दैनिक भास्कर, 13 फरवरी 2002 : पिछले कुछ हफ्ते भारतीय विदेश नीति के लिए बहुत चुनौतीभरे रहे हैं| इस तरह की चुनौती का समय अब से ठीक 22 साल पहले भी आया था| अफगानिसतान पर रूसी कब्ज़े के बाद जनवरी-फरवरी 1980 में दुनिया के महत्वपूर्ण देश यह जानना चाहते थे कि भारत किधर है, रूस की तरफ या अमेरिका की तरफ ? नए शीतयुद्घ का समारंभ हो चुका था| रूस और अमेरिका की रणभेरियाँ दुबारा बजने लगी थीं| दुनिया दुबारा दो खेमों में बँटने लगी थीं| इस बार अमेरिका और नाटो देशों के साथ चीन भी खड़ा हुआ था लेकिन भारत की दशा अजीब थी| वह अमेरिका के साथ बिलकुल नहीं था लेकिन रूस का साथ न देते हुए भी रूस के साथ था| उस समय भारत के नीति-निर्माताओं ने जो निर्णय किया, वह कहाँ तक सही था, इस मुद्दे पर लंबी बहस की जरूरत है लेकिन वह कहीं और की जाएगी| फिलहाल असली सवाल यह है कि अब अफगानिस्तान पर ‘अमेरिकी कब्जे’ के बाद भारत क्या करे ? क्या भारत पूरी तरह अमेरिका की हाँ में हाँ मिलाए या अमेरिका अगर दादागिरी करे तो क्या उसके मुकाबले रूस, चीन और भारत का संयुक्त मोर्चा खड़ा करे ? भारत अपने हितों की रक्षा कैसे करे ?
यहाँ सबसे पहली बात तो यह स्पष्ट होनी चाहिए कि रूसी कब्जे और अमेरिकी कब्ज़े में क्या अंतर है ? अफगानिस्तान में जो रूसी कब्ज़ा हुआ था, उसका मूल कारण अफगान कम्युनिस्ट पार्टी की अंदरूनी लड़ाइयाँ थीं और उसके साथ-साथ यह भय भी था कि हफीजुल्लाह अमीन का अफगानिस्तान कहीं अमेरिकी खेमे में न चला जाए| तालिबान के बारे में इस तरह का कोई भय नहीं था| तालिबान का कोई बाहरी ठौर न था| पाकिस्तान उसका ठौर बन सकता था लेकिन पाकिस्तान अमेरिका के इशारे पर अपने ही बच्चे का गला दबाने को राजी हो गया| इसीलिए अमेरिकी हमला किसी प्रतिद्वंद्वी शक्ति के संभावित कब्ज़े को रोकने के लिए नहीं हुआ था| वह हुआ था, आतंकवाद का मुकाबला करने के नाम पर ! इस हमले का सभी राष्ट्रों ने समर्थन किया| भारत ने भी स्पष्ट समर्थन किया| यह हमला अफगानिस्तान पर नहीं, तालिबान पर था| ऐसी स्थिति में भारत अब भी अमेरिका का समर्थन करे तो इसमें एकाएक कोई बुराई दिखाई नहीं पड़ती| अमेरिका ने अफगानिस्तान पर उस तरह कब्ज़ा नहीं कर रखा है, जैसे कि सोवियत संघ ने किया था| अफगानिस्तान की वर्तमान व्यवस्था संयुक्तराष्ट्र की देख-रेख में चल रही है| हामिद करज़ई कोई बबरक कारमल नहीं हैं| लेकिन इसमें क्या सन्देह है कि आने वाले कुछ वर्षों में अफगानिस्तान पर अमेरिका का प्रभाव बना रहेगा| जब तक अफगानिस्तान अपने पाँव पर खड़ा नहीं हो जाता, उसे अमेरिका की सख्त जरूरत रहेगी| अभी तोक्यो में अफगान मित्र्-राष्ट्रों की जो बैठक हुई, उसमें अमेरिका और उसके साथी राष्ट्रों ने उदारतापूर्वक दान दिया जबकि रूस ने कुछ भी नहीं दिया| अमेरिका के प्रभाव को संतुलित करने के लिए यदि रूस, चीन और भारत मिलकर कोई संयुक्त मोर्चा भी बना लें तो वह सफल नहीं हो पाएगा| इसीलिए भारत को अफगानिस्तान में अमेरिका की प्रमुखता स्वीकार करने में फिलहाल कोई संकोच नहीं होना चाहिए|
