नभाटा,11 जनवरी 2002 : दक्षेस सम्मेलन हो गया, यही गनीमत है| जैसे पहले सोलह में से पाँच नहीं हुए, यह भी नहीं होता| इसके होने के जितने आसार थे, उससे ज्यादा नहीं होने के थे| नेपाल में माओवादियों का हमला और भारत में संसद पर आतंकवादियों का हमला, ये दो ऐसे तात्कालिक कारण थे कि अगर सातों राष्ट्र काठमाँडो में नहीं मिलते तो भी उन्हें कोई कुछ नहीं कहता| जब मेज़बान राष्ट्र में हिंसा का व्यापक दौर चल रहा हो और वहाँ आपात्काल लगा हुआ हो तो दक्षिण एशियाई राष्ट्राध्यक्ष कह सकते थे कि वे अपनी जान खतरे में नहीं डालना चाहते| इसी प्रकार भारत और पाक के बीच जब युद्घ के नगाड़े बज रहे हों तो दक्षेस की तूती बजाने काठमाँडो पहुँचना सचमुच हिम्मत की बात है| इन विषम परिस्थितियों में भी दक्षेस सम्मेलन हो गया, यह इस तथ्य का सूचक है कि दक्षिण एशिया के सातों राष्ट्रों में अभी भी आपसी सहकार की लौ बुझी नहीं है|
काठमाँडो सम्मेलन की सबसे बड़ी खूबी यह है कि सारी दुनिया का ध्यान उस बात पर गया, जो नहीं हुई| जो हुई, उस बात पर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा है| भारत और पाकिस्तान के नेताओं की औपचारिक भेंट क्या दक्षेस का एक मात्र् एजेंडा था ? वह नहीं हुई तो नहीं हुई| इसके अलावा दक्षेस के पास क्या कोई और काम-धन्धा नहीं था ? सच्चाई तो यह है कि दक्षेस का चार्टर द्विपक्षीय विवादों को उठाने की मनाही करता है| यदि द्विपक्षीय विवाद उठाने की अनुमति मिल जाए तो दक्षेस शिखर सम्मेलनों को अखाड़ा बनते कितनी देर लगेगी ? जनरल मुशर्रफ तो चाहते ही हैं कि ये सम्मेलन अखाड़े का रूप धारण कर लें| उन्होंने खुले-आम माँग की है कि दक्षेस में आपसी विवाद उठाने की अनुमति होनी चाहिए|
यदि यह अनुमति होती तो अब तक के सारे सम्मेलन दक्षेस सम्मेलन नहीं, भारत-विरोधी सम्मेलन बनकर रह जाते, क्योंकि भारत के हर पड़ौसी को उससे कुछ न कुछ शिकायत है| उसकी कोशिश होती कि दूसरे सदस्यों से मिलजुलकर भारत-विरोधी सामूहिक गान शुरू कर दिया जाए| दक्षेस की यह विचित्र्ता है कि इसके समस्त सदस्य मिल जाएँ तो भी वे भारत के आधे के बराबर भी नहीं बैठते, जबकि एसियान, यूरोपीय समुदाय, खाड़ी सहयोग परिषद्र, अफ्रीकी एकता संगठन आदि क्षेत्र्ीय संगठनों के सदस्यगण या तो लगभग बराबरी के हैं या उनका अन्तर उतना नहीं है, जितना दक्षेस के सदस्यों और भारत के बीच है| इसके अलावा भारत ही एक मात्र् ऐसा दक्षेस-राष्ट्र है, जिसकी सीमाएँ सभी पड़ौसी देशों को स्पर्श करती हैं| इसीलिए भारत के साथ सभी दक्षेस-राष्ट्रों के खट्टे-मीठे संबंध रहें, यह स्वाभाविक है| इसीलिए श्रीमती इंदिरा गाँधी ने दक्षेस की खिचड़ी को लंबे समय तक पकने दिया था| दूसरे शब्दों में दक्षेस राजनीति का अखाड़ा न बने, यह धारणा उसके संस्थापकों के मन में शुरू से रही है| इसके बावजूद सोलह वर्षों में दक्षेस सोलह कदम भी नहीं बढ़ पाया| इसका मूल कारण राजनीति ही है|
