जनसत्ता, 22 अप्रैल 2008 : समझ में नहीं आता कि बेचारे अर्जुनसिंह के पीछे सारे लोग हाथ धोकर क्यों पड़े हैं? ऐसा क्या कह दिया है, अर्जुन सिंह ने? उन्होंने यह तो नहीं कहा कि राहुल गॉंधी को अभी प्रधानमंत्री बनाओ| उन्होंने खुद कुछ नहीं कहा| एक पत्र्कार ने पूछा तो वे बोल पड़े कि ‘कोई हर्ज नहीं, राहुल को प्रधानमंत्री बनाने में !’ राहुल को प्रधानमंत्री कब बनाऍं, इस बारे में उन्होंने कुछ कहा ही नहीं| उन्होंने न तो मनमोहन सिंह को हटाने की बात कही और न ही खुद के प्रधान मंत्री बनने की इच्छा प्रगट की| खबरतंत्र् ने सारे मुद्दे को इस तरह उछाला मानो अर्जुनसिंह अभी ही सत्ता-परिवर्तन चाहते हैं| जैसे वे राहुल को कंधा और मनमोहनसिंह को निशाना बना रहे हों| कॉंग्रेस के प्रवक्ता को मजबूरन बयान जारी करना पड़ा कि कॉंग्रेस नेतृत्व चापलूसी पसंद नहीं करता| अखबारों के मुखपृष्ठों पर इधर ये बयान छपा और उधर प्रणब मुखर्जी का दुगुनी चापलूसी वाला बयान भी छापा| एक साथ दोनों बयान !
अर्जुनसिंह और प्रणब मुखर्जी कौन हैं? उम्र में तो ये दोनों वरिष्ठ हैं ही, कॉंग्रेसी राजनीति में भी वरिष्ठतम हैं| दोनों ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रह चुके हैं| प्रणब राजीव के वक्त और अर्जुनसिंह नरसिंहराव के वक़त ! दोनों कॉंग्रेस से अलग हुए, दोनों ने अपनी पार्टियॉं बनाईं और दोनों अपना-सा मुंह लेकर फिर आ गए| दोनों काफी अनुभवी और योग्य हैं| वे सत्ता और शासन के सारे दॉंव-पेंच समझते हैं लेकिन दोनों का कोई जनाधार नहीं है (कॉंग्रेस में किसका जनाधार है?)| दोनों अपने आपको मनमोहन सिंह से कहीं अधिक योग्य समझते हैं लेकिन सोनिया गांधी ने अपनी खड़ाऊ में इन दोनों में से किसी को भी पैर नहीं रखने दिया| इन दोनों नेताओं की भटि्रठयों में कैसी लपटें उठ रही होंगी, इसकी कल्पना आप सहज ही कर सकते हैं| मनमोहनसिंह तो प्रणब मुखर्जी के मातहत अफसरी भी कर चुके हैं| इसीलिए दोनों जब राहुल को प्रधानमंत्र्ी बनाने की बात कहते हैं तो लोग बिना दिमाग भिड़ाए ही मान लेते हैं कि ये लोग मनमोहनसिंह को हटाना चाहते हैं|
इसीलिए कॉंग्रेस में टांगखींचू अभियान शुरू हो जाता है| यों भी राहुल को अभी प्रधानमंत्री बनाया जाए या अगले चुनाव में इस पद का उम्मीदवार बनाया जाए, दोनों ही स्थितियॉं सरकार और कॉंग्रेस के लिए भयावह हैं| अभी प्रधानमंत्री बनाने की बात रद्द हो गई| कॉंग्रेस प्रवक्ता ने कह दिया कि प्रधानमंत्री पद अभी खाली नहीं है| याने जब खाली होगा, तब देखा जाएगा| इसका अर्थ क्या हुआ, यही न कि राहुल उम्मीदवार है? उम्मीदवारी की घोषणा अभी हो जाती, जैसी कि भाजपा ने की है तो वर्तमान सरकार की जो भी रही-सही चमक है, वह भी मंद पड़ जाती| मनमोहन सिंह सरकार ने जो कुछ अच्छा किया है, उस पर भी पानी फिर जाता| विपक्ष के प्रहार अधिक पैने हो जाते| इसका सीधा दुष्परिणाम प्र.म. पद के उम्मीदवार को भी भुगतने पड़ते| कॉंग्रेस का सूंपड़ा साफ हो जाता| चापलूसी की निंदा करके कॉंग्रेस ने अपने आपको इस विभीषिका से बचा लिया| बधाई !
