दैनिक भास्कर, (भोपाल) 22 जून 2013 : यदि अफगानिस्तान में अराजकता फैली तो सबसे ज्यादा नुकसान पाकिस्तान और ईरान का होगा और उनके बाद भारत का! भारत का शायद सबसे ज्यादा हो, क्योंकि हर तरह के आतंकवादी का निशाना सबसे पहले भारत ही होगा।
अफगान-तालिबान शांति-वार्ता शुरू होती, उसके पहले ही वह टूट गई। पहला प्रश्न यह है कि वार्ता किनके बीच होनी चाहिए? करजई सरकार और तालिबान के बीच! लेकिन वह अब हो रही है, अमेरिका और तालिबान के बीच! अमेरिका को इससे खास मतलब नहीं कि अफगान-संकट हल होता है या नहीं और उसकी वापसी के बाद अफगानिस्तान में अमन-चैन रहता है या नहीं। उसे तो अपना उल्लू सीधा करना है।
उसके लक्ष्य सिर्फ दो हैं। एक तो तालिबान का अल-कायदा से संबंध-विच्छेद हो जाए और दूसरा अफगानिस्तान से उसकी फौजी वापसी आसानी से हो जाए यानी उसके जान-माल का नुकसान कम से कम हो। यदि हामिद करजई नाराज होकर बात का बहिष्कार कर रहे हैं तो करते रहें।
बिल्कुल यही रवैया अमेरिकियों ने पाकिस्तान में भी अपना रखा है। नए प्रधानमंत्री मियां नवाज शरीफ ने पाकिस्तान के तालिबान से अभी बातचीत के संकेत दिए ही थे कि अमेरिकी फौजों ने तालिबान ठिकानों पर ड्रोन हमले कर दिए और तालिबान के उप-नेता वली उर रहमान की हत्या कर दी। वली नरम तालिबान थे और बातचीत के पक्षधर थे। अमेरिकी लोग जितने दरियादिल होते हैं, उतने ही धक्केशाह होते हैं।
यह अमेरिकी सभ्यता के उथलेपन का प्रमाण है कि वे किसी समस्या की गहराई में नहीं उतरते। उन्हें जो भी तात्कालिक समाधान सूझ पड़ता है, वे उसी पर पिल पड़ते हैं। वियतनाम और इराक में उन्होंने यही किया और अब इसी धक्काशाही को वे अफगानिस्तान और पाकिस्तान में दोहरा रहे हैं।
अमेरिकियों का यह सोचना व्यावहारिक है कि वे तालिबान को बंदूक के जोर पर नहीं दबा सकते। इस अभियान में वे पूरी तरह से नाकाम हो गए हैं। अब उनसे बात करना जरूरी हो गया है। यह बात हामिद करजई भी समझते हैं। उन्होंने तालिबान को अपना भाई भी कहा और बातचीत का खुला न्यौता भी दिया। करजई की इस पहल से गैर-पश्तून अफगान, जो बहुसंख्या में हैं, नाराज भी हुए लेकिन करजई अपने कौल पर डटे हुए हैं।
वे चाहते हैं कि तालिबान अफगान-संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकार करें। वे सत्ता में भागीदार बनें। वे भी चुनाव लड़ें। अगर अफगान जनता उन्हें चुनती है तो वे सिंहासन सम्हालें। लेकिन तालिबान हैं कि करजई सरकार को अमेरिका की कठपुतली बताते हैं और संसद की वैधता को अस्वीकार करते हैं। इसके बावजूद करजई उनसे बातचीत के लिए तैयार हैं।
लेकिन अब करजई अचानक इतने खफा क्यों हो गए हैं? उन्होंने शांति परिषद के प्रतिनिधि मंडल को कतर जाने से क्यों रोक दिया है? इसलिए कि अमेरिकियों ने अफगान सरकार को विश्वास में लिए बिना ही तालिबान से बात शुरू कर दी है। तालिबान ने कतर की राजधानी दोहा में जो अपना दफ्तर खोला है, उसे ‘अफगानिस्तान की इस्लामी अमीरात’ का दफ्तर कहा है, मानो यह किसी सरकार का दफ्तर हो।
