरोदा, बड़ोदरा और अहमदाबाद में सिद्घ हुई| 200 दंगाई उसकी गोलियों के शिकार हुए| फिर भी एक हजार से ज्यादा बेकसूर लोग मारे गए| जैसे गोधरा के बेकसूर बहुसंख्यकों का खून इस सरकार के माथे पर है, वैसे ही एक हजार बेकसूर अल्पसंख्यकों का खून भी इसके माथे पर है| फिर भी यह प्रचंड बहुमत से कैसे जीती ? अपनी दोहरी अकर्मण्यता के बावजूद यह कैसे जीती ?
वास्तव में मोदी सरकार नहीं जीती| सरकार के नाते तो वह 27 फरवरी को ही हार चुकी थी| वास्तव में जीती है, गुजरात की जनता| गुजरात के चुनाव-परिणाम गोधरा का ही विस्तार है| गुजरात की जनता ने पहले अपना क्रोध दंगों के जरिए व्यक्त किया और अब वोटों के जरिए| मोदी की चालाकी सिर्फ इतनी है कि क्रोधाभिव्यक्ति के इस महाअभियान में वे गुजराती जनता के साथ हो लिए| वे राजधर्म के चक्कर में नहीं पड़े| उन्होंने भीड़ धर्म निभाया| वे अपने राष्ट्रीय नेताओं की तरह असमंजस में नहीं पड़े| अटलजी और आडवाणीजी की तरह वे खेद व्यक्त नहीं करते फिरे| उनका निशाना सिर्फ गुजरात था| उन्होंने गोधरा को भुनाया| भारत राष्ट्र, उसकी छवि, लोकतंत्र, पार्टी-प्रतिष्ठा आदि सारे मामले उन्होंने केंद्रीय नेताओं के सुपुर्द कर दिए| इसीलिए गुजरात की विजय का सेहरा मोदी के माथे पर बँध रहा है, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि 1984 में राजीव गाँधी के माथे पर बँधा था ? क्या 1984 की विजय राजीव गाँधी की विजय थी ? जैसे मोदी ने प्रतिशोध के लिए न्यूटन का नियम उछाला था, वैसे ही राजीव ने वटवृक्ष के उखड़ने पर पृथ्वी के हिलने की बात कही थी| राजीव को लोकसभा में जितनी सीटें मिली थीं, उतनी कभी नेहरु या इंदिरा को भी नहीं मिली थीं लेकिन क्या वह राजीव गाँधी की विजय थी ? जैसे 1984 में चुनाव-परिणाम की चकाचौंध ने सबकी आँखों पर पर्दे डाल दिए थे, वैसे ही आज भी हम गलत निष्कर्ष निकाल रहे हैं| जैसे 1984 का वोट राजीव का नहीं, दिवंगत इंदिरा गाँधी का वोट था, वैसे ही आज के गुजरात का वोट नरेन्द्र मोदी का नहीं, गोधरा के 57 मृतकों का वोट है| भावना में बहकर जैसे एक अनुभवहीन युवक को भारत ने अपनी लगाम थमा दी थी, वैसे ही एक अकर्मण्य मुख्यमंत्री को गुजरात ने अपनी लगाम थमा दी है| इसमें गुजरात की जनता का कोई दोेष नहीं| उसके पास इसके अलावा क्या विकल्प था ? यह असंभव नहीं कि नरेन्द्र मोदी भी राजीव की गति को ही प्राप्त हो| राजीव के प्रधानमंत्री बनने के बाद पिछले 18 साल में काँग्रेस पार्टी को एक बार भी साधारण बहुमत तक नहीं मिला| यह कहना अभी कठिन है कि नरेन्द्र मोदी कैसे मुख्यमंत्री साबित होंगे|
यदि वे वाकई सफल मुख्यमंत्री होते तो सौराष्ट्र, उत्तर और दक्षिण गुजरात में काँग्रेस को इतनी बढ़त नहीं मिलती| गोधरा और उनकी अपनी योग्यता मिलकर भाजपा को कम से कम 150 सीटें दिलातीं| जहाँ दंगे हुए, वहाँ भाजपा का बढ़ना और जहाँ नहीं हुए, वहाँ काँग्रेस का बढ़ना, आखिर किस तथ्य का सूचक है ? क्या इसका नहीं कि मोदी के मुख्यमंत्रित्व की, शासन-क्षमता की परीक्षा होनी अभी बाकी है| मोदी को मार-मारकर विपक्ष ने हीरो बना दिया है| दोहरी अकर्मण्यता के लिए जिम्मेदार एक मुख्यमंत्री