लेकिन क्या यह भारतीय राजनीति का सबसे बड़ प्रहसन नहीं है? राजनीति के भारी-भरकम माहौल में इस मज़ाक का स्वागत होना चाहिए| कॉंग्रेस ने चापलूसी को जितनी ऊचाइयों पर पहुंचाया है, किसी यवन-नरेश, किसी मुगल बादशाह, किसी बि्रटिश वायसराय ने भी नहीं पहुंचाया| मुगल बादशाहों को जहॉंपनाह तो कहा गया लेकिन ‘अकबर ही भारत है’, ऐसा किसी गुलाम ने भी नहीं कहा लेकिन इंदिरा को भारत और राजीव को विवेकानंद बतानेवालों की क्या कॉंग्रेस में कभी कमी रही है? अपने नेताओं के सम्मान में कोताही करना बिल्कुल अनुचित है लेकिन उन्हें देवाधिदेव बना देना कहॉं तक उचित है? राजनीति ही नहीं, अपने रोजमर्रा के जीवन में भी किसी की थोड़ी अतिरिक्त सराहना यदि उसे आगे बढ़ाती है तो उसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन चापलूसी तो खुद को आगे बढ़ाने के लिए की जाती है| कॉंग्रेस ऐसे ही लोगों का सबसे बड़ा गिरोह है| इसीलिए वह पार्टी नहीं, प्लेटफार्म बन गई है| जो चाहे, वहीं कॉंग्रेस में घुस सकता है| किसी विचारधारा, किसी आदर्श, किसी मर्यादा की जरूरत नहीं है| आपको सिर्फ यह तय करना है कि आपकी चिडि़या कौनसी है और उसकी ऑंख कहॉं है| बस, निशाना साधे चले जाइए| किसी न किसी दिन तीर निशाने पर बैठेगा ही| निशाना उड़ाने के लिए तरह-तरह के तीर हैं लेकिन सबसे बड़ा तीर है, चापलूसी| चापलूसी भारतीय राजनीति का ब्रह्रमास्त्र् है| कॉंग्रेस ने चापलूसी को उच्च-कोटि की ललित कला बना दिया है| वह कला ही नहीं, विज्ञान भी बन गई है| कितनी चापलूसी कहॉं और कैसे करनी चाहिए, इस विद्या के महारथी जितने कॉंग्रेस में पाए जाते हैं, दुनिया की किसी पार्टी में नहीं पाए जाते|
इसका नतीजा क्या होता है? भयंकर होता है| चापलूसी संक्रामक रोग की तरह है| कॉंग्रेस की देखादेखी वह देश की अन्य पार्टियों में भी फैल गई है| भारतीय राजनीति के साठ साल में से लगभग 50 साल कॉंग्रेस का राज रहा है| कॉंग्रेसियों के आचरण ने शेष सभी दलों को प्रभावित किया है| चापलूसी हमारी राजनीतिक संस्कृति का अभिन्न अंग बन गई है| अनुयायी लोग अपने नेताओं की तरह कुर्ता, बंडी, टोपी वगैरह पहनने लगते हैं, भाषण देते वक्त उनकी तरह हाथ-पॉंव फेंकने लगते हैं, उसी ठाठ-बाट और शान-शौकत से रहने लगते हैं| हमारे आज के नेता कोई गॉंधी की तरह नहीं हैं कि उनके सदगुणों को उनके अनुयायी लोग अपने जीवन में उतारें| नेता वैसा आग्रह करते भी नहीं और अनुयायी वैसा करना जरूरी भी नहीं समझते| इसीलिए हमारी राजनीति ऊपर से चमकदार और अंदर से खोखली होती चली जा रही है|
किसी पार्टी के कार्यकर्त्ता में यह दम नहीं कि वह अपने नेताओं से पूछे कि आप इतना पैसा कहॉं से लाए, आपकी इतनी संपत्तियॉं कैसे जुटीं, आप रोज इतना खर्च कैसे करते हैं? आपको व्यभिचार और मद्यपान करते डर नहीं लगता? आप अपनी पत्नी, बेटे-बेटी और भतीजे-भतीजी को हमारी छाती पर सवार क्यों कर रहे हैं? आप फलॉं को प्रदेशाध्यक्ष, फलॉं को महामंत्री, फलॉं को राज्यपाल, फलॉं को मुख्यमंत्री और फलॉं को मंत्री क्यों बना रहे हैं? नेता को सारे अधिकार समर्पित करके हमारे देश के पार्टी कार्यकर्त्ता अपनी बुद्घि को स्थायी तौर पर बिस्तर पर सुला देते हैं| लोकतंत्र् की ओट में नेतातंत्र् पनपने लगता है| उसका आखरी अंजाम होता है, आपात्काल ! अपनी कुर्सी बचाने के लिए नेता अपनी पार्टी, सरकार, संसद और यहॉं तक कि देश को भी दॉंव पर लगा देता है| चापलूसी खुद को तो आगे बढ़ा देती है लेकिन बाकी सबको पीछे ढकेल देती है| चापलूसी का मक्खन राजनीति की राह को इतनी रपटीली बना देता है कि उस पर नेता, पार्टी और देश, सभी चारों खाने चित हो जाते है| चापलूसी का दरवाज़ा खुलते ही प्रश्नों की खिड़कियॉं अपने आप बंद हो जाती हैं|
