R Sahara, 20 April 2003 : भारत के समान छुट्टी-प्रेमी देश दुनिया में कोई दूसरा नहीं है| जिस देश में 365 दिन में से पूरे 202 दिन की पक्की छुट्टी रहती हो, वह उन्नति कैसे करेगा? वह महाशक्ति कैसे बनेगा? काम के कुल 163 दिन में भी हम लोग कितना काम करते हैं? सरकारी दफ्तरों में तो अक्सर चार-छह घंटे रोज भी काम नहीं होता| यदि कोई सरकार छुट्टी के दिन पूरे साल में सिर्फ 100 कर दे और आठ घंटे की कड़ी मेहनत करवाए तो इस देश की विकास दर अपने आप 12 प्रतिशत हो जाए| यह छोटा-सा प्रगति-सूत्र है लेकिन इसे लागू कौन करे? इस समय हर शनिवार-इतवार सरकारी दफ्तर बंद होते हैं याने साल में 104 दिन की छुट्टी ! 26 छुट्टियॉं राष्ट्रीय और धार्मिक त्यौहारों के बहाने| 30 छुट्टियॉं हर नौकरी में होती ही हैं| 12 आकस्मित अवकाश और 30 बीमारी की छुट्टियॉं| इस छुट्टियों की संख्या काटकर आधी आसानी से की जा सकती हैं| शनिवार की 52 छुट्टियॉं खत्म हों| 26 राष्ट्रीय और धार्मिक छुट्टियों की जगह केवल 12 आकस्मिक अवकाश रखे जाऍं| याने जिस व्यक्ति को जो त्यौहार बहुत पसंद हो, उस दिन वह आकस्मिक अवकाश ले ले| किसी खास वर्ग का त्यौहार सब पर क्यों थोपा जाए| इसी प्रकार रुग्णावकाश को भी घटाकर 30 की बजाय 15 किया जाए याने सरकार चाहे तो 93 छुट्टियॉं एक दम काट सकती है| लेकिन लोकतांत्रिक सरकारें ऐसे काम तभी कर सकती हैं, जबकि उनके पास सच्चे नेता हों याने ऐसे नेता, जो अपने आचरण से आम जनता को प्रेरित कर सकें| उसका रास्ता बदल सकें| आजकल जो नेता हैं, वे जनता के पिछलग्गू हैं| जनता के भी नहीं, उन लोगों के पिछलग्गू हैं, जो वोट-बैंकों के सरगना हैं| किसी तबके ने ज़रा-सा दबाया कि चट, छुट्टी घोषित कर दी| इसीलिए देश में किसी जबर्दस्त जन-आंदोलन की जरूरत है, जो छुट्टियों की छुट्टी करा दे|
पं. सुधाकर पाण्डे के महाप्रयाग की खबर दुखद है| नागरी प्रचारिणी सभा को उन्होंने कई दशकों से अपने कंधों पर उठा रखा था| वे और उनका परिवार इसे नहीं संभालते तो शायद हिंदी की कई अन्य महान संस्थाओं की तरह यह भी काल-कवलित हो जाती| अपने व्यक्तिगत प्रभाव से सुधाकरजी ने सभा के लिए लाखों-करोड़ों रुपए प्राप्त किए, अनेक दुर्लभ गं्रथ छपवाए, पत्रिका को बंद नहीं होने दिया और हिंदी के लिए बराबर आवाज़ लगाते रहे| अगर वे राजनीति में नहीं पड़ते तो शायद हिंदी का संघर्ष ज्यादा ज़ोर से चलाते| वे राज्यसभा और लोकसभा दोनों में रहे| कॉंग्रेस में रहे, इसलिए उन पर मर्यादा तो थी लेकिन अगर वे राजनीति में नहीं रहते तो पता नहीं सभा के लिए जितना कर पाए, उतना भी कर पाते या नहीं| सुधाकरजी का जाना हिंदी-जगत की गहन-क्षति तो है ही !
