नवभारत टाइम्स, 30 मार्च 2002 : ‘पोटो’ तो पारित होना ही था लेकिन जिस विधि से वह पारित हुआ, उसने भारत की दुखती रग को उधेड़ दिया है| आखिर संयुक्त अधिवेशन क्यों बुलाना पड़ा ? दोनों सदनों ने उसे अलग-अलग पारित क्यों नहीं किया ? वह राज्यसभा में क्यों गिर गया ? और लोकसभा में भी वह लगभग सर्वानुमति से पारित क्यों नहीं हुआ ? उस तरह पारित क्यों नहीं हुआ, जैसा कि अमेरिका में ‘देशभक्त कानून’ पारित हुआ ? क्या भारत के विरोधी दल देशभक्त नहीं हैं ? क्या भारत के विरोधी दल आतंकवाद का खात्मा नहीं करना चाहते? आखिर क्या वजह है कि भारत का सत्ता-तंत्र् पोटो को लेकर दो खेमों में बँट गया ?
इसका मूल कारण पोटो नहीं, पोटो लानेवालों का आचरण है| पोटो से अधिक कठोर कानून तो महाराष्ट्र और कर्नाटक में लागू है, जहाँ काँग्रेस की सरकारें हैं| बंगाल और आंध्र की सरकारों का रंग भी भगवा नहीं है| वहाँ भी सख्त कानून हैं| कानून की सख्ती या ज्यादती को जितना तर्कसंगत यह सरकार बना सकती थी, उसने बना दिया था| उसने सारे नुकीले कोनों को घिस दिया था| अनेक संशोधन स्वीकार कर लिए थे| फिर भी पोटो का जमकर विरोध हुआ| यदि कुछ ठोस संशोधन और आ जाते तो उम्मीद है कि सरकार उन्हें भी स्वीकार कर लेती| फिर भी यह निश्चित था कि पोटो का विरोध होता| आखिर क्यों होता? इसलिए होता कि हाल ही में कश्मीर और गुजरात में उसका भयंकर दुरुपयोग हुआ और एकतरफा उपयोग हुआ| एकतरफा उपयोग तो दुरुपयोग से भी अधिक भयंकर है| वह तो कानून की हत्या है| जो कानून सबके लिए एक जैसा नहीं है, उसे कानून कौन कहेगा ? वह कानून नहीं, स्वेच्छाचार है| कानूनन अराजकता है| राज्य के अस्तित्व का परमपर्ण्ूा निषेध है| इसीलिए जब विरोधी नेता पोटो पर आग बरसाते रहे तो किसी को भी उन पर गुस्सा नहीं आया| सब यही समझते रहे कि दाल में कुछ काला जरूर है| इसीलिए विरोधी नेता पोटो के खिलाफ इतना चिल्ला रहे हैं| यदि गुजरात नहीं होता और अगर होता भी तो यदि नरेन्द्र मोदी नहीं होते तो शायद पोटो को मौत के कुएँ में चक्कर नहीं लगाने पड़ते| संयुक्त अधिवेशन में नहीं जाना पड़ता| आग के दरिया से गुजरना नहीं पड़ता| अब पोटो पास तो हो गया लेकिन वह झुलस गया है| उसकी तुलना 1961 के दहेज-विरोधी अधिनियम से करना अनुचित है| नेहरू के अधिनियम और वाजपेयी के अधिनियम में ज़मीन-आसमान का अंतर है| नेहरू का वह दहेज-विरोधी अधिनियम संयुक्त अधिवेशन की आग में तप गया था, पोटो की तरह झुलसा नहीं था| क्या तपे हुए और झुलसे हुए में कोई अंतर नहीं होता ?
