नवभारत टाइम्स, 21 मार्च 2008 : तिब्बत के सवाल पर भारत सरकार ने अभी तक जो कुछ कहा है, उसका ठोस अर्थ क्या है, यह वह स्वयं जानती हैं| यह अवसर बोलने का कम और कुछ कर गुजरने का ज्यादा हैं| विपक्ष ने संसद में शोर जरूर मचाया लेकिन तिब्बत के सवाल पर हमारी सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के हाथ-मुंह बॅंधे हुए हैं| 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने ही पहली बार तिब्बत को चीनी प्रांत कहा और उसे चीन का हिस्सा बताया| भारतीय जनसंघ के नेता के तौर पर बलराज मधोक और अटलबिहारी वाजपेयी तिब्बत की आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने के लिए तैयार रहते थे लेकिन 1977 में विदेश मंत्री बनते ही अटलजी ने तिब्बत को चीनियों की तरह ‘चीन का स्वायत्त-प्रदेश’ कहना शुरू कर दिया था| न तो उस समय और न ही 2003 में आज के विपक्षी नेताओं ने सरकार की आलोचना की और न ही जॉर्ज फर्नांडीस और शरद यादव जैसे लोहिया के शिष्यों ने इस्तीफे दिए| पिछले 30 वर्षों में जितनी भी कॉंग्रेसी सरकारें केंद्र में बनीं, उनमें से किसी ने भी इस नई तिब्बत-नीति का विरोध नहीं किया| वर्तमान विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने तो संसद में इस नीति पर स्पष्ट मुहर भी लगा दी|
दूसरे शब्दों में भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया है| यह इसलिए भी मान लिया है कि पिछले लगभग 15 साल से स्वयं दलाई लामा कह रहे हैं कि वे तिब्बत को चीन से अलग नहीं करना चाहते हैं| तिब्बत चीन में रहकर ही आगे बढ़े, स्वायत्त रहे, खुशहाल रहे| जब दलाई लामा ही यह कह रहे हैं तो भारत सरकार कौन होती है, तिब्बत की आज़ादी का झंडा उठानेवाली ? यह मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्तवाला मामला बन जाता है| यों भी मार्च के संकट को लेकर दलाई लामा ने दो-टूक शब्दों में दो बातें कही हैं| एक तो यह कि यदि ल्हासा में तिब्बती युवजन चीनियों के विरूद्घ हिंसा का प्रयोग करेंगे तो वे प्रवासी तिब्बती सरकार के मुखिया के पद से इस्तीफा दे देंगे| वे हिंसा को बौद्घ धर्म के एकदम विरूद्घ मानते हैं| सच्चे बौद्घ होने के नाते वे मध्यम मार्ग पर चलना पसंद करेंगे| उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा है कि वे चीनियों से घृणा करना बंद करें| दूसरी बात, जो दलाई लामा ने कही है और जिस पर सारी दुनिया की सरकारें ध्यान दे रही हैं, वह यह है कि तिब्बत की आजादी को उन्होंने बिल्कुल रद्द कर दिया है| उन्होंने धर्मशाला में एक प्रश्न के उत्तर में साफ़-साफ़ कहा है कि तिब्बत के चीन से अलग होने का सवाल ही नहीं उठता|
दलाई लामा के इस बयान पर तो चीनी सरकार को नाच उठना चाहिए था लेकिन अब भी चीनी सरकार के प्रवक्ता अपनी पुरानी तोता-रटंत को दोहराए चले जा रहे हैं| तिब्बत की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव का बयान तो इतना आक्रामक है कि चीनी सरकार को चाहिए कि वह उसे वापस पेइचिंग बुला ले| उन्होंने ल्हासा में दंगे भड़काने का पूरा दोष दलाई लामा के मत्थे मढ़ा है और उन्हें भिक्खु नहीं, भेडि़या कहा है| वास्तव में दलाई लामा ने जिस शौर्य का परिचय दिया है, उसके दर्शन 1921 में गांधी ने करवाए थे| चौरीचौरा कांड की हिंसा के बाद उन्होंने सारे असहयोग आंदोलन