राजनीति भी सिर्फ दो देशों की है| भारत और पाकिस्तान की ! भारत और पाकिस्तान के खराब रिश्तों की काली
छाया दक्षेस के माथे पर सदा मँडराती रहती है| विवाद तो नेपाल और भूटान, भूटान और बांग्लादेश, बांग्लादेश और नेपाल के बीच भी हैं, लेकिन वे ऐसे नहीं हैं कि दक्षेस की प्रकि्रया को ही ठप कर दें| भारत और पाक के बीच सिर्फ विवाद ही नहीं है, एक ऐसी मानसिकता है, जो हर कदम में अपने विरुद्घ साजिश ढूंढती है और दक्षेस की गाड़ी को आगे ही नहीं खिसकने देती| चाहे मुक्त व्यापार का प्रश्न हो, गरीबी हटाने का सवाल हो, अशिक्षा की समस्या हो या चाहे आतंकवाद से लड़ने का संकल्प ही हो| दक्षेस ने संकल्प किया था कि 2001 तक दक्षिण एशिया में मुक्त-व्यापार की प्रकि्रया शुरू हो जाएगी लेकिन अभी वह तो बहुत दूर की कौड़ी है| अभी तक तो यह भी संभव नहीं हुआ है कि पाकिस्तान भारत को वही दर्जा दे दे, जो भारत ने उसे दिया हुआ है या ने ‘सर्वानुग्रहीत राष्ट्र’ का दर्जा ! इसी प्रकार दक्षेस ने 1987 में आतंकवाद-उन्मूलन का प्रस्ताव पारित किया था| इस प्रस्ताव का पाकिस्तान ने भी समर्थन किया था लेकिन पिछले 15 वर्ष में पाकिस्तान का रेकार्ड क्या रहा है ? आतंकवाद को बढ़ावा देने के अलावा उसने क्या किया है ? पाकिस्तान की कृपा से ही अफगानिस्तान विश्व-आतंकवाद की माता बन गया था और स्वयं पाकिस्तान उसका पिता ! यदि अमेरिका तालिबान की कमर तोड़ने पर आमादा नहीं होता तो आतंकवाद को अपनी विदेश नीति की सशक्त भुजा बनाकर पाकिस्तान एशिया की क्षेत्र्ीय महाशक्ति बनने के ख्वाब देखने लगा था| क्या यही दक्षेस-भावना का सम्मान है? दक्षेस के अन्य राष्ट्र क्षेत्र्ीय सहयोग के लिए तो लालायित हैं लेकिन उनमें इतना नैतिक साहस नहीं कि वे पाकिस्तानी आतंकवाद की स्पष्ट भर्त्सना कर सकें| इस बार भी जो आतंकवाद-विरोधी प्रस्ताव पारित हुआ है, वह भी थोथे सिद्घांतवाद का घण्टनाद है| उसके उल्लंघन द्वारा ही उसका पालन होगा| उसे लागू करने के लिए दक्षेस के पास क्या ताकत है ? कोई नैतिक शक्ति तक नहीं है| और अब तो दक्षेस का अध्यक्ष स्वयं पाकिस्तान हो गया है| चोर के हाथ में चाबी आ गई है| पाकिस्तान ने आतंकवाद को जिन उँचाइयों तक पहुँचाया है, शायद ही किसी राष्ट्र ने पहुँचाया हो| वह आतंकवादियों को स्वतंत्रता-सेनानियों की पदवी से विभूषित करता है और दक्षेस-सम्मेलन को उपदेश देता है कि वह आतंकवाद के मूल तक पहुँचने की कोशिश करे याने आतंकवाद को कुचलने की बजाय उसके उत्पन्न होने के कारणों की खोज करे| यही उपदेश श्रीलंका की राष्ट्राध्यक्ष श्रीमती चंदि्रका कुमारतुंग ने भी झाड़ दिया| चंदि्रका ने नाम लिए बिना तमिल आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए भारत पर भी व्यंग्य कस दिया| अच्छा हुआ कि भूटान के प्रधानमंत्री ने नेपाल पर यह आरोप नहीं लगाया कि वह भूटान के सीमावर्ती जिलों में बसे हुए नेपालियों को बगावत के लिए उकसा रहा है| भूटान और मालदीव के शासनाध्यक्षों ने दक्षेस की प्रगति पर जो दो-टूक निराशा व्यक्त की है, वह अत्यंत सामयिक और ध्यातव्य है|
