R Sahara, 10 July 2003 : किसी भी प्रधानमंत्री की विदेश-यात्रा को एतिहासिक कह देने में किसी का क्या घिसता है? जैसे 1988 में श्री राजीव गॉंधी और 1993 में श्री नरसिंहराव की चीन-यात्राओं को एतिहासिक कहा गया था, वैसे अब श्री अटलबिहारी वाजपेयी की यात्रा को भी एतिहासिक कहकर आगे बढ़ा जा सकता है लेकिन यह यात्रा अनेक अर्थों में सचमुच एतिहासिक रही है| सबसे पहली बात तो यह कि यह किसी पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री की चीन-यात्रा है| गैर-कॉंग्रेसी भी ऐसे वैसे नहीं, भाजपाई गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री ! एक ऐसे प्रधानमंत्री, जिन्होंने विरोधी दल के नेता की तौर पर चीन पर कभी जबर्दस्त आग बरसाई थी, तिब्बत को लेकर लोकसभा सिर पर उठा ली थी, और चीन से अपनी जमीन वापस लेने की क़सम संसद से लिखवा ली थी| यदि अटलजी की जगह जयोति बसु होते या नम्बूदिरिपाद होते या राजेश्वर राव होते तो किसी को क्या फर्क पड़ता? चीन के साथ वे कोई भी समझौता कर लेते तो किसी को कुछ भी आश्चर्य नहीं होता| कांग्रेसी प्रधानमंत्र्िायों से भी चीन के प्रति अधिक कटुता की आशा नहीं की जाती थी, क्योंकि राजीव और राव ने ही बंद दरवाजे़ खोले थे| लेकिन अटलजी ने अपनी चीन-यात्रा के दौरान जो कुछ खोया या पाया, वह सचमुच एतिहासिक है|
ज़रा याद करें कि 24 साल पहले क्या हुआ था| 1979 में विदेश मंत्री की तौर पर अटलजी जब चीन गए तो उन्हें अपनी यात्रा भंग करके भारत लौटना पड़ा था| हमारे विदेश मंत्री के वहॉं रहते हुए चीन ने वियतनाम पर हमला कर दिया था और उसे यह भी कहा था कि जैसा सबक 1962 में हमने भारत को सिखाया था, वैसा अब तुमको सिखाऍंगे| भारत के विदेश मंत्री का इससे बड़ा अपमान क्या होता? यों भी अटलजी की चीन-यात्रा से उस समय सत्तारूढ़ दल के कई महत्वपूर्ण सदस्य खुश नहीं थे| खुद प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई असमंजस में थे| लेकिन अटलजी ने फिर भी हिम्मत की और चीन गए| अब प्रधानमंत्री बनने पर उन्होंने दुबारा उसी क्र्रम को आगे बढ़ाया| दोस्ती का यह बढ़ा हुआ हाथ इस बार चीन ने जरा जमकर थामा और पहली बार दोनों देशों ने संयुक्त बयान जारी किया| संयुक्त बयान सेंत-मेंत में जारी नहीं होता| जब तक दोनों पक्षों में उचित सद्-भाव न हो और मुख्य मुद्दों पर सहमति न हो, संयुक्त वक्तव्य या संयुक्त विज्ञप्ति जारी नहीं किए जाते| संयुक्त बयान का अर्थ यह नहीं कि दोनों पक्ष हर मुद्दे पर सहमत ही होंगे| वास्तव में भारत-चीन संयुक्त वक्तव्य के मूल-पाठ को पढ़ें तो मालूम पड़ता है कि कुछ मुद्दों पर दोनों देश असहमत भी हैं लेकिन इन असहमतियों के बावजूद वे पारस्परिक सद्रभाव और सहयोग के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हैं|
असहमतियों पर आगे बात करेंगे लेकिन यहॉं मूल प्रश्न यह है कि भारत और चीन के बीच इधर पिछले दस वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि दोनों देश एक-दूसरे के इतने पास आना चाहते हैं कि पश्चिमी महाशक्तियों को भी घबराहट होने लगती है? ज़रा हम याद करें कि रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज़ ने चीन के बारे में क्या कहा था और पॉंच साल पहले परमाणु विस्फोट करने के बाद प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति क्लिंटन को जो पत्र लिखा था, उसमें उन्होंने किन-किन देशों को भारत के लिए खतरनाक बताया था| जाहिर है कि चीन को भारत का सशक्त शत्रु समझा जाता था| लेकिन इधर ऐसी अनेक घटनाऍं हुई हैं, जिन्होंने दोनों देशों को निकट आने के लिए बाध्य किया है|
