जनसत्ता, 25 जनवरी 2008 : भाजपा की जैसी सेवा हमारे मार्क्सवादी कर रहे हैं, कोई नहीं कर सकता| यदि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी अपने कौल पर डटी रही तो अगले साल दिल्ली पर भगवा झंडा फहरे बिना नहीं रहेगा| भाजपा को स्पष्ट बहुमत पाने में शायद ही कोई कठिनाई हो| यदि तीसरा मोर्चा बन गया तो मार्क्सवादियों के ‘पहले दुश्मन’ की फतेह सुनिश्चित है| भाजपा पहली दुश्मन है और कॉंग्रेस दूसरी दुश्मन ! इन दोनों दुश्मनों से बचकर माकपा ‘तीसरा मोर्चा’ बनाना चाहती है| माकपा जिन पार्टियों को लेकर तीसरा मोर्चा बनाना चाहती है, उनमें से एक भी पार्टी ऐसी नहीं है, जिसने कभी न कभी किसी न किसी रूप में कॉंग्रेस या भाजपा का दामन न थामा हो| जब डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1967 में गैर-कॉंग्रेसवाद का नारा दिया था तो प्रांतीय सरकारों में जनसंधियों के साथ मिलकर समाजवादियों और यहां तक कि कम्युनिस्टों ने भी संयुक्त सरकारें बनाई थीं और जहॉं तक कांग्रेस का सवाल है, उसका साथ कम्युनिस्टों ने तो हमेशा दिया ही है, दक्षिण और उत्तर के प्रमुख प्रांतीय दलों ने भी उसके साथ समय-समय पर हाथ मिलाया है| यदि कॉंग्रेस और भाजपा से हाथ मिलाना भ्रष्टता है तो देश के लगभग सभी दल भ्रष्ट हो चुके हैं| यह ठीक है कि कॉंग्रेस-गठबंधन सरकार में कम्युनिस्ट पार्टियों के मंत्री नहीं हैं लेकिन बाहरवालों की ताकत अंदरवालों से कहीं ज्यादा है| बाहर बैठे कामरेड मनमोहन सरकार को जिस तरह नचा रहे हैं, क्या वे अंदर रहकर नचा सकते थे? मनमोहन सरकार के परवरदिगार हमारे कॉमरेड ही हैं| जिस सरकार को वे पिछले चार साल से थामे हुए हैं, उसे वह अपना दुश्मन मानते हैं| इस दूसरे दुश्मन की परवरिश वे इसलिए कर रहे हैं कि पहला दुश्मन उन्हें ज्यादा खतरनाक लगता है| वे ईरान के आयतुल्लाह खुमैनी की भाषा बोल रहे हैं| खुमैनी अमेरिका को बड़ा शैतान और रूस को छोटा शैतान बोला करते थे|
माकपा जिन पार्टियों को मिलाकर तीसरा मोर्चा खड़ा करना चाहती है, वे पार्टियां कौन सी हैं? उन पार्टियों के मूलत: दो चरित्र् हैं| एक तो वे क्षेत्रीय पार्टियॉं हैं और दूसरी जातिवादी पार्टियॉं हैं| यदि खोजने लगें तो पता चलेगा कि वे पार्टियॉं वंशवादी भी हैं| प्राइवेट लिमिटेड कम्पनियॉं हैं| इन पार्टियों के साथ हाथ मिलाने में माकपा को काफी सुविधा महसूस होगी, क्योंकि वह भी मूलत: क्षेत्रीय पार्टी ही है| बंगाल, केरल, और त्रिपुरा के बाहर उसका अस्तित्व नहीं के बराबर है| वह मार्क्सवाद से ज्यादा बंगाली और मलयाली उप-राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करती है| जैसी मार्क्सवादी पार्टी, वैसी ही उसकी सहयोगी पार्टियॉं ! दोनों जगह मार्क्सवाद सिर के बल खड़ा है| यहॉं विचारधारा सर्वथा अप्रासंगिक है| सिर्फ एक विचार प्रासंगिक है| वह है, सत्ता हथियाने का विचार| जातिवादी, वंशवादी और क्षेत्र्वादी विचारधाराऍं और मार्क्सवादी विचारधारा, इन दोनों में क्या कहीं कोई संगति है? यह ठीक है कि उत्तर प्रदेश की दो क्षेत्रीय और जातीय पार्टियों ने कॉंग्रेस और भाजपा के साथ सीधा हाथ नहीं मिलाया लेकिन वे इन दोनों अखिल भारतीय दलों के साथ गुपचुप सॉंठ-गॉंठ करती रही हैं| उन्हें कोई भी वैचारिक परहेज़ नहीं है| इसके अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि वे एक-दूसरे की जानी दुश्मन हैं| एक पार्टी दूसरी को गिराने के लिए कम्युनिस्टों से क्या, किसी से भी हाथ मिला सकती हैं| दूसरे शब्दों में कम्युनिस्ट पार्टियॉं तीसरा मोर्चा खड़ा करके अपनी सिद्घांतहीनता के चरमोत्कर्ष पर पहुंच जाऍंगी| वर्ग-संघर्ष, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और अतिरिक्त मूल्य के सिद्घांतों की माला जपना भी वह भूल जाएगी| तीसरे मोर्चे के अन्तर्विरोध ही उसे ले बैठंेगे| डर यही है कि ‘थर्ड फ्रंट’, कहीं ‘थर्ड क्लास फ्रंट’ साबित न हो जाए| दो शैतानों से बचने की तदबीर कहीं एक सडि़यल शैतान को पैदा करने की साजिश न बन जाएं|
तीसरे मोर्चे में यदि देश की सभी क्षेत्रीय पार्टियॉं शामिल हो जाऍं तो भी संसद में उनका बहुमत नहीं हो सकता| कॉंग्रेस और भाजपा, दोनों ही प्रतिपक्ष में बैठ जाऍं तो आज भी बची हुई पार्टियॉं अपनी सरकार नहीं बना सकतीं, क्योंकि उनमें से कई पार्टियों की अपनी प्रतिद्वंदी प्रांतीय पार्टियॉं उस सरकार में शामिल नहीं होगी| विश्वनाथप्रताप सिंह और देवगौड़ा – गुजराल सरकारों में भाजपा और कांग्रेस शामिल नहीं थी लेकिन यह सरकारें इन्हीं अखिल भारतीय दलों के दम पर चल रही थीं| ये गैर-भाजपाई और गैर-कांग्रेसी सरकारें इन अखिल भारतीय दलों का टेका हटते ही जमीन पर आ गिरीं| इन दोनों अखिल भारतीय दलों को अछूत घोषित करके क्या समस्त क्षेत्रीय दल किसी आधार पर एक हो सकते हैं? अगले चुनाव में ये सभी पार्टियॉं क्या कोई विशाल अखिल भारतीय गठबंधन खड़ा करने पर राजी हो जाऍंगीं? क्या वे अपनी क्षेत्रीय प्रतिद्वंदी पार्टियों के आगे घुटने टेकने को तैयार हो जाऍंगीं? यदि हॉं तो फिर वे अखिल भारतीय पार्टियों के साथ विलय करना पसंद क्यों नहीं करेगी? किसी क्षेत्रीय नाग के मुंह में समा जाने से क्या यह बेहतर नहीं होगा कि वे एक अखिल भारतीय वटवृक्ष की छाया को स्वीकार कर लें? यह असंभव नहीं कि अगले चुनाव में अनेक क्षेत्रीय दलों का विलय अखिल भारतीय दलों में हो जाए| भारत जैसा विविधतामय देश हो और जिसमें अहंकारी नेताओं की भरमार