R Sahara, 17 Oct 2003 : ‘एसियान’ राष्ट्रों के साथ पिछले हफ्ते भारत का जो शिखर-सम्वाद हुआ, उसका असली अर्थ क्या है ? यही कि इक्कीसवीं सदी अब एशियाई सदी बनने के मार्ग पर चल पड़ी है और भारत महाशक्ति बनने के मार्ग पर ! अगले दो-तीन दशकों में अगर ये दो लक्ष्य पूर्ण होते हैं तो वे सिर के बल खड़ी विश्व राजनीति को पैर के बल खड़ा कर देंगे| 19वीं सदी यूरोपीय सदी थी और 20वीं सदी अमेरिकी सदी ! इन दोनों सदियों में विश्व राजनीति को कुछ मुट्ठीभर राष्ट्रों ने अपनी कठपुतली बना रखा था| राष्ट्रसंघ और संयुक्तराष्ट्र संघ के बावजूद दुनिया के लगभग दो सौ राष्ट्रों की हैसियत गॅूंगे-बहरों की तरह थी| आज भी कमोबेश यही स्थिति है| पॉंचों महाद्वीपों पर बसे ये राष्ट्र आजाद तो हो गए हैं और संयुक्तराष्ट्र के सदस्य भी बन गए हैं लेकिन इनकी अर्थ-व्यवस्थाऍं और मानसिकताऍं अब भी उनके पुराने स्वामी-देशों के साथ नत्थी हैं| ‘एसियान’ जैसे संगठनों के उदय से यह आशा बंधती है कि दुनिया के छोटे-मोटे राष्ट्र अब अपनी पुरानी आर्थिक और मानसिक जकड़नों से मुक्ति पाऍंगे|
इस दृष्टि से ‘एसियान’ का बाली-सम्मेलन एतिहासिक रहा| इस शिखर सम्मेलन में ‘एसियान’ के दस सदस्य-राष्ट्रों के शीर्ष नेताओं ने तो भाग लिया ही, उनके अलावा भारत, चीन, जापान और कोरिया के नेता भी पहॅुंचे| चीन, जापान और कोरिया पहले से ही इन दस राष्ट्रों के साथ अपना द्विपक्षीय सम्वाद चला रहे थे लेकिन गत वर्ष दस और तीन के इस सम्वाद को फैलाकर दस और चार का बनाने का निर्णय हुआ याने अब भारत भी शेष तीन राष्ट्रों की तरह ‘एसियान’ के दस राष्ट्रों के साथ खुलकर आर्थिक सहकार कर सकेगा| 14 राष्ट्रों के इस समूह की शक्ति का कोई अनुमान तो लगाए ! लगभग तीन अरब लोग रहते हैं, इन राष्ट्रों में | यानी आधी दुनिया ! दुनिया के लगभग सभी प्रमुख धर्मों के लोग इन 14 राष्ट्रों में हैं – हिन्दू, बौद्घ, मुसलमान, ईसाई आदि| इन राष्टों का सकल राष्ट्रीय उत्पाद 7 टि्रलियन डॉलर से अधिक है, जो कि यूरोपीय आर्थिक समुदाय के बराबर है| यदि चीन, भारत, जापान और इंडोनेशिया की सैन्य-शक्ति को जोड़ लिया जाए तो उसे किसी भी विश्व-शक्ति के मुकाबले खड़ा किया जा सकता है| यदि इन सभी राष्ट्रों के बीच कोई साझा बाजार स्थापित हो जाए और मुक्त व्यापार होने लगे तो दुनिया का कौनसा अन्य महाद्वीप है, जिसका बाजार इस पूर्व एशियाई बाजार से बड़ा होगा ?
