दैनिक भास्कर, 19 अक्तूबर 2013 : सीबीआई के बारे में कहा जाता है कि यह विरोधियों को फंसाने का सबसे बड़ा तंत्र है, लेकिन इस बार सीबीआई ने ऐसा दांव मारा है कि सरकार तो सरकार, उसके सरताज यानी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी उसके जाल में फंसते नजर आ रहे हैं। कोयला-घोटाले पर अपनी 14वीं एफआईआर में सीबीआई ने ‘हिंडालको’ के आदित्य बिड़ला ग्रुप और पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख को फंसाया है लेकिन पारेख ने कहा है कि बिड़ला को कोयला-खदान देने का दोष यदि उनका है तो उनसे बड़ा दोष तो प्रधानमंत्री का है, क्योंकि उस समय वे ही कोयला मंत्री थे। उनके दस्तखत के बिना पारेख की सिफारिश की कोई कीमत नहीं होती।
कोयला-खदानों की बंदरबांट में सरकार को लगभग दो लाख करोड़ रुपए का अनुमानित घाटा हुआ है। इस घाटे या लूटपाट को अनावृत्त करने का काम सर्वोच्च न्यायालय के मार्गदर्शन में सीबीआई कर रही है। कोयले की इस खोज-पड़ताल में अब तक देश के अनेक जाने-माने उद्योगपतियों का मुंह काला हो चुका है। उनमें से कई कांग्रेस के सांसद भी हैं। उन पर शक है कि उन्होंने खदानों की नीलामी की प्रस्तावित नीति को उलटवा दिया। उसके बदले उन्होंने मनमाने ढंग से खदानें अपने नाम करवा लीं।
इस प्रक्रिया में अफसरों और नेताओं को लाखों-करोड़ों की रिश्वत मिलने का पूरा अंदेशा है। कोयला मंत्रालय के राज्य मंत्रियों को मंत्रिपद से हाथ धोना पड़ा है और उनकी जांच भी हो रही है। कोयला-खदानें बांटते वक्त यह ध्यान भी नहीं रखा गया कि जिन्हें खदानें दी जा रही है, वे उस कोयले का क्या करेंगे? उनके कारखाने हैं या नहीं, उन्हें कोयले की जरूरत है या नहीं, वे कोयला खोदकर निकाल भी सकते हैं या नहीं? इन सब कसौटियों को भी कई मामलों में ताक पर रख दिया गया था। कई ऐसे उद्योगपतियों को खदानें दे दी गईं, जिनका एक मात्र लक्ष्य उनको कई गुना दाम पर बेचकर अंधाधुंध मुनाफा कमाना था। ज्यादातर खदानों में अभी तक खुदाई शुरू भी नहीं हुई है, लेकिन खदानें खुदें या न खुदें, सरकार की कब्र खुदना शुरू हो गई है।
कोयला खदानों को लेकर सरकार इतनी बदनाम हो गई कि बेचारे प्रधानमंत्री को टीवी और रेडियो चैनलों पर आकर सफाई देनी पड़ी। संसद में जबर्दस्त हंगामा हुआ और सांसदों ने शिष्टता की मर्यादा भी नहीं रखी। उन्होंने ‘प्रधानमंत्री चोर हैं’ जैसे उत्तेजक नारे भी लगाए। अभी जैसे ही आदित्य बिड़ला ग्रुप के कुमारमंगलम बिड़ला का नाम उछला, सारे उद्योग-जगत में बेचैनी फैल गई। अनेक उद्योगपतियों का कहना है कि बिड़ला-परिवार को बदनाम करने का यह सीबीआई का पैंतरा आत्मघाती सिद्ध होगा। इससे अनेक उद्योगपति हतोत्साहित होंगे।
कुमारमंगलम बिड़ला को आरोपी बनाने का अप्रत्यक्ष अर्थ यह है कि उन्होंने अफसरों को मोटी रिश्वत दी होगी और जो ओडिशा की तलवीरा-2 खदान उनको दी गई है, उसके पीछे कोई न कोई भारी षड्यंत्र होगा। सीबीआई का कहना है कि उसके पास ठोस प्रमाण हैं, जिनके आधार पर उसने कुमारमंगलम के खिलाफ ‘प्रथम सूचना रपट’ लिखवाई है और उनके दफ्तरों पर छापे मारे हैं। उसका दावा है कि ‘हिंडालको’ के दिल्ली दफ्तर से उसने 25 करोड़ रुपए का नकद काला धन भी पकड़ा है और कई आपत्तिजनक दस्तावेज भी। सीबीआई का प्रश्न है कि जिस तलवीरा-2 की खदान का आवंटन बिड़ला को रद्द हो चुका था, वह दुबारा उसे कैसे दी गई? इसके लिए सीबीआई ने पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख को भी दोषी मानकर उनके यहां छापे मारे हैं।
