हिन्दुस्तान, 18 फरवरी 2002 : जनरल मुशर्रफ की वाशिंगटन-यात्रi से भारत सरकार ने क्या सबक सीखा ? शायद कुछ नहीं ! वह अब भी पाकिस्तान पर मुक्का ताने हुए है और आस लगाए बैठी है कि अमेरिका उसकी गाड़ी पार लगा देगा| भारत सरकार खुश हो रही है कि अमेरिकी पत्र्कार डेनियल पर्ल अभी तक पाकिस्तानी आतंकवादियों के चंगुल में फँसा हुआ है और मुशर्रफ की किरकिरी हो रही है| यह ठीक है कि अमेरिकी अखबार मुशर्रफ की अगवानी में पलक पाँवड़े नहीं बिछा रहे लेकिन वह यह भूल रही है कि राष्ट्रपति बुश ‘राष्ट्रपति’ मुशर्रफ पर जिस तरह फिदा हो रहे हैं, उस तरह कभी अयूब खान पर आइज़नहावर और जि़या-उल-हक पर जिमी कार्टर भी नहीं हुए| राष्ट्रपति बुश जनरल मुशर्रफ को ‘जनरल’ नहीं, बार-बार ‘राष्ट्रपति’ कह रहे हैं याने वे फौजी तानाशाही को मान्यता दे रहे हैं| उन्होंने पत्र्कारों के सामने कहा कि राष्ट्रपति मुशर्रफ मेरे ‘महान मित्र्’ हैं और ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ में मैंने विदेशी राष्ट्राध्यक्षों में सिर्फ मुशर्रफ का नाम लिया, इसी से समझ जाइए कि अमेरिका उनका कितना आभारी है| उन्होंने यह भी कहा कि वे पाकिस्तान के स्थायित्व के लिए यथेष्ट सहायता भी देंगे ताकि मुशर्रफ की छवि भी चमके| उन्होंने मुशर्रफ की पाकिस्तानी समाज को बदलने की कोशिशों की भी तारीफ की, खास तौर से मदरसों के ढर्रे को ! ये सब मैत्री-संकेत स्वाभाविक हैं, क्योंकि अगर मुशर्रफ हिम्मत नहीं दिखाते तो अमेरिका अफगान दल-दल में ज़रा लंबा फँस सकता था| अब जबकि तालिबान का सफाया हो गया है, बुश जैसे मुश्किल से जीते हुए राष्ट्रपति का अमेरिका में वास्तविक राज्याभिषेक हो गया है| गर्व और गौरव की इस वेला में अगर मुशर्रफ की टोपी में बुश ने कुछ ज्यादा रंगीन पंख खोंस दिए हैं तो भारत को बिलबिलाने की जरूरत नहीं है लेकिन मुशर्रफ की इस वाशिंगटन-यात्र का असली अभिप्राय क्या है, अगर भारत सरकार यह नहीं समझेगी तो उसकी हालत अन्तरराष्ट्रीय त्र्िशंकु की तरह हो जाएगी|
भारत सरकार यह गलतफहमी पाले बैठी हुई है कि अमेरिका कश्मीर के सवाल पर पाकिस्तान को दबाएगा| मुशर्रफ की यात्र के दौरान राष्ट्रपति बुश से लेकर किसी छोटे-से-छोटे अमेरिकी अधिकारी ने भी मुशर्रफ से यह नहीं कहा कि कश्मीर की बाँग लगाना बंद करो या कश्मीर भारत का अटूट अंग है| अमेरिका की सुई सिर्फ इसी मुद्दे पर अटकी हुई है कि वह आतंकवाद का विरोधी है और कश्मीर का मसला बातचीत से सुलझाया जाना चाहिए| मुशर्रफ को अमेरिका साफ़-साफ़ यह क्यों नहीं कहता कि आप जब तक सीमा-पार आतंकवाद नहीं रोकेंगे, आपका हुक्का-पानी बंद कर दिया जाएगा| यदि अमेरिका ऐसा कहता तो माना जाता कि वह भारत के पक्ष में बोला| ऐसा बोलने की बजाय अमेरिका कहता है कि उसे सीमा पर तनाव पसंद नहीं है याने भारत अपनी फौजें हटाए| क्या यह भारत का समर्थन है ? वह भारत को नाराज़ नहीं करना चाहता, इसीलिए साफ़-साफ़ नहीं बोलता लेकिन बुद्घिमान को तो इशारा ही काफी होना चाहिए| इसी प्रकार वह मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए भी मध्यस्थता को रद्द करता रहता है ताकि भारत की टेक बनी रहे| क्या दुनिया इस नाटक को समझती नहीं ? क्या भारत यह नहीं समझता कि अमेरिका के तात्कालिक हितों की पूर्ति के लिए पाकिस्तान