इसी प्रकार जापान, चीन और भारत की वैज्ञानिक और औद्योगिक क्षमता परस्पर सहयोग और प्रतिस्पर्धा के भाव से आगे बढ़े तो आगामी कुछ दशकों में यूरोप और अमेरिका के मुकाबले एशिया आगे निकल सकता है| एशिया, खास तौर से पूर्व एशिया के आगे निकलने की संभावनाऍं इसलिए भी हैं कि इस क्षेत्र में वैसे उग्र राजनीतिक विवाद नहीं हैं, जैसे कि लातीनी अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका और मध्य-पूर्व में हैं | भारत-चीन, इंडोनेशिया-मलेशिया और स्प्राटले द्वीपों के विवाद ऐसे नहीं रह गए हैं कि वे युद्घों की शक्ल ले लें| आर्थिक विकास के लिए जैसी स्थिरता और शांति आवश्यक होती है, वह इस क्षेत्र के लगभग सभी देशों में देखी जा रही है| म्यानमॉं, कम्बोडिया और कोरिया में उनकी आंतरिक स्थिति अब पहले के मुकाबले बेहतर हुई है| इन राष्ट्रों की एक बड़ी खूबी यह भी है कि इनकी सांस्कृतिक और धार्मिक जड़ें काफी गहरी हैं| औद्योगिक विकास में वे कभी बाधक अवश्य रही हैं लेकिन अब उनकी भूमिका रचनात्मक बनती जा रही है| जापान का मॉडल दूसरे राष्ट्र भी अंगीकार करना चाहते हैं| सिंगापुर, थाईलैंड, मलेशिया और कोरिया ने ही नहीं, चीन जैसे विशाल राष्ट्र ने भी आर्थिक प्रगति के नए प्रतिमान कायम किए हैं| इन राष्ट्रों में बसनेवाले करोड़ों लोगों ने अपनी प्रतिभा और परिश्रम से विश्व को चमत्कृत किया है| अमेरिका को सूचना महाशक्ति बनाने में प्रवासी भारतीयों के योगदान को रेखांकित करना आवश्यक नहीं है| यदि पूर्व के ये सभी राष्ट्र एक परिवार की तरह काम करें तो सारी दुनिया में वे संयुक्त उद्यम स्थापित कर सकते हैं, सारी दुनिया के बाजारों को सस्ते और बढि़या माल से पाट सकते हैं और पश्चिमी शक्तियों की पुरानी गिरफ्रत से छूट सकते हैं| इक्कीसवीं सदी को एशिया की सदी बनाने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं|
जहॉं तक भारत का संबंध है, बाली शिखर-सम्मेलन में तीन मुख्य दस्तावेज़ों पर दस्तखत हुए हैं| पहला, मुक्त-व्यापार का दस-वर्षीय समझौता, दूसरा, आतंकवाद-विरोध की संयुक्त घोषणा तथा तीसरा शांति और सहयोग की संधि ! ‘एसियान’ और भारत के बीच जैसा मुक्त-व्यापार समझौता हुआ है, वैसा ही ‘एसियान’ और चीन के बीच भी हुआ है| लेकिन भारत को केवल 10 माह लगे जबकि चीन को तीन साल | भारत के प्रति आग्नेय एशिया के देशों का रवैया वैसा नहीं है, जैसा कि चीन और जापान के प्रति है| द्वितीय महायुद्घ के दौरान जापानी आक्रमण की विभीषिका और माओ-राज में साम्यवादी चीन की आक्रामकता को भुगते हुए इन देशों का रवैया भारत के प्रति काफी नरम है| प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने इन राष्ट्रों को आश्वस्त किया है कि अगले शिखर सम्मेलन में भारत ‘एसियान-भारत 2020′ का खाका पेश करेगा| इस बार एसियान के साथ जो समझौता हुआ है, उसमें भारत ने ‘एसियान’ राष्ट्रों को उनकी जरूरत के मुताबिक काफी छूट दी है| कम्बोडिया, लाओस, म्यानमॉं, वियतनाम और फिलिपीन्स जैसे ज्यादा पिछड़े देशों पर आपसी तटकर-छूट का प्रावधान 2016 में लागू होगा जबकि ब्रुनेई, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर और थाईलैंड में यह छूट 2011 से ही शुरू हो जाएगी| पिछड़े राष्ट्रों को भारत की ओर से एकतरफा छूट अगले तीन साल से ही मिलनी शुरू हो जाएगी| 105 वस्तुओं पर तटकर घटाने और हटाने का कार्य भी अगले तीन साल में ही शुरू हो जाएगा| प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में यह भी कहा है कि भारत के चारों महानगरों से समस्त ‘एसियान’ देशों की राजधानियों के लिए