दोहा जाकर तालिबान से बात करने का मतलब है तालिबान सरकार को मान्यता देना। क्या यह अजीब बात नहीं है कि जनता द्वारा चुनी सरकार को आप कठपुतली कहें और वह आपको बाकायदा सरकार का रुतबा दे? करजई की आपत्ति यही है। वे कहते हैं कि असली बात आखिर में अफगानों की राजधानी काबुल में होनी चाहिए, न कि ‘तालिबान की राजधानी’ दोहा में।
अमेरिकियों को करजई की इस आपत्ति की कोई चिंता नहीं है। उन्हें तो अफगानिस्तान खाली करना है। जब चमन छूटा तो वहां कोई बसे। चमगादड़ बसे या हंस! उनकी कृपा और कोशिश से ही कतर में तालिबान ने अपना अड्डा जमाया है। यों भी काबुल में जब पांच साल तक तालिबान का शासन रहा तो अमेरिकी सरकार ने तालिबान के प्रतिनिधि (राजदूत) से बराबर संपर्क बनाए रखा। उस समय अब्दुल हकीम मुजाहिद, जो आजकल सरकारी शांति-परिषद के उप-नेता हैं, वॉशिंगटन और न्यूयॉर्क में अमेरिकी प्रशासन से बाकायदा कूटनीतिक संबंध बनाए हुए थे।
कोई आश्चर्य नहीं कि अफगान तालिबान ने आजकल ईरान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के देशों से जो संपर्क बनाए हुए हैं, वह अमेरिका और पाकिस्तान की सहायता और इशारे से ही बना रखे हों। अमेरिका को यह आश्वासन देने में तालिबान का क्या नुकसान है कि वे अल-कायदा से कोई संबंध नहीं रखेंगे।
असली नुकसान तो करजई सरकार को होगा। उसकी फौज का मनोबल गिरेगा। सरकार का दबदबा घटेगा। यदि भगदड़ मच गई तो अर्थव्यवस्था भी बैठ जाएगी। अमेरिकी वापसी के पहले ही अफगानिस्तान में अराजकता फैल जाएगी। 65000 अमेरिकी फौजियों के प्राण और अरबों डॉलर का फौजी साजो-सामान खतरे में पड़ जाएगा। इसीलिए अमेरिकियों को चाहिए कि वे कोई ऐसा काम न करें, जिससे अफगान सरकार कमजोर होती हुई दिखाई दे।
हामिद करजई ने अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए काबुल में चल रही वह वार्ता भंग कर दी है, जो अफगानों और अमेरिकियों के बीच आपसी सुरक्षा के मुद्दों पर चल रही थी। उम्मीद है कि ओबामा प्रशासन शीघ्र ही कोई रास्ता निकालेगा ताकि सलाहुद्दीन रब्बानी के नेतृत्व में शांति-मिशन दोहा जा सके। इस बीच पता चला है कि अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी के दबाव के कारण तालिबान ने अपने दोहा दफ्तर से अपना झंडा उतार लिया है और इस्लामी अमीरात की नामपट्टी भी हटा ली है। लेकिन मामला अभी तक सुलझा नहीं।
इस सारे मामले में भारत का मौन आश्चर्यजनक है। भारत ने अफगानिस्तान में लगभग 10 हजार करोड़ रुपए खर्च किए हैं और उसके दर्जनों इंजीनियर, डॉक्टर, कूटनीतिज्ञ और कर्मचारी मारे गए हैं। यदि अफगानिस्तान में अराजकता फैली तो सबसे ज्यादा नुकसान पाकिस्तान और ईरान का होगा और उनके बाद भारत का! भारत का शायद सबसे ज्यादा हो, क्योंकि हर आतंकवादी का निशाना सबसे पहले भारत ही होगा।
ऐसे में भारत का चुप बैठना हमारी विदेश नीति के बांझ होने का सबूत है। हमसे अच्छा तो रूस निकला, जिसने करजई का खुला समर्थन कर दिया है। भारत को चाहिए कि वह तालिबान से बात करे। लेकिन उस बात में अगर पाकिस्तान को भी जोड़ा जा सके तो सोने पर सुहागा हो जाए।
वेदप्रताप वैदिक
भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष
Leave a Reply