को भंग कर दिया था| ऐसी ही चेतावनी अभी दलाई लामा ने दी है| ऐसे दलाई लामा पर हिंसा फैलाने का आरोप लगानेवालों को अपने मष्तिस्क की जॉंच करवानी चाहिए| यह ठीक है कि भारत में सकि्रय अनेक तिब्बती युवा संगठनों का ल्हासा के युवजन से सीधा संपर्क रहा हो सकता है और यह भी संभव है कि ई-मेल और मोबाइल फोनों के ज़रिए वे एक दूसरे को उकसाते हों लेकिन उसका दोष दलाई लामा के मत्थे मढ़ना उचित नहीं लगता| बल्कि इसका नुकसान यह होगा कि चीनी शासकों को पता ही नहीं चलेगा कि रोग का असली निदान क्या है और उसकी सही चिकित्सा क्या है| नई पीढ़ी के ये तिब्बती नौजवान दलाई लामा का सम्मान तो करते हैं लेकिन वे उनके मध्यम मार्ग को नहीं मानते| वे अपनी मर्जी के खुद मालिक हैं| यदि इन गुस्साए हुए युवा तिब्बतियों की उपेक्षा कर दी गई तो इन्हें आतंकवादी बनने से कोई रोक नहीं सकता| चीनी शासकों को पता है कि तिब्बत से भी ज्यादा बगावत का लावा शिनच्यांग (सिंक्यांग) में बह रहा है| सिंक्यांग के मुसलमानों का मध्य एशिया के राष्ट्रों और पाकिस्तान से सीधा भौगोलिक संबंध बना हुआ है| यदि मुस्लिम और बौद्घ ताकतें एक हो गईं तो चीन का पूरा पश्चिमोत्तर क्षेत्र् खतरे में पड़ जाएगा| इसका सीधा प्रभाव भारत की सुरक्षा पर भी पड़ेगा| ऐसी स्थिति में चीनी सरकार के लिए यह सुनहरा मौका है कि वह तिब्बत पर दलाई लामा से सीधे बात करे| यह खुशी की बात है कि चीनी प्रधानमंत्री विन च्यापाओ ने बातचीत के द्वार खुले रखने की बात कही है| उन्होंने यह आश्वासन बि्रटिश प्रधानमंत्री जेम्स ब्राउन को अपनी दूरभाष-वार्ता में भी दिया है|
चीनी शासन की यह शर्त भी पूरी हो गई है कि दलाई लामा अलगाव की बात छोड़ें| जैसे दो-टूक शब्दों में दलाई लामा ने अलगाव को रद्द किया है, वैसे शब्दों में तो हमारे हुर्रियतवाले भी नहीं करते| इसके बावजूद भारत सरकार उनसे बात करती है, उन्हें भारत में घूमने-फिरने, बोलने की आजादी देती है, उन्हें विदेश जाने-आने देती है और संगठन की भी छूट मिली हुई है| चीनी सरकार तो भारत सरकार से कहीं अधिक सुद्दढ़ है| जब कश्मीरियों को भारत इतनी छूट दे सकता है तो चीनी सरकार तिब्बतियों को क्यों नहीं दे सकती? वह बात करने से भी क्यों कतराती है? यह आश्चर्य है कि वह पश्चिमीकृत हॉंगकॉंग को तो पचा सकती है लेकिन बौद्घ तिब्बत उसे बर्दाश्त नहीं है|
इस संकट की घड़ी में भारत सरकार चाहे तो तिब्बतियों और चीनियों का काफी भला कर सकती है| तिब्बत का जितना गहरा संबंध भारत से है, दुनिया के किसी भी देश से नहीं है| तिब्बत को चीन का अंदरूनी मामला बताकर वह मौन धारण कर सकती है और ऐसे बयान जारी कर सकती है, जिनका कोई मतलब नहीं होता| लेकिन वह ज़रा बि्रटेन के प्रधानमंत्री जेम्स ब्राउन से कुछ सीखे| अगर ब्राउन सीधे चीनी प्रधानमंत्री से बात कर सकते हैं तो भारतीय प्र.म. ने यह अवसर क्यों गवॉं दिया? अब भी समय नहीं बीता है| वे चाहें तो सीधे बात करें| अपना विशेष दूत नियुक्त करें, जो चीनी सरकार, दलाई लामा और ल्हासा के नौजवानों से सीधी बात करे| चीनी प्रधानमंत्री ने भारत की दो-टूक सराहना करके एतिहासिक कार्य किया है| इस सुसंयोग का लाभ उठाकर भारतीय विदेश नीति को नए धरातल पर ले जाया जा सकता है|
(लेखक विदेश नीति विशेषज्ञ है )
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