R Sahara, 15 Oct 2002 : चुनाव पाकिस्तान का हुआ और नुकसान भारत का ! पाकिस्तान का यह पहला चुनाव है, जिसमें मज़हबी पार्टियों को इतनी जबर्दस्त सफलता मिली है| पिछले पचपन साल में मज़हबी पार्टियों ने हज़ार पापड़ बेले लेकिन संसद में वे कभी दस-पाँच सीटों से ज्यादा नहीं जीत पाईं| इस बार संसद में उन्हें 272 में से 51 सीटें मिली हैं याने वे तीसरी सबसे बड़ी पार्टी हैं| पहली पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (क़ायदे-आज़म) है, जिसे 77 और दूसरी है पीपल्स पार्टी, जिसे 63 सीटें मिली हैं| नवाज़ शरीफ की मुस्लिम लीग को सिर्फ 14 सीटें मिली हैं| 51 सीटोंवाली वाली ‘मुत्तहिदा मज़लिसे-अमल’ पार्टी के धमाके से सिर्फ अमेरिका-प्रेमी चिंतित हैं लेकिन उन्हें पता नहीं कि इन मज़हबी पार्टियों का पहला और स्थायी निशाना भारत है, अमेरिका नहीं|
यह वही पार्टी है, जिसके नेतागण कहा करते थे कि अगर हम भारत जाएँगे तो पैटन टेंक पर बैठ कर जाएँगे| एक पाकिस्तानी जवान तीन हिंदुस्तानियों के बराबर है| भारत ‘दारुल-हरब’ (काफिरों का देश) है| हिन्दू और मुसलमान दो राष्ट्र ही नहीं हैं| भारत नामक इस दूसरे राष्ट्र पर, काफिरों के देश पर उन्हें हुकूमत का अधिकार है| और अपने इस सारे शेखचिल्लीपन का आधार वे कुरान और हदीस के वचनों को बनाते हैं| अब से लगभग 20 साल पहले काज़ी हुसैन अहमद ने लाहौर में मुझसे कहा था कि वे जब तक लालकिले पर हरा झंडा नहीं फहरा लेंगे, चैन से नहीं बैठेंगे| उनके भाषण सुनने के लिए हजारों की भीड़ जमा होती थी, लेकिन वोट उन्हें सैकड़ों में भी नहीं मिलते थे| फरवरी 1998 में अटलजी की लाहौर-यात्रा का भी उन्होंने डटकर विरोध किया था| मीनारे-पाकिस्तान को उन्होंने पानी से धोया था, क्योंकि हिन्दुस्तानी प्रधानमंत्री के पाँव पड़ने से वह नापाक हो गई थी| इन तत्वों को पाकिस्तानी फौज का ‘पालतू कुत्ता’ कहा जाता था| जो काम फौज और सरकार खुद नहीं करना चाहती थी, वह ‘गंदा काम’ इन तत्वों से करवाती थीं| ये ही वे मज़हबी तत्व हैं, जिन्होंने कश्मीर में जिहाद का बीड़ा उठा रखा था| कश्मीरी आतंकवादियों के लिए घर-घर से चंदा इकठ्ठा करना, सीमांत से हथियार लाकर देना और विदेशी आतंकवादियों को कश्मीर में झोंकना – ये प्रमुख कार्य रहे हैं, इन तत्वों के ! तालिबान और कश्मीरी आतंकवादियों के बीच ये ही तत्व सबसे सशक्त सेतु का कार्य करते रहे हैं| ये तत्व भारत-विरोध की रीढ़ रहे हैं|