की तुलना सरदार पटेल से की जा रही है| उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी का विकल्प बताया जा रहा है| हमारे नकली सेक्यूलरवादियों, कुछ उत्साही और भोले पत्रकारों और विपक्षी दलों ने मोदी पर इतने प्रहार किए कि उनकी रक्षा का काम गुजरात की जनता ने अपने कंधों पर ले लिया| मोदी और गुजरात एक-मेक हो गए| ‘गोड़से का गुजरात’, ‘हिंसक गुजरात’, ‘अराजक गुजरात’, जैसे शब्दों ने गुजरातियों को अपमान की भावना से भर दिया| ये चुनाव-परिणाम इसी अपमान का बदला है| यदि काँग्रेस इस अपमान-अभियान में शामिल नहीं होती और गोधरा हत्याकांड की भी कड़े शब्दों में निंदा करती तो आज उसकी स्थिति कहीं बेहतर होती| लेकिन उसने आसान रास्ता चुन लिया| उसने गोधरा भुला दिया और नरोदा याद कर लिया| उसने मोदी के सामने शंकरसिंह वाघेला को खड़ा कर दिया ताकि चेले को गुरु पछाड़ सके लेकिन गुरु गुड़ रह गया और चेला शक्कर निकल गया| काँ्रग्रेस ने सोचा कि गरम हिन्दुत्व के मुकाबले लोग शायद नरम हिन्दुत्व को पसंद करेंगे लेकिन वह यह भूल गई कि गुजरात का चुनाव किसी विचारधारा के आधार पर नहीं लड़ा गया है| उसका आधार केवल एक था| वह था, गोधरा का प्रतिशोध ! प्रतिशोध का यह ज्वालामुखी इतना प्रचंड था कि गुजरात में जहाँ दंगे नहीं हुए, वहाँ भी भाजपा को काफी सीटें मिली हैं| यदि दंगाग्रस्त इलाके से 50 सीटें मिली हैं तो अन्य इलाकों से 76 सीटें मिली हैं| यह ठीक है कि गैर-दंगाग्रस्त इलाकों में काँग्रेस बढ़ी है| यदि चुनाव का आधार हिन्दुत्व होता तो इन पुराने भगवा इलाकों में भी भाजपा वैसा ही सफाया करती, जैसा कि उसने दंगाग्रस्त इलाकों में किया है| सच्चाई यह है कि इनमें से कुछ इलाके भाजपा ने खोए हैं| खोने का कारण शासन-क्षमता का अभाव है, हिन्दुत्व का नहीं|
गुजरात पर भाजपा फूली नहीं समा रही लेकिन क्या वह यह नहीं जानती कि भारत गुजरात नहीं बन सकता| भारत को गुजरात बनाने के पहले क्या सारे देश में दंगे कराना जरूरी नहीं होगा ? क्या भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व इतने नीचे गिरने को तैयार होगा ? लगता तो यह है कि अब गुजरात भी गुजरात नहीं रहेगा| जैसे गुजरात की हिंसा गुजरात तक सीमित रही, वैसे ही गुजरात के चुनाव-परिणाम भी गुजरात तक सीमित रहेंगे| गुजरात ने अपना हिसाब चुकता कर लिया है| अब वह सहज हो जाए, यह जरूरी है| इसी प्रकार मोदी को भी सहज होना पड़ेगा| मोदी क्या है, यह भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व भली-भाँति समझता है| सहज और सामान्य भारत मोदी जैसे नेताओं को कैसे स्वीकार करेगा ? अटल को मोदी बनने की जरूरत नहीं है, मोदी को अटल बनना होगा| यदि गुजरात को भाजपा अपनी अखिल भारतीय प्रयोगशाला मान बैठेगी तो वह राष्ट्रीय चुनावों में मुँह की खाएगी| यह जीत गुजराती अस्मिता की है, भाजपा की नहीं| इस जीत को भाजपा अपनी जीत मानकर चल रही है, इसीलिए चुनाव परिणाम उसे ‘अप्रत्याशित’ और ‘आश्यर्चजनक’ लग रहे हैं| यदि भाजपा की जगह काँग्रेस होती तो वह शायद दो-तिहाई नहीं, तीन चौथाई सीटों से जीतती|
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