हो, वहां द्विदलीय व्यवस्था का उभरना ज़रा आसान नहीं है लेकिन 21वीं सदी नई चुनौतियों के साथ हमारे सामने उभर रही हैं| भारत की अर्थ-व्यवस्था और राजनीति, दोनों में ही अनेक अपूर्व तत्वों का उदभव हो रहा है| ये तत्व क्षेत्रीय कम और अखिल भारतीय अधिक हैं| इसके अलावा खबरतंत्र् ने देश में एकायामी छवि-निर्माण का काम काफी जोरों से किया है| इने-गिने नेताओं और दलों की राष्ट्रीय पहचान बड़े पैमाने पर स्पष्ट होती जा रही है| ऐसी स्थिति में जात, मज़हब और भाषा की राजनीति कमजोर पड़ सकती है| क्षेत्रीय दलों और नेताओं के मन में विलय की भावना जोर पकड़ सकती है| यदि यह प्रवृत्ति जोर पकड़ गई तो कम्युनिस्ट पार्टियॉं क्या करेंगी? वे तो किसी के साथ भी विलय करना पसंद नहीं करेंगी| उनकी वैचारिक अकड़ उन्हें ले डूबेगी| तीसरे मोर्चे के तिनके को वह कितना ही कसके पकड़े रहें, वह उन्हें डूबने से बचा नहीं पाएगा| उनका तीसरा मोर्चा पहले मोर्चे को भी डुबा देगा| यदि तीसरा मोर्चा बन गया तो वह किसके वोट काटेगा? वह सबसे ज्यादा कॉंग्रेस के वोट काटेगा| अभी भी कम्युनिस्ट पार्टियों की टक्कर किससे होती है? क्या भाजपा से होती है? बंगाल और केरल में भाजपा का कितना जोर है? लगभग नगण्य! कम्युनिस्टों की असली टक्कर कॉंग्रेसियों से होती है| चंद्रबाबू नायडू और देवगौड़ा किसके वोट काटेंगे? तथाकथित सेक्युलर वोटों का बंटवारा किसके बीच होगा? कांग्रेस और तीसरे मोर्चे के बीच ! तो फायदा किसका होगा? स्पष्ट है, भाजपा का ! दूसरे शब्दों में तीसरा मोर्चा चाहे भाजपा को अपना बड़ा दुश्मन घोषित करे लेकिन असलियत में कॉंग्रेस ही उसकी दुश्मन साबित होगी| इस बार खुद कम्युनिस्ट पार्टियॉं भी अपनी मॉंद में दहाड़ने की बजाय सिसकती हुई नज़र आऍंगी| नंदीग्राम ने बंगाल में और भ्रष्टाचार व फूट ने केरल में माकपा का कबाड़ा कर दिया है| ज्योति बसु और बुद्घदेव भट्टाचार्य ने पंूजीवाद की उपयोगिता और अपरिहार्यता पर जोर देकर हमार ड्राइंग रूम के मार्क्सवादी शेरों को बौद्घिक गीदड़खाने में खड़ा कर दिया है| अब वे कॉंग्रेस का विरोध भी डटकर नहीं कर पाऍंगे| साधारण बुद्घिवाले मतदाता मानेंगे कि कॉंग्रेस की वर्गवादी बुर्जुआ नीतियॉं पांच साल इसीलिए चलती रहीं कि मार्क्सवादी उसे टेका लगाते रहे| चुनाव में मार्क्सवादी अपना पल्ला कैसे झाड़ेंगे, यह समझ में नहीं आता|