इन्हें सिर्फ अमेरिका-विरोधी के तौर पर देखना एकांगी होगा| अमेरिका महत्तम शक्ति है, इसलिए विश्लेषकों का ध्यान भारत पर नहीं जाता| इसमें शक नहीं है कि अमेरिका ने जैसे ही तालिबान पर हमला बोला, इन मज़हबी तत्वों ने पाकिस्तान में बवाल खड़ा कर दिया| ज़रा याद करें,, साल भर पहले सरहदी सूबे और बलूचिस्तान में कितने बड़े-बड़े जुलूस निकाले गए थे| अमेरिका ही नहीं, उसके ‘दलाल’ मुशर्रफ पर भी बेपनाह लानत मारी गई थी | इन तत्वों ने मुशर्रफ को दंडित करने की भी धमकी दी थी और मुशर्रफ ने इन तत्वों के खिलाफ़ जिहाद की घोषणा की थी|
अब ये तत्व सिर्फ संसद में ही शक्तिशाली नहीं हो गए हैं, सरहदी सूबा और बलूचिस्तान भी उनकी झोली में चले गए हैं| पश्तून नेताओं की पश्तूनिस्तान-क्षेत्र में जैसी फजीहत इस बार हुई, पहले कभी नहीं हुई| बादशाह खान की बहू नसीम और पोते असफन्दरयार ने अपने अवामी पार्टी के पदों से इस्तीफे दे दिए हैं| पश्तून नेतृत्व का सफाया भारत और अफगानिस्तान के मित्रोें का सफाया है| यह पाकिस्तान में विवेक ही आवाज़ का सफाया है| इसका मूल कारण क्या है ? इस क्षेत्र के पठान और बलूच विदेशी हस्तक्षेप से घोर घृणा करते हैें| जैसे 22 साल पहले उनहोंने रूसी हस्तक्षेप का विरोध किया था, पिछले साल उन्होंने अमेरिकी हस्तक्षेप का विरोध किया| अमेरिकी हस्तक्षेप चाहे अफगानिस्तान में हुआ, लेकिन इन लोगों ने उसे अपने क्षेत्र में हुआ, ऐसा माना| इन लोगों के लिए राजनीतिक-भौगोलिक सीमा कहीं आड़े नहीं आती| पश्तून जहाँ भी रहंे, वह अपना ही क्षेत्र है, ऐसा माननेवाले पठानों ने ‘मुत्तहिदा’ को जिताकर अमेरिका के मुँह पर तमाचा जड़ दिया है| अब यह माना जा सकता है कि तालिबान शासन काबुल से खिसकर पेशावर और क्वेटा में आ बैठा है| अब आप आसानी से समझ सकते हैं कि अमेरिकी सरकार और उसके शिष्य मुशर्रफ तालिबान नेताओं और उसामा बिन लादेन को क्यों नहीं पकड़ पा रहे हैं| इन चुनावों में सांप्रदायिक तत्वों की इज्ज़त इसलिए भी बुलंद हुई है कि पाकिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप को इस्लाम-विरोधी माना जा रहा है| पहले यासर अराफात और अब सद्दाम हुसैन के खिलाफ चल रहे अमेरिकी अभियान के कारण भी ‘मुत्तहिदा’ के वोट बटे हैं| क्या यह आश्यर्चजनक नहीं कि पेशावर के अलावा कराची, लाहौर और यहाँ तक कि इस्लामाबाद से भी ‘मुत्तहिदा’ उम्मीदार जीत गए हैं| दूसरे शब्दों में ‘मुत्तहिदा’ की विजय अफगानिस्तान की हामिद करज़ई सरकार, अमेरिका और भारत तीनों के लिए सिरदर्द साबित होगी|
जहाँ तक मुशर्रफ का सवाल है, उनके लिए ‘मुत्तहिदा’ अभिशाप और वरदान, दोनों ही सिद्घ होगी| अभिशाप इसलिए कि ‘मुत्तहिदा’ सरकार में शामिल हो या विरोध में बैठे, वह लगातार यह माँग करती रहेगी कि पाकिस्तान से अमेरिकी अड्रडे हटाओ, कश्मीर को आज़ाद कराओ तथा पाकिस्तान को ‘निज़ामे-मुस्तफा’ बनाओ| पाकिस्तान के आंतरिक आंतकवादियों को अब खुला जन समर्थन देने में भी इन तत्वों को कोई संतोष नहीं होगा| यह ठीक है कि