दैनिक उड़ानों के लिए भी भारत ने हरी झंडी दे दी है| उन्होंने भारत से इन देशों को जोड़ने के लिए सड़कों और रेलों का जाल बिछाने का प्रस्ताव भी रखा है| उन्होंने भारत के 18 पर्यटन-केन्द्रों तक इन देशों से सीधी उड़ानों की भी अनुमति दे दी है| उन्होंने गुवाहाटी से हनोई तक प्रति वर्ष कार रैली आयोजित करने का भी प्रस्ताव रखा है| कहने की जरूरत नहीं कि भारत की इस पहल के परिणामस्वरूप दोनों पक्षों के व्यापार में दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति होगी| 1991 में ‘एसियान’ से भारत का व्यापार केवल 3.1 बिलियन डॉलर का था| अब वह 12.5 बिलियन डॉलर हो गया है| आशा है कि अगले चार वर्षों में वह 30 बिलियन डॉलर का आंकड़ा पार कर लेगा | भारत के साथ ही नहीं, चीन, जापान और कोरिया के साथ बढ़ता हुआ ‘एसियान’ का व्यापार इन समर्थ देशों के आपसी व्यापार को भी कई गुना बढ़ा सकता है| आज दुनिया का व्यापार जितना द्विपक्षीय रियायततों के आधार पर बढ़ रहा है, उससे कहीं ज्यादा बहुपक्षीय या सामूहिक रियायतों के आधार पर बढ़ रहा है| दुनिया का 60 प्रतिशत व्यापार समूहों के आधार पर हो रहा है| उत्तरी अमेरिका में ‘नाफ्ता’, लातीनी अमेरिका में ‘मर्कूसर’ और यूरोपीय आर्थिक समुदाय इस तरह की सफलता के ज्वलंत उदाहरण हैं| कोई आश्चर्य नहीं कि ‘एसियान’ के साथ भारत और चीन के जो द्विपक्षीय समझौते हुए हैं, वे अगले दस वर्षों में एशियाई सामूहिक समझौते का रूप ग्रहण कर लें| एशियाई अर्थ-व्यवस्थाऍं जिस तेजी से आगे बढ़ रही हैं, यह असंभव नहीं कि यह एशियाई आर्थिक समुदाय दुनिया का सबसे शक्तिशली समुदाय बन जाए| इस समय न तो ‘दक्षेस’ आगे बढ़ पा रहा है और न ही हिंद महासागर तटसंघ (आयोरा) ! इसीलिए सारी दुनिया की ऑंखें ‘एसियान’ पर लगी हुई हैं|
यदि इन 14 एशियाई राष्ट्रों में घनिष्ट आर्थिक सहकार सफल होगा तो क्या ये सामरिक सहकार से नाक-भौं सिकोड़ पाएंगे ? यह कठिन है| आजकल भी किसी न किसी स्तर पर इन देशों में सामरिक सहकार जारी है| शस्त्र-क्रय, सैन्य-प्रशिक्षण, संयुक्त-सैन्याभ्यास आदि कई देशों के बीच पहले से चला आ रहा है| उसके फलस्वरूप अनेक राष्ट्रों में आंतरिक सुरक्षा में वृद्घि होगी और पारस्परिक विवाद सुलझाने में आसानी होगी| इस क्षेत्र में सैन्य दृष्टि से हालॉंकि तीन राष्ट्र चीन, भारत और जापान प्रमुख होंगे लेकिन ‘एसियान’ के राष्ट्र चीन के बजाय भारत से सामरिक सहकार बढ़ाने में अधिक सुरक्षित महसूस करेंगे| यह प्रसन्नता की बात है कि उक्त तीनों प्रमुख राष्ट्रों के बीच इस समय कोई उत्तेजक विवाद नहीं है| भारत-चीन सीमा विवाद निपटाने के बारे में बाली में भारतीय और चीनी प्रधानमंत्री के बीच हुई बातचीत काफी महत्वपूर्ण थी| सिक्किम को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपने वेबसाइट से हटाकर चीन ने छोटा-सा रचनात्मक संकेत भी दिया है लेकिन भारत के प्रति चीन की नीति अब भी स्पष्ट नहीं है| वह पाकिस्तानपरस्ती पर अब भी आमादा है लेकिन एसियान और भारत की घनिष्टता ज्यों-ज्यों बढ़ती चली जाएगी, भारत के प्रति चीन का रवैया अवश्य ही प्रभावित होगा| ‘एसियान’ की तरफ बढ़ते हुए भारत के कदम पाकिस्तान के लिए भी एक सबक है| पाकिस्तान को यह समझना होगा कि उसकी हठधर्मी के कारण ‘दक्षेस’ जहॉं लगभग ठप्प हो गया है, ‘एसियान’ वहॉं दौड़ रहा है| पाकिस्तान के लाख चाहने के बावजूद ‘एसियान’ उसके लिए अपने दरवाजे नहीं खोल रहा है| पश्चिम एशिया अपनी ही गुत्थियों में उलझा हुआ है और पूर्व एशिया में पाकिस्तान के लिए पॉंव धरने की जगह नहीं है|
