दैनिक भास्कर, 20 जुलाई 2013: सार्क में ईरान व म्यांमार के साथ मध्य एशिया के पांच गणराज्यों को भी लाना होगा। ये राष्ट्र यदि अंतरराष्ट्रीय मामलों पर लगभग एक जैसी राय रखने लगेंगे तो महाशक्तियों की चालबाजियां अपने आप फीकी पड़ जाएंगी।
दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (दक्षेस) यानी ‘सार्कÓ को बने 28 साल हो गए, लेकिन अभी तक इसके आठ देशों के बीच न तो मुक्त व्यापार शुरू हुआ है, न मुक्त-यात्रा और न ही मुक्त परिवहन की सुविधाएं खड़ी हो सकी हैं। ऐसे में साझा संसद, साझा बाजार, साझा मुद्रा, साझा महासंघ की बात क्या करें? सात देशों ने मिलकर ‘दक्षेसÓ शुरू किया था। भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, भूटान और मालदीव।
इन सात देशों में अब तक सिर्फ एक नया सदस्य जुड़ा है। वह है, अफगानिस्तान! इसी क्षेत्र के ईरान और म्यांमार (बर्मा) अभी जुडऩा बाकी हैं। इनके अलावा मध्य-एशिया के पांचों गणतंत्र-उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गीस्तान, ताजिकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान को भी जोडऩे की कोई कोशिश अब तक नहीं हुई है। यदि ये सब देश जुड़ जाएं तो दक्षेस के सदस्यों की संख्या 15 हो जाएगी।
दक्षिण और मध्य एशिया के इन 15 राष्ट्रों का शक्ति-संभाव्य दुनिया के किसी भी क्षेत्रीय संगठन से ज्यादा शक्तिशाली होगा। इनकी जनसंख्या लगभग डेढ़ अरब होगी और इनका क्षेत्रफल यूरोपीय संघ से कई गुना बड़ा होगा। ये राष्ट्र तेल, गैस, सौर ऊर्जा और पनबिजली के अकूत भंडार हैं। अकेले अफगानिस्तान में इतना लौह-अयस्क है कि संपूर्ण एशिया की जरूरत को वह सौ-दो सौ साल तक पूरा कर सकता है। नेपाल और भूटान की पनबिजली दक्षिण एशिया के हर घर को रोशन कर सकती है। इस इलाके की जमीन इतनी उपजाऊ है कि उसके खाद्यान्न, फल-फूलों और पशुधन से हर व्यक्ति को श्रेष्ठतम पोषण मिल सकता है। यदि इन 15 राष्ट्रों में मुक्त आर्थिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का वातावरण बन जाए तो मेरी पक्की राय है कि पांच वर्षों में इस क्षेत्र की गरीबी दूर हो सकती है और अगले 10 वर्षों में एशिया का यह हिस्सा यूरोप से भी अधिक समृद्ध, सुखी और सुरक्षित हो सकता है।
तो पिछले 65 वर्षों से ये राष्ट्र क्या करते रहे? इस क्षेत्रीय एकता का काम आगे क्यों नहीं बढ़ा? इसका सबसे बड़ा कारण हमारे नेताओं की दिमागी गुलामी थी। वे अपने दिलो-दिमाग को अपने अंग्रेज स्वामियों के साथ जोड़े हुए थे। मध्य-एशिया के पांचों गणतंत्र रूस के शिकंजे में थे। भारत और पाकिस्तान जैसे बड़े देशों के नेता अपने आस-पड़ोस के ‘छोटे-मोटेÓ देशों की बजाय दुनिया की महाशक्तियों के साथ पींगे भरने में मशगूल थे। उन्होंने विश्वयारी के चक्कर में पड़ोसियों की उपेक्षा की। अपने पड़ोस के एशिया को जोडऩे की बजाय वे गुटनिरपेक्षता की हवाई नेतागीरी में उलझे रहे। अब यह जो ‘दक्षेसÓ बना है, यह भी घोंघा गति से क्यों चल रहा है? क्या हमारे नेताओं को विश्व-राजनीति की घंटियों का निनाद सुनाई नहीं पड़ रहा?