सर्वप्रथम, चीन की नीतियों में मूलभूत परिर्वतन हुए हैं| माओ के बाद दंग स्याओ पिंग ने जो पूंजीवादी पौधे रोपे थे, अब उसकी फसल जोरों से लहलहा रही है| बीस साल पुराना चीन अब पहचाना भी नहीं जा सकता| पिछले दस वर्षों में चीन का इतना जबर्दस्त आधुनिकीकरण हुआ है कि उसकी सड़कें, उसके भवन, उसके सुपर बाज़ार, उसकी होटलें आदि कहीं-कहीं तो अमेरिका को भी मात कर देते हैं| शांघाई पूरब का न्यूयॉर्क बन गया है और शेन-जेन ऐसा लगता है, जैसे पुनर्निर्माण के बाद कभी बर्लिन लगा करता था| चीनी अर्थ-व्यवस्था कभी विश्राम नहीं करती| आठ-आठ घंटों की तीन शिफ्टें लगातार चलती रहती हैं| भारत ने अपनी अर्थ-व्यवस्था अभी दस पहले रूक-रूककर थोड़ी खोली है लेकिन दंग के पूंजीवादी मार्ग ने 1979 से ही चीन का कायाकल्प शुरू कर दिया है| दावा किया जाता है कि चीन में गरीबों की संख्या तीन प्रतिशत भी नहीं है जबकि भारत में वही 40 प्रतिशत के आस-पास है| औसत चीनी नागरिक की आय साढ़े चार हजार रू. महीना है जबकि भारतीय की उससे आधी भी नहीं है| दुनिया के कुल प्यापार में चीन का हिस्सा लगभग पॉंच प्रतिशत है जबकि भारत का एक प्रतिशत भी नहीं है| पिछले साल चीन में 45 अरब डॉलर की विदेशी पॅूजी आई जबकि भारत में केवल 2 अरब डॉलर| भारत के पास विदेशी मुद्रा का केवल 80 अरब डॉलर का कोश है, जबकि चीन के पास 425 अरब डॉलर का ! कहने का अर्थ यह कि वे माओवादी दिन लद गए जब चीन कहता था कि घास खाएंगे और बम बनाऍंगे, सारी दुनिया को लाल रंग में रंग देंगे और जरूरी हुआ तो तीसरा विश्व-युध्दभी लडेंगे| अब चीन का जोर राजनीति की बजाय अर्थनीति पर है| इसीलिए भारत के साथ चीन ने नौ समझौतों पर दस्तखत किए| उनमें से ज्यादातर परस्पर आर्थिक और तकनीकी सहयोग तथा व्यापार बढ़ाने से संबंधित हैं| अभी भारत-चीन व्यापार केवल पॉंच अरब डॉलर का है,जो शीघ्र ही दस अरब डॉलर तक पहॅुच सकता है| जितना माल चीन भारत को बेचता है, उससे कहीं ज्यादा माल भारत चीन को बेचता है| चीनी माल की जो बाढ़ दो-तीन साल पहले भारत में दिखाई पड़ने लगी थी, वह अब थम गई है| भारत अमेरिका और यूरो नहीं है, जहॉं लोग चीज़ें इस्तेमाल करके जल्दी-जल्दी फेंक देते हैं| भारत के लोग सस्ता और टिकाऊ माल चाहते हैं| वास्तव में भारत चीन में न केवल सस्ती और टिकाऊ उपभोग्य वस्तुऍं बड़ेे पैमाने पर खपा सकता है बल्कि वह उसे कच्चा माल भी सस्ते में बेच सकता है| सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भारत चीन को जबर्दस्त सहायता कर सकता है| चीनियों को पता है कि उनके हार्डवेयर के शरीर को यदि भारत की सॉफ्टवेयर की आत्मा मिल जाए तो वे विश्व के कम्प्यूटर मार्केट पर कब्जा कर लेंगे| देखना यही है कि इस सौदे में कहीं भारत मात तो नहीं खा जाएगा| यों भी भारत और चीन एक-दूसरे के लिए दुनिया के सबसे बड़े बाजार बन सकते हैं| भारत का सूचना-उद्योग 50 अरब डॉलर तक पहुच गया है और अब अमेरिकी की बड़ी-बड़ी कम्पनियॉं अपना कम्प्यूटर संबंधी काम भी भारत से ही करवा रही हैं| भारत और चीन मिलकर तीसरी दुनिया के अनेक देशों में संयुक्त उद्योगों की स्थापना भी कर सकते हैं, जैसेा कि एक हद तक सूडान के तेल-क्षेत्र में हो रहा है| विश्व-व्यापार संगठन में संयुक्त-रणनीति की बात दोनों देशों को बहुत निकट ले आएगी ! जैसे मानव अधिकार के सवाल पर दोनों राष्ट्र कई बार कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं, वैसे ही विश्व-व्यापार के विभिन्न मुद्दों पर यदि वे एक राय हो जाऍं तो पश्चिमी राष्ट्रों की दादागीरी का वे आसानी से मुकाबला कर सकते हैं| कृषि, सार्वजनिक स्वास्थ्य, विदेशी विनिवेश और विवाद-समाधान आदि ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर यदि भारत और चीन की बात मान ली जाए तो तीसरी दुनिया का बहुत भला हो सकता है| चीन को यह पता है कि पश्चिमी दुनिया में भारत की कितनी साख है| उसकी विदेश नीति चीन की तरह कभी आक्रामक और झंझटबाज़ नहीं रही| भारत तीसरी दुनिया का लगभग एकछत्र नेता रहा है| दूसरे शब्दों में भारत की साख का इस्तेमाल करके चीन अपनी विश्व-छवि चमकाने की पूरी कोशिश करेगा| चीन और भारत अगर पास आ रहे हैं तो इसलिए कि दोनों इस प्रकि्रया में अपना फायदा देख रहे हैं|
चीन और भारत को निकट लाने में विश्व-राजनीति की भूमिका भी उल्लेखनीय है| सोवियत संघ के विसर्जन के पश्चात अमेरिका-केंदि्रत विश्व-राजनीति में यह संभव नहीं रह गया है कि कोई भी अन्य देश अपनी ढपली अलग बजाए| इसीलिए पिछले कुछ वष्ें से चीन, भारत और रूस के पारस्परिक और त्रिकोणात्मक सद्रभाव में वृद्दि हुई है| तीनों राष्ट्र मिलकर कोई अमेरिका-विरोधी मोर्चा नहीं बना रहे हैं| लेकिन वे एराक़ या अफगानिस्तान या फलस्तीन की तरह अमेरिका की एकतरफा कार्रवाई का लक्ष्य भी नहीं बनना चाहते| इसीलिए संयुक्त वक्तव्य में दोनों पक्षों ने बहुपक्षीय और क्षेत्रीय सहयोग का विशेष उल्लेख किया है| सच्चाई तो यह है कि भारत, चीन और रूस तीनों ही अमेरिका से अपने संबंध बेहतर बनाना चाहते हैं और उसकी क़ीमत भी वे चुका रहे हैं| एराक़ पर उनका बदलता हुआ ढुलमुल रवैया इसका ताज़ा प्रमाण है| भारत और चीन की घनिष्टता से जब तक अमेरिका को सीधा खतरा न होगा, वह कुछ भी आपत्ति नहीं करेगा| लेकिन यह सत्य है कि यदि भारत और चीन सचमुच घनिष्ट हो जाऍं तो इक्कीसवीं सदी एशिया की सदी होगी|
भारत और चीन की घनिष्टता पाकिस्तान को प्रभावित किए बिना नहीं रह सकती| पाकिस्तान को यदि सबसे अधिक भारत-विरोधी सहायता किसी ने दी है तो वह चीन ने दी है| अमेरिका से भी ज्यादा ! अमेरिका का लक्ष्य रूस था और चीन का भारत ! आज भी पाकिस्तान की पीठ पर चीन का हाथ है| चीन की मदद के बिना पाकिस्तान न तो परमाणु बम बना सकता था और न ही अपनी फौजी मांसपेशी फुला सकता था| पाकिस्तान के ग्वादर नामक सामरिक बन्दरगाह का निर्माण भी चीन ही कर रहा है| भारतीय कश्मीर की हजारों वर्गमील ज़मीन भी पाकिस्तान ने चीन को भेंट कर रखी हे| आश्चर्य है कि प्रधानमंत्री ने चीनी नेताओं से पाकिस्तान के बारे में कोई बात क्यों नहीं की| शायद उनकी धारणा यह है कि हमारे आपसी संबंध ज्यों-ज्यों घनिष्ट होंगे, पाकिस्तान के प्रति चीन का मोह घटता चला जाएगा| काश, कि चीनी विदेश नीति इतनी रोमांटिक होती| पाकिस्तान आतंकवाद की अन्तरराष्ट्रीय धर्मशाला बन चुका है और उसका खामियाज़ा चीन अपने सिंक्यांग प्रांत में भुगत भी रहा है, इसके बावजूद वह पाकिस्तान को अपनी छाती से चिपटाए हुए है|