एराक के वैकल्पिक नेता अहमद चलाबी ने साफ-साफ कह दिया कि वे भारत के लोकतंत्र को आदर्श मानते हैं| सद्दाम के बाद का एराक भारत के नमूने पर ढाला जाना चाहिए| उन्होंने अमेरिका का नाम क्यों नहीं लिया? क्या अमेरिका में लोकतंत्र नहीं है? है तो सही लेकिन वह अध्यक्षात्मक है याने सत्ता के केंद्र राष्ट्रपति हैं| यही सबसे बड़ा खतरा है| अमेरिका में राष्ट्रपति सत्ता का केंद्र जरूर है लेकिन उस पर सीनेट और न्यायालय का अंकुश लगातार बना रहता है जबकि एराक जैसे राष्ट्रों में इस अंकुश के निष्प्रभावी होने की संभावना सदा बनी रहती है| शक्तिमान राष्ट्रपति, कब सर्वशक्तिमान तानाशाह बन जाएगा, कुछ पता नहीं| यही डर अफगानिस्तान में बना हुआ है| अफगानिस्तान के नए संविधान का मसविदा लगभग तैयार हो चुका है| सुना है कि वह अमेरिकी ढर्रे पर बना है लेकिन पिछले दिनों जब काबुल में जाहिरशाह, राष्ट्रपति करज़ई और पूर्व राष्ट्रपति रब्बानी से बात हुई तो उन्हें तुरंत समझ में आ गया कि भारतीय शासन प्रणाली अफगानिस्तान (और अब एराक) के लिए कितनी फायदेमंद है|
क्या यह अजूबा नहीं कि एराक की शासन प्रणाली तो भारत-जैसी हो लेकिन नए एराक के निर्माण में भारत का कोई खास योगदान न हो| अमेरिका और विश्व-समुदाय बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं| भारत की उपेक्षा उन्हें बहुत महंगी पड़ेगी| भारत को एराक में बड़े-बड़े काम करने का अनुभव है| एराकी लोग भारतीयों को बहुत पसंद करते हैं और भारतीय निर्माण-कार्य बहुत सस्ता पड़ता है| अमेरिकियों के मुकाबले भारतीय लोग एक-चौथाई कीमत पर कोई भी काम पूरा कर देते हैं| अफगानिस्तान में ज्यादातर काम अमेरिकियों ने झपट लिए हैं| नतीजा क्या है? अफगानिस्तान में कुछ नया बनता हुआ दिखाई ही नहीं पड़ रहा है| जो 10 हजार करोड़ रु. बाहर से आया है, उसका 70 प्रतिशत तो वेतन और भत्तों में ही खर्च हो गया है| एराक में भी यही कहानी दोहराई गई तो उसके परिणाम अफगानिस्तान से अधिक भयंकर होंगे, क्योंकि एराक में तेल के नहीं, डॉलर के कुऍं हैं| अब जो लूट अमेरिकी मचाएंगे, उसके आगे आजकल की एराकी लूट-पाट पानी भरेगी|
एराक में चल रही लूट-पाट के कारण एराक नहीं, मानव-जाति की हानि हो रही है| मानवीय सभ्यता के प्राचीनतम अवशेष एराक के राष्ट्रीय संग्रहालय में बड़े जतन से रखे हुए थे| इटली के वेटिकन, लंदन के बि्रटिश और पेरिस के लूव्र म्यूजियम से भी अधिक मूल्यवान वस्तुऍं एराक़ के संग्रहालय में थीं| इस संग्रहालय को तीन बार देखने का अवसर मुझे मिला है| भारत और एराक की प्राचीन घनिष्टता के प्रमाण-स्वरूप अत्यंत दुर्लभ पुरातात्विक अवशेष भी लुट चुके हैं| नज़फ और कर्बला जैसे धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण तथा बेबीलोन के ‘झूलते हुए बगीचे’ जैसे इतिहास के खजानों पर भी आक्रमण हुए हैं| सिर्फ एराकी तेल पर कब्जा करने के लिए अमेरिका ने मानव-सभ्यता का तेल निकाल दिया है| 200 साल पुराने अमेरिका को क्या पता कि हजारों वर्ष पुरानी सभ्यताओं का महत्व क्या है| उसने संग्रहालयों को लुटने से बचाया क्यों नहीं? सेमुअल हटिंगटन चाहे अमेरिका-एराक द्वंद्व को सभ्यताओं का संघर्ष कहे लेकिन वास्तव में यह सभ्यता से असभ्यता का संघर्ष सिद्घ हो रहा है|
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