सत्ता में आने पर इन तत्वों का मिजाज़ कुछ न कुछ हद तक जरूर बदलेगा लेकिन ये मुशर्रफ के लिए खतरा बने रहेंगे| यही तथ्य मुशर्रफ के लिए वरदान साबित होगा| मुशर्रफ अमेरिका और पश्चिमी जगत को बताएँगे कि उनके आड़े वक्त काम आनेवाला यह मित्र अब कितने बड़े खतरे का सामना कर रहा है| यदि मुशर्रफ उलट गए तो पाकिस्तान की छाती पर जिहादी चढ़ बैठेंगे| अमेरिकियों को डराए रखने के लिए मुशर्रफ ने स्थायी ‘एलार्म बेल’ का इन्तजाम कर लिया है| बेनज़ीर भुट्टो ने इसीलिए आरोप लगाया है कि पश्तूनिस्तान और बलूचिस्तान में मज़हबी तत्वों को खुद मुशर्रफ ने हवा दी है| ‘मुत्तहिदा’ अब मुशर्रफ के कवच का काम करेगी| याने ‘मुत्तहिदा’ बढ़ी तो अब मुशर्रफ की कीमत भी दुगुनी हो गई|
अमेरिकी नज़र में मुशर्रफ की क़ीमत बढ़ जाने से पाकिस्तान को आर्थिक लाभ तो होगा लेकिन उसकी आंतरिक राजनीति में विग्रह फैल जाएगा| मुशर्रफ-समर्थक पार्टी याने मुस्लिम लीग (क़ायदे-आज़म) को संसद में 77 सीटें जरूर मिली हैं| वह सबसे बड़ी पार्टी भी है लेकिन वह बेनज़ीर की पीपल्स पार्टी या ‘मुत्तहिदा’ से गठबंधन किए बिना सरकार नहीं बना सकती| यदि पीपल्स पार्टी से उसका गठबंधन हुआ तो उसका भारत-विरोध मुखर नहीं हो सकता और ‘मुत्तहिदा’ के साथ हुआ तो वह अमेरिका का स्पष्ट समर्थन नहीं कर पाएगी| उसकी यूँ भी मरण है और यूँ भी मरण हैं| मुशर्रफ की कश्ती कभी साहिल और कभी तूफान से टकराती रहेगी| यदि उनकी सरकारी पार्टी को बहुमत मिल जाता तो उनके हाथ बहुत मजबूत हो जाते| सबसे पहले वे अमेरिकियों की खुशामद करते याने मज़हबी तत्वों पर टूट पड़ते और फिर भारत के साथ सीना तानकर बात करते| उन्हें कश्मीर के किसी हल की शायद उम्मीद बँध जाती लेकिन पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति का जैसा कचूमर बन गया है, उसे देखते हुए अब लगता है कि कश्मीर का मसला भी लंबा खिंच जाएगा| इस गड़बड़झाले में आशा की एक किरण जरूर है| वह यह कि कमजोर प्रधानमंत्री और बँटी हुई संसद के चलते मुशर्रफ अपने आप मजबूत बने रहेंगे| संविधान में 29 संशोधन करके तथा राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद्र बनाकर सारे सर्वोच्च अधिकार उन्होंने अपनी जेब में पहले से डाल लिये हैं| यह लंगड़ी संसद उनमें संशोधन कैसे कर पाएगी ? दूसरे शब्दों में भारत सरकार को मूलत: राष्ट्रपति मुशर्रफ से ही निपटना होगा| किसी भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की यह हैसियत नहीं होगी कि वह अपनी मर्जी से कोई पहल कर सके| बैसाखियों पर घिसटते हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से भारत क्या बात करेगा| ये चुनाव उसे यह बहाना भी न दे पाए कि वह फौजी से नहीं, किसी लोकतांत्र्िाक सरकार से ही बात करेगा| ‘मुत्तहिदा’ की जल्वागरी के कारण अब सीमा-पार आतंकवाद के घटने की संभावना भी कम हो गई है|
