हिन्दुस्तान, 27 अगस्त 2002: जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने सत्तारूढ़ होते ही कहा था कि वे पाकिस्तान में लोकतंत्र लाएँगे और ठीक समय पर कुर्सी को नमस्कार कह देंगे| वे सत्ता में एक दिन भी जरूरत से ज्यादा नहीं रहेंगे| अब लगभग तीन साल तक डटे रहने के बावजूद उन्हें वह ‘एक दिन’ कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा है| उस ‘एक दिन’ को उन्होंने अब एक झटके में ही पाँच साल आगे खिसका दिया है| अब जो नया अध्यादेश उन्होंने जारी किया है, उसके मुताबिक वे पाँच साल तक राष्ट्रपति पद पर काबिज़ रहेंगे और राष्ट्रपति भी वे ऐसे-वैसे नहीं होंगे| पाकिस्तान के सम्पूर्ण राज्यतंत्र के मूलाधार और केंद्र भी वहीं रहेंगे याने प्रधानमंत्री और संसद को विदा करने का अधिकार भी उन्हीं के पास होगा| उनकी पाँचवर्षीय अवधि और उनके उक्त अधिकार को संसद चुनौती नहीं दे सकती, क्योंकि जनमत संग्रह ने उन्हें सबसे लोकपि्रय राष्ट्रपति के रूप में नियुक्त किया है और सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें 1973 के संविधान में संशोधन का अधिकार दिया है| इसी अधिकार का सदुपयोग करते हुए उन्होंने इस संविधान में अब तक 29 संशोधन कर डाले हैं| पिछले 29 साल में पाकिस्तान की संसद के सैकड़ों सांसदों ने मिलकर इतने संशोधन नहीं किए, जितने जनरल साहब ने पिछले तीन साल में अकेले ही कर डाले| अब कोई बताए कि कौन बड़ा है, एक अकेला फौजी जनरल या लोकतांत्रिाक संसद ?
जो संसद जनरल साहब बनवा रहे हैं, वह संसद है या फौजी घोड़ागाड़ी ? पाकिस्तान की संसद को जनरल मुशर्रफ अपनी घोड़ागाड़ी बनाए बिना नहीं मानेंगे| जनरल जि़या के बाद जो दो-तीन कठपुतली राष्ट्रपति बने, उन्होंने भी राष्ट्रपति के विशेषाधिकार का इस्तेमाल किया और बेनज़ीर और नवाज़ शरीफ जैसे प्रधानमंत्र्िायों को चलता कर दिया| संसद को घर बिठा दिया| मुशर्रफ तो राष्ट्रपति हैं और सेनापति भी हैं| उन्होंने अपने अध्यादेश से नवाज़ शरीफ के उस 13वें संशोधन को भी काट दिया है, जिसने राष्ट्रपति को उक्त अधिकारों से वंचित कर दिया था| अभी यह भी पता नहीं कि अक्तूबर के चुनावों के बाद जो संसद बनेगी, वह जनरल साहब की सुरक्षा परिषद्र के मुकाबले कहाँ तक टिक पाएगी ? सुरक्षा परिषद्र अधिक शक्तिशाली होगी या संसद ? सुरक्षा परिषद् के फौजी चेहरे पर जनरल मुशर्रफ ने लोकतंत्र का झीना-सा घूघँट भी डाल दिया है| राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद्र के अध्यक्ष तो वे खुद होंगे ही, प्रधानमंत्री तथा फौज के तीनों अंगों के मुखियाओं के अलावा अब उन्होंने चारों प्रांतों के मुख्यमंत्री, निम्न सदन के विरोधी नेता और उच्च सदन के नेता को भी जोड़ लिया है| यह पता नहीं कि इस सुरक्षा परिष्द्र के फैसले बहुमत से होंगे या फौजी शैली में होंगे ? यह केवल सलाह देगी या आदेश जारी करेगी ? प्रधानमंत्री इसके सदस्य होंगे लेकिन उनकी हैसियत क्या होगी ? क्या परिषद्र के अंदर भी कोई परिषद् होगी ? अगर चारों मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, सीनेट के नेता और विरोधी नेता-ये सात लोग किसी मुद्दे पर एक तरफ हो गए तो दूसरी तरफ तीन फौजी और एक राष्ट्रपति याने इन चार के मुकाबले उन सात की चलेगी या नहीं ? इन सब सवालों के जवाब क्या होंगे, इसका अनुमान तो पहले से ही लगाया जा सकता है लेकिन जनरल मुशर्रफ जिस तरह की संसद अक्तूबर में चुनवानेवाले हैं, वैसी संसद अब से पहले पाकिस्तान क्या, एशिया के किसी भी देश में नहीं चुनी गई है|