लेकिन यहाँ सबसे जटिल समस्या यह है कि अमेरिका किसे प्रमुखता देगा ? भारत को या पाकिस्तान को ? जाहिर है कि अफगानिस्तान में वह पाकिस्तान के मुकाबले भारत को प्रमुख नहीं मान सकता| इसके चार खास कारण हैं| पहला, तालिबान की धुनाई में पाकिस्तान ने अमेरिका की मदद की है| दूसरा, मध्य एशिया के गैस और तेल को अफगानिस्तान के ज़रिए हिंद महासागर तक पहुँचाने में जो मदद पाकिस्तान कर सकता है, वह भारत नहीं कर सकता| तीसरा, कमज़ोर राष्ट्र होने के नाते पाकिस्तान अमेरिका के इशारों पर जिस तरह नाच सकता है, भारत नहीं नाच सकता| चौथा, अफगानिस्तान और पाकिस्तान लगभग जुड़वाँ भाइयों की तरह हैं और उनके राग-द्वेष इतने गहरे हैं कि उन्हें अपने संबंध सहज बनाने के लिए अभी कुछ समय तक अमेरिका जैसे मध्यस्थ की काफी जरूरत रहेगी| और मध्यस्थ के तौर पर अमेरिका पाकिस्तान को दरकिनार नहीं कर पाएगा| ऐसी स्थिति में भारत को जलन न हो, यह जरूरी है| अगर हो भी तो वह क्या कर सकता है ? रूस और चीन के ज़रिए वह अफगानिस्तान में तुरंत अपना कोई खेल नहीं खेल सकता लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह अफगानिस्तान के बाहर भी अमेरिका से दबने लगे| यह ठीक है कि अमेरिका के साथ पहली बार उसका सामरिक सम्वाद शुरू हुआ है और अपनी विश्व-राजनीति में अमेरिका जिस स्तर पर भारत को रखता है, उस पर पाकिस्तान को नहीं रखता लेकिन इसकी फलश्रुति यह नहीं होनी चाहिए कि भारत कश्मीर पर हकलाने लगे, ईरान पर अमेरिकी हमला हो तो भारत चुप्पी खींच जाए, पाकिस्तान अगर मध्य एशिया में दादागीरी शुरू करे तो भारत मूक-बधिर की तरह देखता रहे और अमेरिका भारत की अर्थ-व्यवस्था और समाज-व्यवस्था पर भी हावी हो जाए| अफगानिस्तान में भी भारत के जायज़ हितों को मान्यता देने में अगर अमेरिका कोताही करेगा तो भारत को अपनी कूटनीतिक कलाबाज़ी दिखानी होगी| भारत को यह भी देखना होगा कि कहीं अमेरिका, पाकिस्तान और अफगानिसतान मिलकर अपनी खिचड़ी अलग न पकाने लगें| यह भी असंभव नहीं कि मध्य एशिया और अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका, चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में कोई चतुष्कोणी समझ पैदा हो जाए| यदि वैसा होने लगे तो इस क्षेत्र् में भारत को वैकल्पिक कूटनीतिक व्यवस्था करनी ही होगी|
अभी जो भारत, रूस और चीन के त्र्िकोण की बात चल पड़ी है, यह भारत के लिए हितकर ही है| भारत अपने सारे सिक्के एक ही गुल्लक में क्यों रखे ? भारत के लिए बिल्कुल शोभा नहीं देता कि वह अमेरिका का पिछलग्गू-सा लगने लगे| वह दक्षिण एशिया की क्षेत्र्ीय महाशक्ति है, परमाणु-शक्ति है, गुट-निरपेक्ष समूह का नेता है और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र् है| उसका अपना भवितव्य है| अगर वह रूस और चीन जैसी अन्य क्षेत्र्ीय महाशक्तियों के साथ आर्थिक और सामरिक सहयोग के नए आयाम खोलता है तो इससे अमेरिका को कौनसा खतरा है ? यदि त्र्िपक्षीय सहयोग ठोस रूप धारण करेगा तो उसका पहला परिणाम तो यही होगा कि क्षेत्र्ीय विवादों में कुछ पक्षों को जो शै मिल जाती है, वह घट जाएगी| जैसे कश्मीर पर पाकिस्तान को चीनी समर्थन पहले से कम तो हो ही चुका है, अगर बिल्कुल बंद हो जाए तो दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय शांति लगभग मुकम्मल हो जाएगी, जो कि अमेरिकी विदेशी-नीति का सबसे प्रमुख घोषित लक्ष्य है| इसके अलावा रूस, चीन और भारत में सहकार बढ़ेगा तो तीनों देश अपेक्षाकृत अधिक समृद्घ और खुशहाल होंगे| स्थिरता और लोकतंत्र् के लिए इससे बढि़या नुस्खा कौनसा है ? ये तीनों