यह समझना भी ज़रा कठिन है कि तीसरा मोर्चा भाजपा का मुकाबला कैसे करेगा? कम्युनिस्टों के पास न तो कोई अखिल भारतीय नेता है और न अखिल भारतीय नीति है| भारत ही क्या, दुनिया के संपन्न और सुशिक्षित देशों में भी आजकल चुनाव किसी नेता या किसी नारे के सहारे लड़े जाते हैं| भाजपा के पास सुनिश्चित नेता हैं, नारे हैं, संगठन हैं, कार्यकर्त्ता हैं| तीसरे मोर्च के पास क्या है? सर्वस्वीकृत घोषणा पत्र् तक बन पाना मुश्किल होगा| उसके पास कोई पूर्व प्रधानमंत्री-जैसा चला हुआ कारतूस भी नहीं है| दर्जन भर प्रांतीय नेताओं को उसने अगर किसी तरह जोड़ भी लिया तो उन्हें मिलाकर वह कोई कद्दावर अखिल भारतीय नेता खड़ा नहीं कर पाएगा| यदि दस लकवाग्रस्त पहलवान एक हो जाऍं तो भी क्या वे एक स्वस्थ बच्चे का मुकाबला कर सकते हैं? भाजपा का जमकर मुकाबला करने की बजाय तीसरा मोर्चा अपनी कृपा-पात्र् कॉंग्रेस को ही चूर्ण-विचूर्ण करेगा| इसीलिए तीसरे मोर्चे की उदघोषणा पर भाजपा से ज्यादा कॉंग्रेस झल्लाई हुई है|
यों भी कॉंग्रेस का पिछले चार साल का अनुभव सुखद नहीं है| भारत-अमेरिका परमाणु सौदे पर कम्युनिस्टों ने कॉंग्रेस की जैसी टॉंग-खिचाई की है, उसे वह भूल नहीं सकती| कॉंग्रेस की प्रतिष्ठा को तो ठेस लगी ही है, कम्युनिस्टों की कलई भी उतर गई है| कभी वे धमकी देते हैं, कभी गुर्राते हैं और कभी खीसे निपोरने लगते हैं| उन्होंने अपनी स्थिति हास्यास्पद बना ली है| उनके तेवर और भाजपा के तेवरों में अंतर करना कठिन हो जाता है| कॉंग्रेसी नेता सोचते हैं कि इन कम्युनिस्टों से तो भाजपाई ही कहीं अच्छे हैं| कुछ राजनीतिक विश्लेषकों ने तो यहॉं तक कहा है कि यदि कम्युनिस्टों की बजाय भाजपा के समर्थन से कॉंग्रेस सरकार बन जाती तो परमाणु-सौदा अब तक किसी न किसी रूप में संपन्न हो जाता| भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियॉं अभी तक स्तालिन की गुफा में आदि-मानव की तरह गुजर कर रही हैं| उन्होंने रूस और चीन के भूचालों से कुछ नहीं सीखा| ऐसे पीछेदेखू नेतृत्व के हाथ में विकासमान भारत की बागडोर कैसे सौंपी जा सकती है? वैसे भी कम्युनिस्टों ने आज तक ऐसा कुछ करके नहीं दिखाया, जिसके आधार पर उनके पुराने पाप धुल गए हों| भारतीय जनता की नज़र में वे अब भी विदेशी शक्तियों की कठपुतलियॉं हैं| उन्होंने देश की जनता से सीधे जुड़ने का कोई मुहावरा अभी तक नहीं तलाशा है| जनता के दिलों को पिघलानेवाला राग वे अभी तक बिल्कुल नहीं छेड़ पाए हैं| तीसरे मोर्चे में शामिल होने वाली पार्टियों को यह शंका भी सता सकती है कि कम्युनिस्टों का साथ उन्हें कहीं बदनाम न कर दे| चुनाव के पहले एक साल के इस समय को जोड़-तोड़ में बिताने की बजाय अगर भारत की कम्युनिस्ट पार्टियॉं यदि कोई जबर्दस्त जन-आंदोलन छेड़ सकें तो तीसरा मोर्चा तो अपने आप खड़ा हो जाएगा| पहले और दूसरे मोर्चे के कई स्तंभ टूटकर उसके साथ जुड़ जाऍंगें लेकिन ऐसे रूपांतर के कोई आसार दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आते|
तीसरे मोर्चे का तिनका