पाकिस्तान के सवाल पर ही नहीं, तिब्बत-समस्या पर भी भारत सरकार ने जरूरत से ज्यादा लिहाज़दारी से काम लिया है| संयुक्त वक्तव्य में यह साफ़-साफ़ कहने की क्या जरूरत थी कि ‘तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र को भारत चीनी लोक गणतंत्र के क्षेत्र का अंग मानता है|’ इतना साफ़ प्रमाण-पत्र तो 1954 में जवाहरलाल नेहरू ने भी नहीं दिया था| यह ठीक है कि विदेश मंत्री बनने के पहले हफ्ते में ही अटलजी के मुंह से लगभग इसी आशय की बात निकल गई थी, जिसकी तीव्र आलोचना हुई थी| उनके बाद किसी भी विदेश मंत्री या प्रधानमंत्री ने तिब्बत को चीन का अंग बताने की हिमाकत नहीं की थी| हॉं, नेहरू की तरह भारत सरकार तिब्बत को चीन का ‘स्वायत्त प्रदेश’ कहती रही| यहॉं ‘स्वायत्त’ का मतलब वह नहीं है, जो लोकतांत्रिक देशों में समझा जाता है| साम्यवादी भाषा में ‘स्वायत्त’ का अर्थ होता है, छोटा और गुलाम ! सभी कब्जाए हुए क्षेत्रों को सोवियत संघ और चीन में ‘स्वायत्त क्षेत्र’ या ‘स्वायत्त गणतंत्र’ कहा जाता रहा है| भारत ने संयुक्त-घोषणा में इसी असलियत को स्पष्ट मान्यता दे दी है| इसके बदले में भारत को क्या मिला? सीमा-व्यापार समझौते या इसी वक्तव्य में चीन ने यह साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहा कि सिक्किम और कश्मीर भारत के अभिन्न अंग हैं| सिक्किम का सवाल एक दिन में हल नहीं हो सकता, यह कहना चीनी प्रधानमंत्री का दुस्साहस ही है| सरकार का यह तर्क अपनी जगह ठीक हो सकता है कि जब दलाई लामा और तिब्बतियों को ही उक्त शब्दावली पर आपत्ति नहीं तो भारतीय लोग आ बैल सींग मार क्यों करें? मुद्दई सुस्त तो गवाह चुस्त क्यों बने? तिब्बती लोग तो शरणार्थी हैं| वे बेचारे क्या कह सकते हैं? भारत सरकार और यह राष्ट्रवादी सरकार तो किसी की शरणार्थी नहीं है| हमें हमेशा यह भी सोचना चाहिए कि तिब्बत का प्रश्न हमारी सुरक्षा, हमारे इतिहास, हमारे हितों और हमारी भावनाओं से भी जुड़ा है या नहीं? इसके अलावा सोवियत संघ के मुस्लिम गणतंत्र यदि अपने आप आजाद हो सकते हैं और अफगानिस्तान का पिंड तालिबान से अचानक छूट सकता है तो तिब्बत भी कभी न कभी आजाद हो ही सकता है| अच्छा तो यह होता कि भारतीय प्रधानमंत्री तिब्बत के साथ-साथ फालुन गोंग के करोड़ों अनुयायियों पर हो रहे अत्याचारों की बात भी उठाते| कूटनीति में विनम्रता का विशेष महत्व है लेकिन किसी भी शब्दकोश में विनम्रता को दब्बूपन का पर्याय नहीं कहा गया है|
कागज पर तिब्बत देकर अगर ज़मीन पर हमें लद्दाख के सभी हिस्से मिल जाते या भविष्य में मिल जाऍं तो भी कुछ न कुछ संतोष हो सकता है लेकिन जो चीन सिक्किम और कश्मीर पर टस से मस होने को तैयार नहीं, वह नई प्रकि्रया के अन्तर्गत भारत को लद्दाख में क्या दे देगा, कुछ समझ में नहीं आता| फिर भी प्रकि्रया तेज करने का निर्णय अच्छा है| सीमा-विवाद हल करने की तीव्र प्रकि्रया के बावजूद यदि चीन अपनी बात मनवा लेता है और तिब्बत भी बिल्कुल बेजान हो जाता है तो अटलजी की इस चीन-यात्रा को कौन एतिहासिक नहीं मानेगा? बल्कि वह भारत-चीन संबंधों के इतिहास की प्रेत-बाधा बन जाएगी| अटलजी को देश का उदार लेकिन सबसे अधिक कमजोर और अल्पदर्शी प्रधानमंत्री माना जाएगा| लेकिन इसका उलट-पहलू यह है कि राजनीति तो जुआ है| जो दॉंव अटलजी ने विदेश मंत्री की तौर पर अधूरा मारा था, उसे पूरा मारने का साहस उन्होंने इस बार किया है| यदि यह सफल हुआ याने भारत-चीन घनिष्टता के कारण चीन-पाक घनिष्टता घटी, कश्मीर और सिक्किम पर चीनी रवैया बदला और लद्दाख के हिस्से हमें वापस मिले तो प्रधानमंत्री की यह यात्रा एतिहासिक ही नहीं, विश्व-इतिहास निर्माता सिद्घ होगी| भारत और चीन की एकता विश्व-इतिहास में नए अध्याय का सूत्रपात कर सकती है, क्या यह तथ्य भी अब किसी को समझाने की जरूरत है?
3 जुलाई 2003
न्यूयार्क
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