पाकिस्तान के प्रति मलेशिया और इंडोनेशिया में चाहे थोड़ी बहुत सहानुभूति दिखाई पड़ती हो लेकिन लगभग संपूर्ण आग्नेय एशिया आतंकवाद से तंग आया हुआ है| पिछले साल बाली में हुए बम विस्फोट में 202 लोग मारे गए थे| पूरा इंडोनेशिया थर्रा उठा था| इस क्षेत्र में फैले आतंकवाद की जड़ें सींचनेवालों में पाकिस्तान का नाम अग्रगण्य है| भारत ने ‘एसियान’ के साथ आतंकवाद-विरोध की घोषणा पर भी दस्तखत किए है| एक अर्थ में यह पाकिस्तान-विरोधी मोर्चा खुला है| इस्लामी सम्मेलन में जाकर मुशर्रफ कितनी ही सफाई पेश करें, आतंकवाद और पाकिस्तान एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं| आग्नेय एशिया में आतंकवाद-विरोधी अभियान अमेरिका ने चलवाया है| अफगान-गुत्थी के कारण अब भी पाकिस्तान के प्रति अमेरिका नरम-गरम रुख अपनाता रहता है लेकिन भारत के स्पष्ट रुख की सराहना इस क्षेत्र के लगभग सभी देश कर रहे हैं|
भारत ने मैत्री और शांति की संधि पर भी दस्तखत किए हैं| इससे यही प्रकट होता है कि भारत अपनी ‘पूरब की ओर देखो’ या पूर्वाभिमुख नीति के प्रति दृढ़तापूर्वक कटिबद्घ है| इस यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री थाईलैंड भी गए| अपने थाईलैंड-प्रवास के दौरान प्रधानमंत्री ने थाईलैंड के साथ मुक्त-व्यापार क्षेत्र समझौता भी किया| दक्षेस के बाहर किसी देश के साथ किया गया यह पहला समझौता है| भारत ने थाईलैंड को अपना शो-केस बना लिया है| 83 वस्तुओं पर तटकर-छूट अगले मार्च से ही शुरू हो जाएगी| 2010 तक दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार होने लगेगा, जिसे देखकर सम्पूर्ण एसियान राष्ट्रों को भी प्रेरणा मिलेगी| भारत-थाईलैंड संबंध का एक महत्वपूर्ण आयाम यह भी है कि दुबई की तरह बैंकॉक को भी तरह-तरह के अपराधी, तस्कर, आतंकवादी तथा भगोड़े अपने शरणस्थल की तरह इस्तेमाल करते हैं| उन्हें पकड़ने के लिए अब दोनों देशों के अधिकारी अधिक मुस्तैदी से सहयोग करेंगे| दोनों देश पर्यटन, व्यापार और व्यावसायिक सहयोग बढ़ाने की दृष्टि से वीज़ा में ढील देने की योजना भी बना रहे हैं| दोनों देशों में सहयोग की गति इतनी तीव्र होनेवाली है कि अगले दो वर्षों में व्यापार पॉंच हजार करोड़ से बढ़कर दस हजार करोड़ रुपए तक हो जाएगा|
प्रधानमंत्री वाजपेयी केवल थाईलैंड ही नहीं, दस में से सात एसियान देशों में अब तक हो आए हैं| अब तक कोई भी प्रधानमंत्री अपने एक कार्यकाल में एसियान के इतने देशों में नहीं गया| 1992 में प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने जो पूर्वाभिमुख नीति का सूत्रपात किया था, वाजपेयी ने उसे पराकाष्ठा पर पहॅुंचाया है| पंचभकार – भाषा, भूषा, भोजन, भजन और भेषज – की भारतीय विदेश नीति को आजमाने की आग्नेय एशिया से बेहतर प्रयोगशाला कोई और नहीं है| तीसरी दुनिया के नेता होने के नाते भारत को आग्नेय एशिया में बहुत पहले ही अपने पॉंव पसारने चाहिए थे और इसलिए भी उस पर ध्यान देना चाहिए था कि इस इलाके के सभी देश चाहे किसी भी धर्म के अनुयायी हों, सांस्कृतिक दृष्टि से वे भारतीय ही हैं लेकिन विश्व-यारी के नशे में पहले इनकी उपेक्षा हुई और जब इंदिरा गॉंधी ने इन पर ध्यान देना शुरू किया तो इनमें से ज्यादातर अमेरिका के बगलबच्चे बन चुके थे| अब जबकि शीतयुद्घ की लहरें थम गई हैं, इन राष्ट्रों की अर्थ-व्यवस्थाऍं मजबूत हो गई हैं, अमेरिका से भारत के संबंध भी सहज हो गए हैं, भारतीय विदेश नीति का यह पूर्वाभिमुख होना उसके महाशक्ति बनने की दिशा में बढ़ा हुआ कदम ही है|
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