महाशक्तियाँ जब परस्पर सहकार की मुद्रा में होंगी तो क्या पाकिस्तान का बर्ताव गली के उद्दंड छोकरे की तरह ही बना रहेगा ? क्या ये शक्तियाँ उसके व्यवहार को बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करेंगी ? जनरल मुशर्रफ की ताज़ा घोषणाओं से यह तो मालूम पड़ता है कि पाकिस्तान ‘राग कश्मीर’ का अलापना अभी बंद नहीं करेगा लेकिन उसने अब अपने अंदर झाँकना शुरू कर दिया है| अगर पाकिस्तान कुछ समय तक आत्म-विश्लेषण करेगा तो उसका समाज जरूर बदलेगा| यह भावना की बजाय तर्क, प्रचार की बजाय तथ्य और संघर्ष की बजाय समन्वय की बोली अपने आप बोलने लगेगा|
ऐसा नहीं है कि भारत, रूस और चीन के त्रिकोण में तीनों कोने खूब घिसे हुए, चिकने और एक-दूसरे के साथ पूरी तरह फिट हैं| यदि मध्य एशिया में रूसी और चीनी हितों में प्रतिस्पर्धा है तो भारत-चीन सीमा-विवाद अब भी अधर में लटका हुआ है| तिब्बत की समस्या अपनी जगह खड़ी हुई है ही ! इसके अलावा पाकिस्तान के साथ चीन के संबंध अब भी बहुत गहरे हैं| पाकिस्तान अमेरिका से भी ज्यादा चीन पर निर्भर है| वह भारत के विरुद्घ चीनी कार्ड सदा ही खेलता रहा है| उसने 1963 के समझौते में चीन को भारत की हजारों वर्गमील की कश्मीरी ज़मीन भेंट कर रखी है| चीन इस अहसान के नीचे तो दबा ही हुआ है, उसे सातवें दशक में अमेरिका के नज़दीक लाने में पाकिस्तान ने बहुत सार्थक भूमिका भी निभाई थी| आज पाकिस्तान की सैन्य और परमाणु शक्ति की रीढ़ चीन ही है| ऐसी स्थिति में भारत-चीन-रूस का त्रिकोण एकदम दौड़ने लगेगा, यह संभव नहीं है लेकिन धीरे-धीरे वह आगे तो बढ़ ही सकता है| रूस और भारत की दोस्ती में शैथिल्य के जो दस साल बीच में आ गए थे, वे अब इतिहास के संग्रहालय में चले गए हैं| दोस्ती का पुराना जलवा जोरों से लौट रहा है और उधर चीन के साथ भी अब रूस की न तो सैद्घांतिक उठा-पटक होती है और न ही उसूरी नदी के सीमांत पर तोपें गड़गड़ाती हैं| रूस-चीन आर्थिक और सैन्य सहयोग के अनेक नए आयाम खुल रहे हैं| दोनों राष्ट्रों की हजारों मील लंबी सीमाएँ सहयोग के नए-नए द्वार खोल रही हैं| ऐसी स्थिति में भारत केवल अमेरिका के साथ सटा रहे, यह संभव ही नहीं है|
भारत, रूस, चीन सहकार का सबसे सकारात्मक राजनीतिक पहलू यह है कि यदि अमेरिका अपनी ताकत के घमंड में चूर होकर मध्य एशिया या दक्षिण एशिया में कोई अन्यायकारी कदम उठाएगा तो दुनिया की लगभग आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करनेवाले ये तीनों राष्ट्र एक साथ ईमान की आवाज़ उठाएँगे| अमेरिका सही रास्ते पर चलता रहे, इसके लिए भी यह जरूरी है कि यूरेशिया की इन तीनों महाशक्तियों में गहरा सहकार बना रहे| तीनों शक्तियाँ मिलकर कोई गुट नहीं बना रही हैं, यह भारत पहले ही कह चुका है लेकिन यदि भारत चाहे तो वह अपनी विदेश नीति में ऐसा लचीलापन ला सकता है कि उसके हितों पर चोट होते ही वह पैंतरा बदल सके और मध्यम शक्ति होते हुए भी महाशक्तियों को नाकों चने चबवा सके| इस दृष्टि से हमारी विदेश नीति फिलहाल सही पटरी पर चल रही है| भारत चाहे तो ऐसी परिस्थतियाँ उत्पन्न कर सकता है कि दक्षिण और मध्य एशिया में चारों महाशक्तियाँ एक-दूसरे के साथ सहयोग करने लगें| किसी भी गुट में शामिल हुए बिना और किसी का पिछलग्गू बने बिना भारत यह कार्य अधिक आसानी से कर सकता है|
Leave a Reply