की उपयोगिता अब भी बनी हुई है ? अमेरिका ने अफगान-कार्रवाई में जो करोड़ों डॉलर खर्च किए हैं, क्या उन्हें वह मध्य एशिया के तेल और गैस में से नहीं निकालेगा ? पाकिस्तान की मदद के बिना तेल और गैस कराची के बंदरगाह तक कैसे पहुँचेंगे ? अफगानिस्तान के भविष्य-निर्धारण में पाकिस्तान की क्या भूमिका होगी, इसका संकेत अंतरिम अफगान सरकार के मुखिया हामिद करज़ई की पाकिस्तान-यात्र से ही मिल जाता है| मुशर्रफ अमेरिका रवाना हों, उसके पहले उनसे मिलना क्या इतना जरूरी था कि करज़ई ने खुद की और अपने दर्जन भर मंत्रियों की जान भी खतरे में डाल दी ? खतरनाक मौसम में भी जहाज से उड़कर वे कुछ घंटों के लिए इस्लामाबाद गए| शायद वे अमेरिका की इच्छा पूरी कर रहे हों| अमेरिका अपने इतने महत्वपूर्ण मोहरे याने पाकिस्तान को अब अपने चंगुल से निकलने नहीं देगा और यह भी देखेगा कि उसका बाल भी बाँका न हो|
भारत सरकार सीमा पर फौजें डटाकर अपनी पीठ खुद ही थपथपा रही है| वह भारत के मतदाताओं को बता रही है कि उसके बहादुराना तेवर के कारण पाकिस्तान के पसीने छूट रहे हैं| मुशर्रफ को मुल्लाओं, मदरसों और मस्जि़दों की राजनीति के खिलाफ मैदान में उतरना पड़ रहा है| आतंकवाद की भर्त्सना करनी पड़ रही है और डर के मारे वाशिंगटन की परिक्रमा भी करनी पड़ रही है| दिल को बहलाने के लिए यह ख्याल बहुत अच्छे हैं लेकिन वास्तविकता क्या है ? वास्तविकता यह है कि भारत की फौजी कवायद पाकिस्तान की नज़र में सिर्फ गीदड़भभकी है| मुशर्रफ ने बार-बार कहा है कि पाकिस्तान मुँहतोड़ जवाब देगा| भारत उसे ब्लेकमेल करना बंद करे| उधर आतंकवाद में क्या कमी आई है ? ‘संयुक्त अरब अमारात’ ने तो कलकत्ता-कांड के कुख्यात अपराधी को अफताब अंसारी को तुरंत भारत भिजवा दिया लेकिन भारत द्वारा भेजी गई 20 भयंकर आतंकवादियों की सूची को पाकिस्तान ने हवा में लटका रखा है| यदि अमेरिका सचमुच आतंकवाद का विरोध करता है तो पाकिस्तान को मजबूर क्यों नहीं करता कि वह उस सूची पर अमल करे ? यह ठीक है कि अमेरिकी पत्र्कार डेनियल पर्ल को बचाने के लिए मुशर्रफ सरकार ज़मीन-आसमान एक कर देगी लेकिन हजारों कश्मीरियों, बंबईवासियों तथा अन्य भारतीयों के हत्यारों को पकड़ने के लिए वह क्या कर रही है ? सच्चाई तो यह है कि वह उन पर पर्दा डाले बैठी हुई है| अगर उसे भारतीय फौजों का डर होता तो वह उन 20 अपराधियों को कभी का उगल देती| डेनियल पर्ल के अपहरणकर्ताओं को पकड़कर पाकिस्तान सरकार एक तीर से दो शिकार करेगी| एक तो वह अमेरिका की सहानुभूति अर्जित करेगी और दूसरा उसे वह यह भी बताएगी कि भारत पाकिस्तान के विरुद्घ फिजू़ल का प्रापेगंडा करता रहता है| यदि उसके बस में होता तो वह भारत के अपराधियों को भी पकड़ लेती| दूसरे शब्दों में, मुशर्रफ सरकार भले दिखाई पड़नेवाले जितने भी काम कर रही है, वे सब अमेरिका की खुशामद के लिए हैं, भारत से भयाक्रांत होने के कारण नहीं|