यह झुलसा हुआ कानून लेकर जब वाजपेयी-सरकार आतंकवादियों का मुकाबला करेगी तो उसके हर तेवर पर उंगलियाँ उठाई जाएँगी, उसके हर कदम पर शक की निगाह होगी और उसके हर पहलू को सेक्यूलरवादी खुर्दबीन से देखा जाएगा| इसके अलावा इस कानून को लागू कौन करेगा ? राज्य करेंगे| मुश्किल से आधा दर्जन राज्य भाजपा-गठबंधन के साथ हैं| शेष राज्यों में विरोधियों की सरकार है| कानून पास होने के पहले ही विरोधियों ने केन्द्र सरकार को शक के दुशाले में लपेट दिया है| अब उनकी तैयारी यह देखने की नहीं होगी कि देखें, यह सरकार कितने आतंकवादियों को पकड़ती है बल्कि यह होगी कि यह कहीं ज़रा-सा गच्चा खाए और उस पर सारे विरोधी एक साथ टूट पड़ें और वह करें, ज़ो दुशाला ओढ़ाने के बाद किया जाता है| क्या यह राष्ट्रीय मनोदशा आतंकवाद के खात्मे में सहायक हो सकती है ? भारत के सत्ता-तंत्र् की इस मनोदशा की तुलना जरा अमेरिका के सत्ता-तंत्र् से करें| 11 सितंबर के हमले के बाद जब बुश-प्रशासन वहाँ आतंकवाद विरोधी कानून लाया तो सारा राष्ट्र बुश के पीछे हो लिया| क्या डेमोक्रेट और क्या रिपब्लिकन ! बुश की सरकार वाजपेयी की सरकार से ज्यादा लोकपि्रय नहीं थी ! बुश कितने बहुमत से और कैसे राष्ट्रपति बने हैं, सबको पता है| वाजपेयी के मुकाबले बुश कितने परिपक्व और कितने प्रतिष्ठित राजनेता रहे हैं, यह भी कहने की जरूरत नहीं है| फिर भी सारे अमेरिका ने एकचित्त, एकमन, एकलगन होकर बुश का समर्थन क्यों किया और 13 दिसंबर के बावजूद वाजपेयी-सरकार को हमारे विरोधी दलों का समर्थन क्यों नहीं मिला ? इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि अमेरिका में आतंकवाद का मुद्दा वहाँ के किसी अल्पसंख्यक वर्ग के साथ जुड़ा हुआ नहीं है, जबकि भारत में है| जोड़ दिया गया है| जबर्दस्ती जोड़ दिया गया है| आतंकवादियों के विरुद्घ की गई कार्रवाई को अल्पसंख्यकों के विरुद्घ की गई कार्रवाई बताया जाता है| इसीलिए आतंकवाद विरोधी कार्रवाई के विरोध का मतलब होता है अल्पसंख्यकों का समर्थन प्राप्त करना| क्या इससे अधिक खतरनाक खेल भी कोई हो सकता है ? सारे अल्पसंख्यकों पर आतंकवादी होने का शक आखिर कौन फैला रहा है ? क्या विरोधी नहीं फैला रहे हैं ? आतंकवादी, आतंकवादी होता है| उसकी क्या तो जात और क्या मजहब ? क्या किसी आतंकवादी को इसीलिए नहीं पकड़ा जाना चाहिए कि वह मुसलमान है या सिख है या ईसाई है? और क्या कुछ आतंकवादियों को इसीलिए छोड़ दिया जाना चाहिए कि वे हिन्दू हैं ? गोधरा में मुसलमान पकडे़ जाएँ और अहमदाबाद में हिन्दू, इसमें कौनसी सांप्रदायिकता है लेकिन हमारा सत्ता-तंत्र् कितना विचित्र् है कि उसका एक हिस्सा बोलता है कि आपने गोधरा में फलाँ को क्यों पकड़ा और दूसरा हिस्सा बोलता है कि अहमदाबाद में हम फलाँ को क्यों पकड़ें ? वह तो कि्रया पर प्रतिकि्रया कर रहा है| यह हाल है, भारत के सत्ता-तंत्र् का ! यह भग्नमन भारत, यह खंडित हृदय भारत, यह उभयमुख भारत आतंकवाद का सफाया कैसे करेगा ?