राजनीति की द्वंद्वात्मकता को समाप्त करने में चापलूसी मुख्य भूमिका निभाती है| चापलूसी ने भारतीय राजनीति को एकायामी बना दिया है| नेता का हित ही पार्टी का हित है, देश का हित है| राजनीति का बस यही मुख्य आयाम है| एक मात्र् आयाम! इस एकायामी चरित्र् ने पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र् को मरणासन्न कर दिया है| यदि पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र् नहीं है तो वह देश में कैसे रह सकता है? संकट की घड़ी में वह धराशायी हो जाता है| यदि संकट न हो तो जैसे-तैसे गाड़ी धकती रहती है| हमारे राज्यपाल जिस तरह के मनमाने और हास्यास्पद निर्णय करते हैं, उनके पीछे क्या रहस्य है? ऐसा नहीं है कि उन्हें उचित-अनुचित का बोध नहीं है| वे सब कुछ जानते हुए भी मक्खी निगलते हैं? आखिर क्यों? इसीलिए कि जिदंगी भर चापलूसी करते-करते हकलाना उनकी जबान का स्थायी-भाव बन गया है| वे अपने विवेक को सोने भेज देते हैं और खुद जी-हुजूरी के खर्राटे खींचते हैं| जिन्हें हम ‘महामहिम’ कहते हैं वे संविधान की हंडियॉं में खुले-आम छेद करते हैं| इससे बड़ा चापलूसी का प्रमाण क्या होगा कि संसद में बैठा पूरा का पूरा सत्तारूढ़ दल आपात्काल पर मुहर लगा देता है और पत्र्कारिता मानहानि-विरोधी विधेयक पारित कर देता है? अगर चापलूसी का साम्राज्य नहीं होता तो कोई माई का एक लाल तो कम से कम अपना हाथ विरोध में खड़ा करता !
राजनीति के इस चापलूसीकरण के कारण ही देश के श्रेष्ठ और स्वाभिमानी लोग राजनीति से परे रहते हैं| राजनीति में घुसने और आगे बढ़ने के लिए दो-दो कौड़ी के नेताओं के आगे इतनी नाक रगड़नी पड़ती है कि जिन लोगों में देश-सेवा की ललक है, वे भी घर बैठना ज्यादा सही समझते हैं| नेतागण केवल उन्हीं लोगों को अंदर घुसने देते हैं और आगे बढ़ाते हैं, जो उनके निजी स्वार्थो की पूति करें| अनेक नामी-गिरामी उद्योगपति, पत्र्कार, फिल्म-अभिनेता और विद्वान भी राजनीति में गए हैं लेकिन उन्हें इसीलिए स्वीकार किया गया है कि वे साफ़-साफ़ या चोरी-छिपे किसी नेता की चमचागिरी करते रहे हैं| उनसे अधिक प्रसिद्घ और उनसे अधिक योग्य लोग अपने घर बैठे हैं| उन्हें राष्ट्रपति संसद में नामजद तक नहीं करते| जो सचमुच सुयोग्य हैं और जिनकी चमड़ी मोटी नहीं है, ऐसे कुछ उद्योगपतियों और अभिनेताओं को सारा देश जानता है| वे चापलूसी की इस नाव से अधबीच में ही उतर गए| हमारी राजनीति गरीब हो गई| राजनीति की इस गरीबी का मूल कारण चापलूसी ही है|
चापलूसी का जलवा देखना हो तो आप राष्ट्रीय राजनीति से भी ज्यादा प्रांतीय राजनीति में देखेंगे| हमारी ज्यादातर प्रांतीय पार्टियॉं कॉंग्रेस की तरह प्राइवेट लिमिटेड कंपनियॉं बन गई हैं| उससे भी आगे बढ़ गई है| बड़े मियॉ तो बड़े मियॉं, छोटे मियॉं सुभानअल्लाह ! पार्टी की विचारधारा, सिद्घांत, घोषणा-पत्र्, कार्यक्रम, नारा -सब कुछ नेता ही है| उस नेता की संतान या पत्नी या प्रेमिका ही पार्टी का उत्तराधिकार सम्हालती है| किसी भी दल, किसी भी विचारधारा, किसी भी गए-बीते नेता, किसी भी हथकंडे को स्वीकार