सरकारों और नेताओं की अपनी सीमा होती है। सिर्फ उनके मत्थे दोष मढ़ देना ठीक नहीं है। वे सरकार के नेता होते हैं, समाज के नहीं। हम यह न भूलें कि एशियाई राष्ट्रों में आज भी सरकारों के बदले समाज कहीं अधिक शक्तिशाली है। दक्षेस या सार्क एक सरकारी संगठन है। आठ राष्ट्रों के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हर साल इक_े होकर एक औपचारिक कर्मकांड करते हैं और घर चले जाते हैं। काठमांडु स्थित सचिवालय इस गाड़ी को ठेलता रहता है। गाड़ी कुछ आगे जरूर बढ़ती है, लेकिन उसके पीछे जनता का धक्का नहीं होता है। जनदबाव का अभाव ही दक्षेस की शिथिलता का मूल कारण है।
पिछले माह अपने पाकिस्तान-प्रवास के दौरान वहां के नए और पुराने प्रधानमंत्रियों तथा विपक्षी नेताओं से बातचीत करते हुए मेरे मन में यह धारणा पक्की हो गई कि हमें अब जन-दक्षेस खड़ा करना होगा। ऐसा संगठन जो 15 पड़ोसी राष्ट्रों के करोड़ों लोगों के बीच सीधे संपर्क का सेतु बने। साल में कम से कम एक बार सभी 15 देशों के हजारों नागरिक किसी एक देश में इक_े हों, एक-दूसरे के घरों में रहें और संगोष्ठियों में उन सब मुद्दों पर चर्चा करें, जिनसे क्षेत्रीय आवागमन, परिवहन, व्यापार, पूंजी विनियोग, रोजगार, शिक्षा आदि के साझे दरवाजे खुलें। हजारों नागरिकों में यह सीधा संपर्क इस जन-दक्षेस के संपूर्ण भद्रलोक में एक नई दृष्टि और नई सृष्टि का संचार करेगा। अब से लगभग 10 वर्ष पहले जब जन-दक्षेस की इस अवधारणा को मैंने ढाका के एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में प्रस्तुत किया तो बांग्लादेश के अनेक अखबारों ने इसका स्वागत किया। बांग्ला विदेश मंत्री ने उसका मुख्यालय ढाका में ही स्थापित करने की पेशकश भी की।
इस महान लक्ष्य को प्राप्त करने का यह सही समय है। पाकिस्तान और भूटान में नई सरकारें आ गई हैं। नेपाल और मालदीव में भी कुछ ही हफ्तों में नया निजाम आनेवाला है। साल भर में ही भारत, अफगानिस्तान और म्यांमार में सत्ता परिवर्तन होगा। मध्य एशिया के गणराज्यों में फिलहाल बहु उथल-पुथल नहीं है। जन-दक्षेस का पहला काम तो यही होगा कि जिन सात राष्ट्रों की सरकारें दक्षेस में नहीं हैं, उनकी जनता को अपने से जोड़ें। कभी-कभी नेतागण अनजाने ही या अहंकारवश अपने पड़ोसी राष्ट्रों की उचित मांगों का भी विरोध करने लगते हैं। ऐसी स्थिति में जन-दबाव उन्हें सही पटरी पर लाएगा।
यदि ये राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय मामलों पर लगभग एक-जैसी राय रखने लगेंगे तो महाशक्तियों की दुरभिसंधियां अपने आप फीकी पड़ जाएंगी। इन राष्ट्रों को आपस में लड़ाकर अपनी गोटी गर्म करने की पुरानी नीति बेकार हो जाएगी। सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि जनता से जनता की घनिष्ठता के कारण युद्ध के बादल छंट जाएंगे। अरबों रुपए का खर्च हर साल बचेगा। इस पैसे का इस्तेमाल गरीबी दूर करने में होगा।
एशिया या भारत के इन 15 राष्ट्रों की सभ्यता और संस्कृति में जितनी गहरी और प्राचीन एकता है, उतनी यूरोपीय संघ के राष्ट्रों में नहीं है। यह हम पर निर्भर है कि हम हमारी इस बुनियादी सांस्कृतिक एकता की माला में हमारे आर्थिक और राजनीतिक हितों के मोतियों को कैसे पिरो सकते हैं। जन-दक्षेस की यह परिकल्पना डॉ. राममनोहर लोहिया के भारत-पाक महासंघ और गुरु गोलवलकर के अखंड भारत से भी कहीं अधिक व्यापक और आधुनिक है।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष
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