पोटो पर चली बहस सुनकर सबसे अधिक कौन खुश हुआ होगा ? आतंकवादी और उनके सरबरा ! वे जानते हैं कि दिल्ली में बैठी सरकारें बगलेंझाँकू हैं| वे इस्राइल और अमेरिका की तरह जड़ पर प्रहार कतई नहीं करेंगी| जिस सरकार को डालियाँ और पत्ते कतरने का अधिकार पाने में इतनी मशक्कत करनी पड़ रही है, वह जड़ तक तो कभी पहुँच ही नहीं सकती| लोकतंत्र् और मानव अधिकार के नाम पर मुट्ठीभर आतंकवादियों को ऐसी छूट दे देना कि वे हजारों-लाखों लोगों की जिन्दगी से खेल सकें, क्या व्यापक लोकतंत्र् का हनन नहीं है ? क्या मानव अधिकारों का व्यापक उल्लंघन नहीं है ? यदि पोटो जैसे कानून के कारण कुछ अत्याचार होता है, कभी जान-बूझकर और कभी अनजाने में, तो उसे बर्दाश्त करने के अलावा चारा क्या है ? और यह बर्दाश्त भी कोई अंधी बर्दाश्त नहीं है| भारत में सर्वोच्च न्यायालय है, संसद है, अखबार हैं, टी0वी0 चैनल हैं| और इन सबसे बड़ा राष्ट्रीय जनमत है| कानून का दुरुपयोग करने पर अगर इंदिरा गाँधी जैसी परम प्रतापी प्रधानमंत्र्ी को भारत की जनता सूखे पत्ते की तरह उड़ा सकती है तो अटलजी की इस अष्टावक्र बैलगाड़ी की क्या बिसात है ? इसे तो किसी भी क्षण चकनाचूर किया जा सकता है ?
आश्चर्य यह है कि गोधरा और गुजरात के पहले से ही विरोधियों ने पोटो के विरुद्घ कमर कस रखी थी| जो टाडा लाए, जो मीसा लाए, जो एन0एस0ए0 लाए, जो डी0आई0आर0 लाए, उन्होंने ने भी| जो कभी टाडा के अंध-समर्थक थे, वे अब पोटो के अंध-विरोधी दिखाई पड़े और जो अभी पोटो के अंध-समर्थक दिखाई पड़ रहे थे, वे ही कभी टाडा के अंध-विरोधी थे| कैसा कमाल है, राजनीति का ! उल्लू का बुलबुल होना और बुलबुल का उल्लू होना एक-जैसा ही हुआ ! इन नेताओं के बारे में हमारी जनता क्या सोचेगी ? वह उन्हें सिर्फ शब्दों का मदारी समझ बैठेगी ? वह उनकी किसी बात पर भी भरोसा नहीं करेगी| उनके किसी बुलावे पर वह अपनी जान न्यौछावर क्यों करेगी ? इसका खामियाज़ा कौन भुगतेगा ? देश भुगतेगा| जिस देश के नेता अपनी आस्थाओं को पाजामे की तरह बदलते रहते हैं, उनका भरोसा कौन करेगा ? जिस देश के नेता और जनता के बीच भरोसे का पुल इतनी सँकरी रस्सी पर बँधा हुआ हो, वह कितना बोझ बर्दाश्त करेगा ? पोटो तो पास हो गया लेकिन उसने मुख्यधारा के दलों का दिवालियापन भी बेनकाब कर दिया|
पोटो अभी तक अध्यादेश है, ऑर्डिनेन्स है| उसके आखिर में ओ (व) है| राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद वह पोटा बन जाएगा| ऑर्डिनेन्स, एक्ट बन जाएगा, अधिनियम बन जाएगा| ओ (व) की जगह आ (ं) आ जाएगा| याने पोटो की जगह पोटा ! राजस्थान और मध्य प्रदेश में पोटा का मतलब होता है, गोबर का चौथ ! पोटा, कहीं गोबर का पोटा सिद्घ न हो| यह पहला कानून है, जिसमें आतंकवाद शब्द का प्रयोग हुआ है| यदि इसे आतंकवादियों के अलावा किसी के विरुद्घ भी इस्तेमाल किया गया तो स्वयं सरकार को लोग आतंकवादी समझने लगेंगे| इसके अलावा सिर्फ कानून से या डंडे के जोर से आतंकवाद खत्म नहीं हो सकता, हम यह न भूल जाएँ| ऐतिहासिक संयुक्त संसदीय अधिवेशन में प्राप्त ‘ऐतिहासिक सफलता’ हमें इतिहास के समस्त सबकों से विरत न कर दे| इतिहास का सबक यह है कि आतंकवाद के बहिरंग को डंडे से और अंतरंग को दिलो-दिमाग से झेला जाए| पोटो की बहस में बहिरंग ही बहिरंग था| जरूरी यह है कि अब कोई अंतरंग की भी याद दिलाए|
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