ज्यादातर सरकारी अफसरों की तरह पारेख दब्बू नहीं निकले। अब वे सेवानिवृत्त हैं, लेकिन वे दो साल तक कोयला सचिव रहे हैं। जब वे सचिव थे, तब भी उनके काम-काज की महालेखा-नियंत्रक ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। पारेख ने अपनी रपट में यह साफ-साफ कहा था कि कोयला-खदानों की गुपचुप बंदरबांट बंद होनी चाहिए और उसके स्थान पर खुली नीलामी होनी चाहिए। इस प्रक्रिया का जब प्रधानमंत्री ने समर्थन किया तो उनके कार्यालय के वरिष्ठ अफसरों ने पारेख के सुझावों को रद्द कर दिया। अब पारेख क्या करते? पारेख ने उसी नीति को लागू किया, जो सरकार ने बना दी। इसलिए पारेख खम ठोककर कह रहे हैं कि यदि वे दोषी हैं तो सरकार भी दोषी है और उसके मुखिया प्रधानमंत्री भी! पारेख के तर्क में दम है।
सीबीआई ने पारेख पर आरोप लगाया है कि उन्होंने 25वीं स्क्रीनिंग कमेटी के फैसले को रद्द कर दिया। उसके अध्यक्ष होने के कारण इसकी जिम्मेदारी उनकी है। कमेटी की सिफारिश थी कि चर्चित खदानें केवल सरकारी कंपनियों को दी जाएं। उन्होंने वे बिड़ला को कैसे दे दीं? इस पर पारेख का जवाब यह है कि वह कमेटी सिर्फ सिफारिश करती है, जिसे मानना या न मानना जरूरी नहीं होता है। इसके अलावा तलवीरा-2 की खदानों के लिए सबसे पहली अर्जी बिड़ला की थी। ओडिशा में बिड़ला के कारखाने को कोयले की जरूरत भी थी। पारेख ने बिड़ला को उन खदानों का सिर्फ 15 प्रतिशत हिस्सा देने का प्रस्ताव किया, वह भी दो सरकारी कंपनियों की साझेदारी में। सरकारी कंपनियां-महानदी कोलफील्ड्स, नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन और हिंडाल्को मिलकर अब वहां उत्खनन करेंगी। इस प्रस्ताव को प्रधानमंत्री रद्द कर सकते थे लेकिन उन्होंने नहीं किया यानी उन्होंने इसे ठीक समझा।
पारेख का कहना है कि उन पर प्रधानमंत्री या उनके कार्यालय का कोई दबाव नहीं था। यानी उन्होंने उन्हें क्लीन चिट दे दी है, लेकिन पारेख ने माना है कि अनेक सांसद उनसे पैरवी करते रहे हैं। ये सांसद कौन हैं, पारेख बताते क्यों नहीं? वे किस-किस पार्टी के हैं? जरा मालूम पड़े कि इस स्वच्छ सरकार पर जो पार्टी सवार रहती है, वह कितनी स्वच्छ है? कहीं ऐसा तो नहीं कि बेचारे पूर्व नौकरशाह के दब्बूपन का लाभ उठाकर पार्टी नेताओं ने लूटपाट का यह षड्यंत्र रचाया हो? पारेख के बयान से प्रधानमंत्री तो बच जाते हैं, लेकिन उनका कार्यालय जरूर विवाद के घेरे में आ जाता है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने नीलामी का विरोध क्यों किया और खदानों की बंदरबांट पर जोर क्यों दिया? यहां भी गाड़ी आकर प्रधानमंत्री के सामने खड़ी हो जाती है।
यह हो सकता है कि प्रधानमंत्री ने अपने अफसरों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया हो। उन्हें वे अपने जैसा ही ईमानदार समझते रहे हों। यह भी संभव है कि अत्यंत व्यस्त प्रधानमंत्री ने गहरे में उतरने की कोशिश न की हो और दस्तखत कर दिए हों। प्रधानमंत्री निश्चित रूप से भ्रष्ट नहीं हैं, लेकिन किसी भी प्रधानमंत्री के लिए यह क्या कम बुरा है कि उसकी नाक के नीचे भ्रष्टाचार होता रहे? जिम्मेदारी तो उन्हीं की है।
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