जनसत्ता, 25 जनवरी 2008 : भाजपा की जैसी सेवा हमारे मार्क्सवादी कर रहे हैं, कोई नहीं कर सकता| यदि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी अपने कौल पर डटी रही तो अगले साल दिल्ली पर भगवा झंडा फहरे बिना नहीं रहेगा| भाजपा को स्पष्ट बहुमत पाने में शायद ही कोई कठिनाई हो| यदि तीसरा मोर्चा बन गया तो मार्क्सवादियों के ‘पहले दुश्मन’ की फतेह सुनिश्चित है| भाजपा पहली दुश्मन है और कॉंग्रेस दूसरी दुश्मन ! इन दोनों दुश्मनों से बचकर माकपा ‘तीसरा मोर्चा’ बनाना चाहती है| माकपा जिन पार्टियों को लेकर तीसरा मोर्चा बनाना चाहती है, उनमें से एक भी पार्टी ऐसी नहीं है, जिसने कभी न कभी किसी न किसी रूप में कॉंग्रेस या भाजपा का दामन न थामा हो| जब डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1967 में गैर-कॉंग्रेसवाद का नारा दिया था तो प्रांतीय सरकारों में जनसंधियों के साथ मिलकर समाजवादियों और यहां तक कि कम्युनिस्टों ने भी संयुक्त सरकारें बनाई थीं और जहॉं तक कांग्रेस का सवाल है, उसका साथ कम्युनिस्टों ने तो हमेशा दिया ही है, दक्षिण और उत्तर के प्रमुख प्रांतीय दलों ने भी उसके साथ समय-समय पर हाथ मिलाया है| यदि कॉंग्रेस और भाजपा से हाथ मिलाना भ्रष्टता है तो देश के लगभग सभी दल भ्रष्ट हो चुके हैं| यह ठीक है कि कॉंग्रेस-गठबंधन सरकार में कम्युनिस्ट पार्टियों के मंत्री नहीं हैं लेकिन बाहरवालों की ताकत अंदरवालों से कहीं ज्यादा है| बाहर बैठे कामरेड मनमोहन सरकार को जिस तरह नचा रहे हैं, क्या वे अंदर रहकर नचा सकते थे? मनमोहन सरकार के परवरदिगार हमारे कॉमरेड ही हैं| जिस सरकार को वे पिछले चार साल से थामे हुए हैं, उसे वह अपना दुश्मन मानते हैं| इस दूसरे दुश्मन की परवरिश वे इसलिए कर रहे हैं कि पहला दुश्मन उन्हें ज्यादा खतरनाक लगता है| वे ईरान के आयतुल्लाह खुमैनी की भाषा बोल रहे हैं| खुमैनी अमेरिका को बड़ा शैतान और रूस को छोटा शैतान बोला करते थे|
माकपा जिन पार्टियों को मिलाकर तीसरा मोर्चा खड़ा करना चाहती है, वे पार्टियां कौन सी हैं? उन पार्टियों के मूलत: दो चरित्र् हैं| एक तो वे क्षेत्रीय पार्टियॉं हैं और दूसरी जातिवादी पार्टियॉं हैं| यदि खोजने लगें तो पता चलेगा कि वे पार्टियॉं वंशवादी भी हैं| प्राइवेट लिमिटेड कम्पनियॉं हैं| इन पार्टियों के साथ हाथ मिलाने में माकपा को काफी सुविधा महसूस होगी, क्योंकि वह भी मूलत: क्षेत्रीय पार्टी ही है| बंगाल, केरल, और त्रिपुरा के बाहर उसका अस्तित्व नहीं के बराबर है| वह मार्क्सवाद से ज्यादा बंगाली और मलयाली उप-राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करती है| जैसी मार्क्सवादी पार्टी, वैसी ही उसकी सहयोगी पार्टियॉं ! दोनों जगह