करने में इन दलों को कोई संकोच नहीं होता| जिन्हें ‘जूते मारो चार’ कहा जाता था, उन्हीं के जूते उठाने की चतुराई दिखाई जाती है, जिस नेता की हत्या पर गदगद हुआ करते थे, उसी की पत्नी की सेवा-चाकरी अब भली लगती है, जिस वंशवादी नेतृत्व के विरेाध में पार्टी तोड़ी, अब उसी वंशवाद की बेल को बेशर्मी से सींचा जा रहा है| आखिर क्यो? इसीलिए कि इन प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों का मुनाफा कायम रहे| जातिवाद पर टिकी ये पार्टियॉं लोकतंत्र् का परमपूर्ण विलोम हैं| अपनी इस चालाकी को वे ‘सोश्यल इंजीनियरिंग’ कहती हैं| हमारे कुछ बड़े नेता भी इस शब्द पर फिदा हैं| उनसे पूछें कि यह ‘सोशल इंजीनियरिंग’ है या ‘इलेक्शन इंजीनियरिंग?’ चुनाव जीतने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार हो जाती हैं| हमारी प्रांतीय राजनीति जातिवाद और वंशवाद का सबसे जहरीला मिश्रण है| यह मिश्रण चापलूसी के शहद में लिपटा रहता है|
हमारी आखिल भारतीय राजनीति भी जातिवादी खेल खेलने की कोशिश करती है लेकिन सफल नहीं हो पाती| उसे दूसरे हथकंडे अपनाने पड़ते हैं| कॉंग्रेस समझती है कि वह वंशवाद के कारण ही जिंदा है और बार-बार सत्ता में आती है| यह शुद्घ गलतफहमी है| इसी कारण कॉंग्रेस के बूढ़े शेरों को मेमनों की तरह मिमियाना पड़ता है| चापलूसी के मूल में यही गणित है ! क्या कॉंग्रेसियों को पता नहीं कि नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री आए तो शास्त्रीजी का कद अपने आप कितना ऊंचा हो गया था| मगर उनके नेतृत्व में 1967 का चुनाव होता तो कल्पना कीजिए कि क्या होता? लेकिन उनकी जगह कुछ खुर्राट नेताओं ने वंश के नाम पर इंदिरा गॉंधी को गद्दी पर बिठा दिया| तो क्या हुआ? ज्यादातर राज्यों में कॉंग्रेस हार गई और केंद्र में भी एक लूली-लंगड़ी सरकार बनी| भारतीय जनता ने वंश के आदि-पुरूष नेहरू की पुण्याई को भी नकार दिया| 1971 में इंदिराजी ने जो चुनाव जीता, वह वंश नहीं, खुद के दम पर जीता| 1977 में वे बुरी तरह हारीं| वंश उन्हें बचा नहीं पाया| जनता दल की करतूतों और फूट के कारण वे 1980 में दुबारा सत्तारूढ़ हुईं| 1984 के चुनाव की 410 सीटें राजीव गॉंधी को नहीं, शहीद इंदिरा गॉंधी को मिलीं| यदि वे वंश के कारण मिलीं तो 1989 में भी राजीव गॉंधी इंदिराजी के बेटे ही थे| वे सीटें आधी क्यों रह गईं? 1991 के चुनाव में राजीवजी की शहादत के बावजूद कॉंग्रेस को स्पष्ट बहुमत क्यों नहीं मिला? सोनिया गॉंधी के नेतृत्व में लड़े गए चुनावों में कॉंग्रेस कभी डेढ़ सौ सीटों तक भी क्यों नहीं पहुंची? कुछ सर्वेक्षणों में यह भी पता चला कि सोनिया गॉंधी जिन चुनाव क्षेत्रें में गईं, उनमें से ज्यादातर में कॉंग्रेस हार गई| उत्तरप्रदेश के चुनाव में राहुल का सिक्का चलाकर भी कॉंग्रेस ने देख लिया है| इसीलिए कॉंग्रेस यदि इस गलतफहमी में जीना चाहती है कि वंशवादी नेतृत्व ही उसका उद्घार करेगा तो उसे ऐसी गलतफहमी पालने का पूरा अधिकार है| जिस तर्क से राहुल गॉंधी को पार्टी का महामंत्री बनाया गया है,उसी तर्क से उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाएगा| इसमें बेचारे अर्जुनंसिह और प्रणब दा कि गलती क्या है? उनकी ललित कलाकारी को चापलूसी क्यों कहा जा रहा है? सेठ का बेटा सेठ नहीं बनेगा तो क्या बूढ़े मुनीम को सेठ बनाया जाएगा?
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