नया इंडिया, 20 सितंबर 2014: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी चिन फिंग का अहमदाबाद में जो भाव-भीना स्वागत किया, उससे कुछ लोग चिढ़े हुए हैं। उनका चिढ़ना स्वाभाविक है। वे लोग न तो अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के जानकार हैं और न ही सोचने-विचारने वाले लोग हैं। वे पूछे रहे हैं कि उधर लद्दाख में चीनी सैनिक हमारी सीमा में घुसे जा रहे हैं और हमारा प्रधानमंत्री है कि चीनी राष्ट्रपति के साथ झूला झूल रहा है। उन्हें पता होना चाहिए कि हमारी तीन-चार हजार किमी की सीमा पर अभी तक कोई सीमा-रेखा पक्की तौर पर नहीं खींची गई है। एक कामचलाऊ सीमा-रेखा है, जहां खाइयां, खंदकें, पहाड़ियां, जंगल, झरने, नदियां वगैरह है। वहां कभी हमारे सैनिक उस पार चले जाते हैं, कभी उनके सैनिक इस पार चले आते हैं। इन तात्कालिक वारदातों को जरुरत से ज्यादा उछालने की कोई तुक नहीं है।
हमें यह तय करना चाहिए कि चीन के साथ हमारे संबंध सामान्य होने चाहिए या नहीं? ज़रा याद करें कि विदेश मंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने चीन-यात्रा की थी और प्रधानमंत्री रहते हुए ही उन्होंने तिब्बत को चीन का प्रांत कहा था। यह ठीक है कि न तो हमारी सीमा-समस्या पर चीन का रुख बदला है न तिब्बत पर। चीन अभी भी अरुणाचल, लद्दाख और कश्मीर को भारत का हिस्सा नहीं मानता।
लेकिन चीन के साथ हमारा व्यापार 70 बिलियन डालर याने दुनिया में सबसे ज्यादा है। अनेक अंतरराष्ट्रीय मामलों पर भी हमारी और उसकी सहमति है। उसके राष्ट्रपति हमारे अतिथि हैं। अतिथि का सम्मान करना हमारा धर्म हैं। भारत सरकार ने वही किया। हम यह भी न भूलें कि मुख्यमंत्री मोदी जब चीन गए थे तो चीनी सरकार ने उनका प्रधानमंत्रियों की तरह स्वागत किया था। इसका अर्थ यह नहीं कि हम चीन के असली इरादों के बारे में बेखबर हो जाएं। चीन की कोशिश है कि भारत के सारे पड़ौसियों को वह अपने मोह-जाल में फंसा ले। इसीलिए शी भारत के पहले मालदीव और श्रीलंका गए। वे पाकिस्तान भी जाने वाले थे। अच्छी कूटनीति वही होती है, जिसमें शालीनता, शिष्टता और भव्यता के साथ-साथ सतर्कता का भी समावेश हो। मोदी ने शी के साथ इतना अच्छा व्यवहार किया है कि उसका असर अब दोनों देशों के संबंधों में भी देखने को मिलेगा। अहमदाबाद के झूले का हिंडौला अब चीन तक अपनी लहर उठाएगा।
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