नया इंडिया, 8 मार्च 2014: हमारे देश में लगभग 250 विश्वविद्यालय हैं और कई नए विश्वविद्यालय खुलते जा रहे हैं। लेकिन उनकी स्थिति क्या है? उनका स्तर क्या है? क्या उनके स्तर को नापने का कोई पैमाना हमारे है? बस एक ही पैमाना है। वह यह है कि कितने छात्र उसकी परीक्षाओं में बैठते हैं और उनमें से कितने पास होते हैं। यह पैमाना इतना लचीला है कि जो विश्वविद्यालय जितना चाहे इसे झुका लेता है। अन्य विषयों के ही नहीं मेडिकल के छात्र भी थोक में पास कर दिए जाते हैं। विश्वविद्यालय में भर्तियों के भी क्या कहने? अंधेरगर्दी मची हुई है। कई प्रांतों में जातिवाद और भाई-भतीजावाद का नग्न नृत्य तो होता ही है, आजकल दलालों और अध्यापकों की मिलीभगत से सर्वथा अयोग्य छात्र भी ऐसे विषयों में प्रवेश पा जाते हैं, जिनमें स्नातक बनने के बाद वे अपनी अयोग्यता के कारण लोगों की जान से भी खेलते रहते हैं।
इतना ही हमारे विश्वविद्यालयों के बारे में हम जानते ही हैं। लेकिन टाइम्स पत्रिका हर साल जो सारी दुनिया के विश्वविद्यालय का मूल्यांकन करती है, उसमें पहले 100 विश्वविद्यालयों में भारत का कोई भी विश्वविद्यालय नहीं है। 100 में से एक भी नहीं। हम भारत को जगत्गुरू कहते नहीं अघाते। भारत के नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालयों के गुण गाते हम नहीं थकते लेकिन हमारे आजकल के एक-दो सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों का उक्त सूची में 400वां स्थान मिला है। चीन और रूस के कुछ विश्वविद्यालय 50वें स्थान के आस-पास है।
ऐसा क्यों है? इसलिए है कि हम लोग नकलची हैं। कोई नकलची कितना भी शानदार हो, असली के सामने तो वह दोयम दर्जे का ही बना रहेगा। विश्वविद्यालय में मौलिकता का अभाव है। वे पश्चिम के शैक्षणिक ढांचें मे ढले हुए हुए हैं। हमारे अध्ययन के विषय, उनकी अध्ययन पद्धति, उनका अनुसंधान, उनकी शोध-सामग्री, उनका पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तके पश्चिम की नकल भर होती हैं। विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ानेवाला कोई विश्वविद्यालय श्रेष्ठ हो ही नहीं सकता। हमारी शिक्षा-पद्वति से जब तक यह भाषाई गुलामी दूर नहीं होती, भारत के विश्वविद्यालय पिछड़े ही रहेंगे।
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