इसीलिए अमेरिका मुशर्रफ से बेहद खुश है| इसका मतलब यह नहीं कि अमेरिका उन पर कोई दबाव नहीं डाल रहा है| वह दबाव जरूर डाल रहा है लेकिन उसका भारत से कोई संबंध नहीं है| वह तो केवल इतना चाहता है कि भारत-पाक परमाणु युद्घ न छिड़ जाए| बाकी उसकी बला से| अगर दो एशियाई राष्ट्रों में परमाणु-युद्घ छिड़ गया तो उसकी लपटें सारे विश्व में फैल सकती हैं और वे अमेरिका को भी आहत किए बिना नहीं रहेंगी| अमेरिका को अपनी पड़ी है, उसे कश्मीर से क्या लेना-देना ? कश्मीर में जितने लोग मरे हैं, उससे ज्यादा क्या ट्रेड-टॉवर में मरे थे ? नहीं, लेकिन अमेरिका ने अफगानिस्तान में बमों का गलीचा बिछा दिया| वह पाकिस्तान के खिलाफ़ खुद कोई कार्रवाई क्यों करेगा या भारत-जैसे किसी देश को क्यों करने देगा ? पाकिस्तान ने अमेरिका का कौन-सा टॉवर गिराया है ? पाकिस्तानी आतंकवाद से असली नुक्सान भारत को है तो अमेरिका अपना सिर क्यों धुने ? इसीलिए भारत को अपना मुँह खुद धोना पड़ेगा, अपने दाँत खुद माँजने होंगे, अपनी तलवार खुद भाँजनी होगी| भारत के इस इरादे में खलल पड़ जाए, यह हिसाब लगाकर ही मुशर्रफ ने वाशिंगटन में नया सुर्रा छोड़ दिया| सुर्रा यह कि भारत फिर से परमाणु-विस्फोट करनेवाला है| मुशर्रफ वही बात कहते हैं जिसे सुनते ही अमेरिका के कान खड़े हो जाते हैं| गनीमत है कि मुशर्रफ की इस पतंग को अमेरिकियों ने इस बार उड़ने नहीं दिया लेकिन वे मुशर्रफ को खाली हाथ भी नहीं लौटा रहे हैं| मालामाल कर रहे हैं| जैसे नवाज़ शरीफ को क्लिंटन ने कान मरोड़कर वापस भेजा था, वैसे बुश मुशर्रफ की चिउँटी भी नहीं काट रहे हैं| अमेरिका-पलट मुशर्रफ अब भारत के मुकाबले ज़रा ज्यादा खमठोंक मुद्रा में होंगे और भारत सरकार का डेढ़ माह से तना हुआ मुक्का, पता नहीं कहाँ-कहाँ से ढीला पड़ता जाएगा ? मुशर्रफ की वाशिंगटन-यात्र का लक्ष्य माल-भत्ता बटोरना तो है ही, इस भारतीय मुक्के को थका डालना भी है|
13 दिसंबर को भारत सरकार ने बिजली नहीं कड़काई| अब डेढ़ माह से वह युद्घ का बाजा बजा रही है उस पर कौन ध्यान दे रहा है ? संसद पर हुए हमले से गुस्साई हुई सरकार ने पर्वत हिला दिया लेकिन उसमें से चूहा भी नहीं निकला| सूली पर चढ़ी सरकार को समझ नहीं पड़ रहा कि वह अब नीचे कैसे उतरे ? आज़ादी के बाद फौज की इतनी बड़ी हलचल कभी नहीं हुई| अरबों रूपए खर्च हो गए| करोड़ों रोज़ खर्च हो रहे हैं लेकिन युद्घ के बाजे की धुन कोई सुन ही नहीं रहा, पाकिस्तान भी नहीं| शुरू में पाकिस्तान थोड़ा सचेत तो हुआ था लेकिन डरा नहीं| वह इसे शुरू से ही ढोंग बता रहा है| ढोंग तो यह नहीं था लेकिन अब जबकि इसका परिणाम शून्य है, इसे ढोंग के अलावा क्या समझा जाएगा ? जानकारों को पता है कि अमेरिकियों की हरी झंडी के बिना भारतीय फौज एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकती| आतंकवादियों को काबू करने के लिए लाखों फौजी सीमा पर जमा करने की क्या तुक है ? यह कौनसे ज़माने की रणनीति है ? आतंकवादियों के अड्डों पर सीधे प्रहार के लिए कितने फौजियों, कितने जहाजों, कितनी तोपों की जरूरत है ? वे सब तो पहले से ही वहाँ विद्यमान थे| उनका उपयोग करने से यह सरकार डरती रही, आतंकवादियों का पीछा करने (हॉट परस्यूट) की थोथी घुड़कियाँ देती रहीं और अब उसने भारत-पाक सीमांत पर लाखों फौजी जमा कर लिए हैं| जो मच्छर नहीं मार सकती, वह शेर मारने की धममियाँ दे रही है| उसका तना हुआ मुक्का ढीला पड़ रहा है| तना हुआ और बंधा हुआ मुक्का एक लाख का दिखाई पड़ रहा था| अब ढीला हुआ और खुला हुआ मुक्का कैसा लगेगा ? जो लाख का था, अब खाक का नहीं हो जाएगा ?
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