ऐसी स्थिति में हमारी जड़भरत विदेश नीति पर तुरन्त पुनर्विचार की जरूरत है| सिर्फ मुशर्रफ से ही नहीं, पाकिस्तानी राजनीति के हर महत्त्वपूर्ण तत्व से सीधा सम्वाद होना चाहिए| यह सम्वाद अकेली सरकार के बस की बात नहीं| लेकिन यह रहस्य हमारी सरकार को समझाना किसके बस की बात है ? इस्लामाबाद में हमारे दूतावास की हालत किसी पाँच सितारा कैदखाने की तरह होती है| वहाँ आने-जानेवाले पाकिस्तानियों पर कड़ी नज़र रखी जाती है और हमारे राजनयिक पाकिस्तानियों से खुलकर मिल नहीं पाते| इसके अलावा सियासी मज़हबी नेतागण भारतीय दूतावास से सम्पर्क खुलकर रखना उचित नहीं समझते| इसीलिए उनके दिल में बोए गए ज़हर की कभी काट नहीं होती| वही हजारगुना होकर जनता में फैलता रहता हैं| जब तक पाकिस्तानी जनता के मन से गलतफहमियाँ दूर नहीं होंगी, नेता लोगों के गलबहियाँ डालने से यह ज़हर नहीं उतरेगा| इस ज़हर के लिए भारत के प्रचारतंत्र ही नहीं, पाक-विशेषज्ञों, पत्रकारों, विद्वानों, कलाकारों और वैज्ञानिकों का भी सदुपयोग बड़े पैमाने पर किया जा सकता है| लेकिन यह सब तभी हो सकता है, जबकि भारत सरकार की अपनी कोई सुविचारित रणनीति हो|
सीमा पर फौजें तैनात कर देने से क्या होता है ? कुछ नहीं| अगर होता है तो यही कि करोड़ों रुपए रोज़ का नया खर्च देश के मत्थे मढ़ जाता है और सीमापार आतंकवाद से मरनेवालों की संख्या बढ़ती चली जाती है| सिर्फ गीदड़भभकियाँ देने से भी काम नहीं चलता| इधर से भभकी जाती है तो उधर से गुर्राहट आती हैं| हम समझते हैं कि बुश या ब्लेयर टेका लगा देंगे| वे भी रामाय स्वस्ति, रावणाय स्वस्ति कहकर पिण्ड छुड़ा लेते हैं| उनका कुछ नहीं बिगड़ता, हमारा कम्बल गीला होता जाता हैं| हमें यह भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि कश्मीर पर पाकिस्तान कोई पहल नहीं कर सकता| कश्मीर का तवा गरम रहता है तो उसकी दुकान चलती रहती है| ‘उम्मा’ याने जगतव्यापी इस्लाम की सामुदायिक भावना के नाम पर वह मालदार इस्लामी देशों को दुहता रहता हैं| उसे आतंकवाद बढ़ाने के लिए इस्लामी देश पैसा देते हैं तो आतंकवाद घटाने के लिए पश्चिमी देश देते हैं| वह दोनों हाथों से उलीच रहा है| ऐसी स्थिति में पहल तो भारत को ही करनी होगी| कश्मीरी चुनावों ने वह स्वर्णिम अवसर उत्पन्न कर दिया है| कश्मीरियों के साथ-साथ पाकिस्तानियों से भी बात की जाए और बातों से बात न बने तो आपकी लात तो सही-सलामत है ही ! लेकिन इससे बड़ी जड़ता क्या होगी कि आप न तो लात चलाएँ और न ही बात चलाएँ|
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