मार्क्सवाद सिर के बल खड़ा है| यहॉं विचारधारा सर्वथा अप्रासंगिक है| सिर्फ एक विचार प्रासंगिक है| वह है, सत्ता हथियाने का विचार| जातिवादी, वंशवादी और क्षेत्र्वादी विचारधाराऍं और मार्क्सवादी विचारधारा, इन दोनों में क्या कहीं कोई संगति है? यह ठीक है कि उत्तर प्रदेश की दो क्षेत्रीय और जातीय पार्टियों ने कॉंग्रेस और भाजपा के साथ सीधा हाथ नहीं मिलाया लेकिन वे इन दोनों अखिल भारतीय दलों के साथ गुपचुप सॉंठ-गॉंठ करती रही हैं| उन्हें कोई भी वैचारिक परहेज़ नहीं है| इसके अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि वे एक-दूसरे की जानी दुश्मन हैं| एक पार्टी दूसरी को गिराने के लिए कम्युनिस्टों से क्या, किसी से भी हाथ मिला सकती हैं| दूसरे शब्दों में कम्युनिस्ट पार्टियॉं तीसरा मोर्चा खड़ा करके अपनी सिद्घांतहीनता के चरमोत्कर्ष पर पहुंच जाऍंगी| वर्ग-संघर्ष, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और अतिरिक्त मूल्य के सिद्घांतों की माला जपना भी वह भूल जाएगी| तीसरे मोर्चे के अन्तर्विरोध ही उसे ले बैठंेगे| डर यही है कि ‘थर्ड फ्रंट’, कहीं ‘थर्ड क्लास फ्रंट’ साबित न हो जाए| दो शैतानों से बचने की तदबीर कहीं एक सडि़यल शैतान को पैदा करने की साजिश न बन जाएं|
तीसरे मोर्चे में यदि देश की सभी क्षेत्रीय पार्टियॉं शामिल हो जाऍं तो भी संसद में उनका बहुमत नहीं हो सकता| कॉंग्रेस और भाजपा, दोनों ही प्रतिपक्ष में बैठ जाऍं तो आज भी बची हुई पार्टियॉं अपनी सरकार नहीं बना सकतीं, क्योंकि उनमें से कई पार्टियों की अपनी प्रतिद्वंदी प्रांतीय पार्टियॉं उस सरकार में शामिल नहीं होगी| विश्वनाथप्रताप सिंह और देवगौड़ा – गुजराल सरकारों में भाजपा और कांग्रेस शामिल नहीं थी लेकिन यह सरकारें इन्हीं अखिल भारतीय दलों के दम पर चल रही थीं| ये गैर-भाजपाई और गैर-कांग्रेसी सरकारें इन अखिल भारतीय दलों का टेका हटते ही जमीन पर आ गिरीं| इन दोनों अखिल भारतीय दलों को अछूत घोषित करके क्या समस्त क्षेत्रीय दल किसी आधार पर एक हो सकते हैं? अगले चुनाव में ये सभी पार्टियॉं क्या कोई विशाल अखिल भारतीय गठबंधन खड़ा करने पर राजी हो जाऍंगीं? क्या वे अपनी क्षेत्रीय प्रतिद्वंदी पार्टियों के आगे घुटने टेकने को तैयार हो जाऍंगीं? यदि हॉं तो फिर वे अखिल भारतीय पार्टियों के साथ विलय करना पसंद क्यों नहीं करेगी? किसी क्षेत्रीय नाग के मुंह में समा जाने से क्या यह बेहतर नहीं होगा कि वे एक अखिल भारतीय वटवृक्ष की छाया को स्वीकार कर लें? यह असंभव नहीं कि अगले चुनाव में अनेक क्षेत्रीय दलों का विलय अखिल भारतीय दलों में हो जाए| भारत जैसा विविधतामय देश हो और जिसमें अहंकारी नेताओं की भरमार हो, वहां द्विदलीय