मुशर्रफ की संसद में एक भी सदस्य बी.ए. से कम पढ़ा हुआ नहीं होगा| एक भी सदस्य ऐसा नहीं होगा, जो किसी अपराध में लिप्त रहा हो या जिसकी चल-अचल सम्पत्ति का ब्यौरा जनता को पता नहीं हो| पूरे पाँच पन्ने का फॉर्म भरना पड़ रहा है, उम्मीदवारों को ! अगर ये नियम-उपनियम कड़ाई से लागू किए गए तो पाकिस्तान की यह संसद नेताओं की नहीं, फरिश्तों की मजलिस होगी| बहुत-से नेता तो ज़ीरो पर ही क्लीन बोल्ड को प्राप्त होंगे| वे उम्मीदवार ही नहीं बन सकेंगे| अगर मुशर्रफ की छलनी तीस साल पहले ही लगा दी जाती तो जुल्फिकार अली भुट्टो से लेकर बेनज़ीर और नवाज़ शरीफ तक कई प्रधानमंत्री और मंत्री संसद के दरवाज़े तक भी नहीं पहुँच पाते| उन्हें पढ़ाई-लिखाई या हिसाब-किताब या अपराध आदि के कचरे में लपेटकर ऊपर ही रोक लिया जाता| क्या ये सारे प्रावधान अब भी इसीलिए तो नहीं थोपे जा रहे हैं ? यही असली दुविधा है ! पाकिस्तानी जनता खुद नहीं समझ पा रही है कि आखिर मुशर्रफ के इन दाँव-पेंचों का मकसद क्या है ? इगर इन सब इन्कलाबी तौर-तरीक़ों का मकसद फरिश्तों की मजलिस है तो क्या वजह है कि मुशर्रफ को अपने फरिश्तों पर रत्ती भर भी भरोसा नहीं है ? उन्होंने संसद के सारे अधिकार छीनकर इन फरिश्तों के पर क्यों काट दिए ? उन्हें नख-दंत विहीन क्यों कर दिया ? वे इन्हें अपना राज-पाट क्यों नहीं सौंप देते ? उन्होंने दो बार गद्दी पर बैठे प्रधानमंत्रियों का जो रास्ता रोका है, वह कोई गलत कदम नहीं है लेकिन क्या उसके पीछे भी कूटचाल यही नहीं है कि सारी सत्ता का निर्विवाद कंेद्र उन्हीं को होना है ? उनकी इसी सत्ता-लोलुपता ने उनके सारे सुधारों पर पानी फेर दिया है| पाकिस्तान की जनता का स्पष्ट फैसला तो अक्तूबर में आएगा लेकिन दुनिया की नज़र में मुशर्रफ लोकतंत्र के झंडाबरदार नहीं, फौज के डंडाबरदार की तरह देखे जा रहे हैं| असलियत तो यह है कि जनरल अयूब, याह्रया और जि़या में जो सकुचाहट थी, मुशर्रफ ने उससे अपना पिंड छुड़ा लिया है| उन्होंने फौज को बाक़ायदा सुरक्षा परिषद् का सदस्य बना दिया है| पाकिस्तानी लोकतंत्र के ताबूत में मुशर्रफ ने चार मजबूत खीले ठोंक दिए हैं|
कमाल की बात यह है कि इधर पाकिस्तानी लोकतंत्र की हत्या हो रही है और उधर अमेरिका तालियाँ बजा रहा है| वह जनरल साहब की पीठ ठोक रहा है| अमेरिका को चिंता नहीं कि उसका लोकतंत्र-प्रेम निवर्सन हो रहा है| उसे चिंता क्यों हो ? उसका पुराना रोग है, फौजतंत्र के साथ हमबिस्तरी करना ! जनरल अयूब के ज़माने में शीतयुद्घ का बहाना था, जि़या के ज़माने में अफगानिस्तान में रूसी कब्जे का बहाना था और अब मुशर्रफ के ज़माने में आतंकवाद से लड़ने का बहाना है| अमेरिका के इन रोगों का खामियाज़ा सबसे ज्यादा कौन भुगतता है ? पाकिस्तान की जनता और भारत ! इस्लामाबाद के जनरल इन दोनों को अपना शिकार बनाते हैं| इन दोनों पर वे एक साथ हमला करते हैं लेकिन अमेरिकी प्रशासनों को न भारत से कोई सहानुभूति होती है, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और न ही पाकिस्तान की नंगी-भूखी जनता से, जो लोकतंत्र का सबसे घिनौना रूप देखने के लिए मजबूर है| अमेरिका को फुसलाए रखने की जैसी तरकीब मुशर्रफ ने लगाई है, वैसी तो जि़या भी नहीं लगा सके| मुशर्रफ पर अमेरिका इस क़दर फिदा है कि वह पाकिस्तानी चुनावों के असली मकसद पर उंगली उठाने की हिम्मत भी नहीं कर रहा है जबकि वह कश्मीरी चुनावों पर रोज़ उपदेश झाड़ रहा है| मुशर्रफ ने अमेरिकी नीति-निर्माताओं को यह समझा रखा है कि यदि उसामा बिन लादेन और अल-क़ायदा को नेस्तनाबूद करना है तो उन्हें मुशर्रफ को मजबूत करते रहना पड़ेगा| इसके अलावा अफगानिस्तान के अमेरिका-विरोधी तत्वों पर नज़र रखने तथा मध्य एशिया के खनिज-भंडारों से कराची बंदरगाह तक पहुँचने के लिए भी अमेरिका पाकिस्तान पर निर्भर है| अमेरिका की यह मजबूरी ही उसे पाकिस्तानी जनता और भारत के हितों के प्रति उपेक्षापूर्ण बनाती है| ऐसी स्थिति में लोकशाही का झंडा गिरे और तानाशाही का डंडा उठे तो हमें आश्चर्य क्यों होना चाहिए ?
Leave a Reply