नया इंडिया, 07 फरवरी 2014: ग्यारह पार्टियों ने मिलकर संसद में एकजुट होना तय किया है। क्या खूब? एकजुट होना भी तय किया तो किस वक्त? जब संसद खुद ही पूरी होने वाली है। अब संसद कितने दिन चलेगी? संसद का यह आखिरी सत्र 15दिन से ज्यादा चलने वाला नहीं है। यह पंद्रह दिन की एकजुटता क्या तीसरा मोर्चा तैयार करवा सकेगी? अगले 15 दिन में ये 11 दल किस मुद्दे पर एक हो रहे हैं? उनके सामने फिलहाल एक ही मुद्दा है। वह है- कांग्रेस को ऐसे विधेयक पास करने से रोकना, जिनके कारण उसे चुनावों में वोटों की फसल काटने का मौका मिले। यदि कुछ अच्छे विधेयक भी होंगे तो वे भी मारे जाएंगे। अब तीसरे मोर्चे के दल मिलकर लोकसभा को हल्ला-गुल्ला सभा बना देंगे। उनके पास कोई वैकल्पिक विधेयक तो नहीं हैं, जिन पर वे बहस करवाएं या जिन्हें वे पास करवाएं।
इस 15 दिवसीय संसदीय एकता में भी कई अड़चने हैं। एक तो समाजवादी पार्टी जब कांग्रेस का समर्थन करती है तो वह हर मुद्दे पर उसका विरोध कैसे करेगी? फिर कई मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर तीसरे मोर्चे के ये दल आपस में ही असहमत हैं, जैसे तेलंगाना पर मार्क्सवादी पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी एक-दूसरे के विरुद्ध हैं जबकि सांप्रदायिक हिंसा विधेयक पर अन्ना द्रमुक की एक राय है और कई अन्य दलों की दूसरी राय! चार वामपंथी और सात अन्य क्षेत्रीय पार्टियों की महत्वाकांक्षा यह है कि वे एक ऐसा मोर्चा खड़ा कर लें जो गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेस हो, धर्म-निरपेक्ष हो और संघात्मकता का पक्षधर हो।
यही इस तीसरे मोर्चे की विचारधारा है। इसे आधार बनाकर ये 11 दल सरकार बनाने का सपना देख रहे हैं। भला, यह भी कोई आधार है? यह तो ऐसा आधार है, जो मौसम की तरह बदलता रहता है। कौनसा ऐसा दल है, जो दावा नहीं करता कि वह सांप्रदायिक नहीं है? और कौनसा ऐसा दल है, जिसने कांग्रेस और भाजपा के साथ कभी न कभी हाथ नहीं मिलाया है? और संघात्मकता और एकात्मकता तो सिर्फ कहने की बातें हैं। सभी क्षेत्रीय दल हर दांव मारकर अपने-अपने राज्य के लिए केंद्र से रियायतें जुटाते हैं। इन सब दलों की अपनी कोई विचारधारा नहीं है। ये या तो परिवारवाद पर टिके हैं, या जातिवाद पर या प्रांतवाद पर!
अब ये नेता जो एक होना चाहते हैं, उसका लक्ष्य स्पष्ट है। वह है खुद को प्रधानमंत्री बनवाना। मुख्यमंत्री रहते हुए ये लोग उब चुके हैं। अब हर क्षेत्रीय क्षत्रप चक्रवर्ती सम्राट के सपने देख रहा है। इसमें शक नहीं कि हमारे क्षेत्रीय नेता जितने अनुभवी और परिपक्व हैं, उनके मुकाबले दोनों प्रमुख पार्टियों के नेता अभी नए हैं लेकिन इनकी पहुंच अखिल भारतीय है। उनकी अपनी पार्टियों ने उन्हें नेता स्वीकार कर लिया है लेकिन क्षेत्रीय नेता अपने ही गठबंधन में आपस में लड़ मरेंगे। वे अपने से बड़ा नेता किसी को नहीं मानते। ऐसे में चक्रवर्ती सम्राट बनने का उनका सपना सिर्फ सपना ही बना रहेगा। हां, उसका स्वागत इसलिए किया जाना चाहिए कि वह चुनाव के बाद ‘दूसरे मोर्चे’ की तरह उभर सकता है। वह एक सबल और परिपक्व प्रतिपक्ष बनकर उभरे तो देश के लिए यह शुभ ही होगा।
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