व्यवस्था का उभरना ज़रा आसान नहीं है लेकिन 21वीं सदी नई चुनौतियों के साथ हमारे सामने उभर रही हैं| भारत की अर्थ-व्यवस्था और राजनीति, दोनों में ही अनेक अपूर्व तत्वों का उदभव हो रहा है| ये तत्व क्षेत्रीय कम और अखिल भारतीय अधिक हैं| इसके अलावा खबरतंत्र् ने देश में एकायामी छवि-निर्माण का काम काफी जोरों से किया है| इने-गिने नेताओं और दलों की राष्ट्रीय पहचान बड़े पैमाने पर स्पष्ट होती जा रही है| ऐसी स्थिति में जात, मज़हब और भाषा की राजनीति कमजोर पड़ सकती है| क्षेत्रीय दलों और नेताओं के मन में विलय की भावना जोर पकड़ सकती है| यदि यह प्रवृत्ति जोर पकड़ गई तो कम्युनिस्ट पार्टियॉं क्या करेंगी? वे तो किसी के साथ भी विलय करना पसंद नहीं करेंगी| उनकी वैचारिक अकड़ उन्हें ले डूबेगी| तीसरे मोर्चे के तिनके को वह कितना ही कसके पकड़े रहें, वह उन्हें डूबने से बचा नहीं पाएगा|
उनका तीसरा मोर्चा पहले मोर्चे को भी डुबा देगा| यदि तीसरा मोर्चा बन गया तो वह किसके वोट काटेगा? वह सबसे ज्यादा कॉंग्रेस के वोट काटेगा| अभी भी कम्युनिस्ट पार्टियों की टक्कर किससे होती है? क्या भाजपा से होती है? बंगाल और केरल में भाजपा का कितना जोर है? लगभग नगण्य! कम्युनिस्टों की असली टक्कर कॉंग्रेसियों से होती है| चंद्रबाबू नायडू और देवगौड़ा किसके वोट काटेंगे? तथाकथित सेक्युलर वोटों का बंटवारा किसके बीच होगा? कांग्रेस और तीसरे मोर्चे के बीच ! तो फायदा किसका होगा? स्पष्ट है, भाजपा का ! दूसरे शब्दों में तीसरा मोर्चा चाहे भाजपा को अपना बड़ा दुश्मन घोषित करे लेकिन असलियत में कॉंग्रेस ही उसकी दुश्मन साबित होगी| इस बार खुद कम्युनिस्ट पार्टियॉं भी अपनी मॉंद में दहाड़ने की बजाय सिसकती हुई नज़र आऍंगी| नंदीग्राम ने बंगाल में और भ्रष्टाचार व फूट ने केरल में माकपा का कबाड़ा कर दिया है| ज्योति बसु और बुद्घदेव भट्टाचार्य ने पंूजीवाद की उपयोगिता और अपरिहार्यता पर जोर देकर हमार ड्राइंग रूम के मार्क्सवादी शेरों को बौद्घिक गीदड़खाने में खड़ा कर दिया है| अब वे कॉंग्रेस का विरोध भी डटकर नहीं कर पाऍंगे| साधारण बुद्घिवाले मतदाता मानेंगे कि कॉंग्रेस की वर्गवादी बुर्जुआ नीतियॉं पांच साल इसीलिए चलती रहीं कि मार्क्सवादी उसे टेका लगाते रहे| चुनाव में मार्क्सवादी अपना पल्ला कैसे झाड़ेंगे, यह समझ में नहीं आता|
यह समझना भी ज़रा कठिन है कि तीसरा मोर्चा भाजपा का मुकाबला कैसे करेगा? कम्युनिस्टों के पास न तो कोई अखिल भारतीय नेता है और न अखिल भारतीय नीति है| भारत ही क्या, दुनिया के संपन्न और सुशिक्षित देशों में भी आजकल चुनाव किसी नेता या किसी नारे के सहारे लड़े जाते हैं| भाजपा के पास सुनिश्चित नेता हैं, नारे हैं, संगठन हैं, कार्यकर्त्ता हैं| तीसरे मोर्च के पास क्या है? सर्वस्वीकृत घोषणा पत्र् तक बन पाना मुश्किल होगा| उसके पास कोई पूर्व प्रधानमंत्री-जैसा चला हुआ कारतूस भी नहीं है| दर्जन भर प्रांतीय नेताओं को उसने अगर किसी तरह जोड़ भी लिया तो उन्हें मिलाकर वह कोई कद्दावर अखिल भारतीय नेता खड़ा नहीं कर पाएगा| यदि दस लकवाग्रस्त पहलवान एक हो जाऍं तो भी क्या वे एक स्वस्थ बच्चे का मुकाबला कर सकते हैं? भाजपा का जमकर मुकाबला करने की बजाय तीसरा मोर्चा अपनी कृपा-पात्र् कॉंग्रेस को ही चूर्ण-विचूर्ण करेगा| इसीलिए तीसरे मोर्चे की उदघोषणा पर भाजपा से ज्यादा कॉंग्रेस झल्लाई हुई है|
यों भी कॉंग्रेस का पिछले चार साल का अनुभव सुखद नहीं है| भारत-अमेरिका परमाणु सौदे पर कम्युनिस्टों ने कॉंग्रेस की जैसी टॉंग-खिचाई की है, उसे वह भूल नहीं सकती| कॉंग्रेस की प्रतिष्ठा को तो ठेस लगी ही है, कम्युनिस्टों की कलई भी उतर गई है| कभी वे धमकी देते हैं, कभी गुर्राते हैं और कभी खीसे निपोरने लगते हैं| उन्होंने अपनी स्थिति हास्यास्पद बना ली है| उनके तेवर और भाजपा के तेवरों में अंतर करना कठिन हो जाता है| कॉंग्रेसी नेता सोचते हैं कि इन कम्युनिस्टों से तो भाजपाई ही कहीं अच्छे हैं| कुछ राजनीतिक विश्लेषकों ने तो यहॉं तक कहा है कि यदि कम्युनिस्टों की बजाय भाजपा के समर्थन से कॉंग्रेस सरकार बन जाती तो परमाणु-सौदा अब तक किसी न किसी रूप में संपन्न हो जाता| भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियॉं अभी तक स्तालिन की गुफा में आदि-मानव की तरह गुजर कर रही हैं| उन्होंने रूस और चीन के भूचालों से कुछ नहीं सीखा| ऐसे पीछेदेखू नेतृत्व के हाथ में विकासमान भारत की बागडोर कैसे सौंपी जा सकती है? वैसे भी कम्युनिस्टों ने आज तक ऐसा कुछ करके नहीं दिखाया, जिसके आधार पर उनके पुराने पाप धुल गए हों| भारतीय जनता की नज़र में वे अब भी विदेशी शक्तियों की कठपुतलियॉं हैं| उन्होंने देश की जनता से सीधे जुड़ने का कोई मुहावरा अभी तक नहीं तलाशा है| जनता के दिलों को पिघलानेवाला राग वे अभी तक बिल्कुल नहीं छेड़ पाए हैं| तीसरे मोर्चे में शामिल होने वाली पार्टियों को यह शंका भी सता सकती है कि कम्युनिस्टों का साथ उन्हें कहीं बदनाम न कर दे| चुनाव के पहले एक साल के इस समय को जोड़-तोड़ में बिताने की बजाय अगर भारत की कम्युनिस्ट पार्टियॉं यदि कोई जबर्दस्त जन-आंदोलन छेड़ सकें तो तीसरा मोर्चा तो अपने आप खड़ा हो जाएगा| पहले और दूसरे मोर्चे के कई स्तंभ टूटकर उसके साथ जुड़ जाऍंगें लेकिन ऐसे रूपांतर के कोई आसार दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आते|
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