दक्षेस की तुलना एसियान और यूरोपीय समुदाय से करना आसान है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये दोनों
क्षेत्र्ीय संगठन दक्षेस के मुकाबले बहुत पुराने हैं और दोनों की पीठ पर पश्चिमी महाशक्तियों का वरद्र-हस्त रहा है जबकि दक्षेस शुद्घ रूप से ‘अपुन भरोसे’ चलने की कोशिश करता रहा है| उसके कुछ सदस्यों (पाक और श्रीलंका) ने बाहरी ताकतों से दक्षेस की मदद करवाने की बजाय अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए उनसे अवांछित हस्तक्षेप भी करवाया है| इसके अलावा यूरोपीय राष्ट्रों और एसियान के देशों में भी प्रारंभ के कुछ वर्षों में काफी खींच-तान बनी रही| इसीलिए शुरू में उनकी विकास की रफ्तार ज़रा धीरे रही लेकिन जैसे ही उनके राजनैतिक और भौगोलिक विवाद नरम पड़े, उनके आर्थिक सहयोग की रफ्तार तेज़ हो गई| ऐसा नहीं है कि उनके बीच कोई विवाद है ही नहीं| अब भी इटली और आस्टि्रया में साउथ टिरोल, बि्रटेन और स्पेन में जिब्राल्टर तथा आयरलैंड और बि्रटेन में कैथोलिक आबादी को लेकर विवाद चलता रहता है| लातीनी अमेरिका में अर्जेन्टिना, ब्राजील, पनामा आदि के विवादों ने कई बार काफ़ी उग्र रूप धारण किया| इसी प्रकार आग्नेय एशिया में इण्डोनेशिया, मलेशिया और सिंगापुर में सीमाओं को लेकर बरसों-बरस विवाद चलते रहे| युद्घ की नौबत तक आ गई| ‘मेफिलिंडो’-जैसा क्षेत्र्ीय संगठन भी नष्ट-भ्रष्ट हो गया लेकिन इन सभी राष्ट्रों ने और खास तौर से इनमें जो झगड़ेबाज़ राष्ट्र हैं, उन्होंने धीरे-धीरे यह अच्छी तरह समझ लिया कि अगर वे अपनी दादागीरी नहीं छोड़ेंगे तो उनके क्षेत्रीय संगठन अधर में ही लटक जाएँगे और उनका अपना राष्ट्रीय विकास भी खटाई में पड़ जाएगा| यह बात पाकिस्तान को 55 साल में भी समझ नहीं आई है| इसका मूल कारण यह है कि पाकिस्तान को लगातार किसी न किसी कारण अमेरिका और चीन जैसे राष्ट्रों का प्रचंड समर्थन मिलता गया और उसकी हठधर्मिता बढ़ती गई| पहले शीतयुद्घ में रूस-विरोधी भूमिका, फिर अफगानिस्तान में रूस-विरोधी मोर्चे और अब तालिबान-विरोधी मोर्चे में अमेरिका के पिछलग्गू बन जाने के कारण पाकिस्तान को सदा सैन्य और आर्थिक सहायता सुलभ रही| वह यह समझ बैठा कि वह भारत को तोड़कर ही दम लेगा और बांग्लादेश का हिसाब चुकता करेगा| पाकिस्तान के इस उग्रवादी रवैए को कभी मौन और कभी स्पष्ट समर्थन देने में चीन और पश्चिमी राष्ट्र कभी नहीं चूके| इन नीतियों के कारण पाकिस्तान आर्थिक दृष्टि से कभी अपने पाँव पर खड़ा न हो सका और लोकतंत्र् भी वहाँ पनप न सका| वह गुट-निरपेक्ष जगत में भी सम्मान का स्थान न पा सका| इस्लामी जगत के नेतृत्व का उसका ख्वाब भी अधूरा ही रह गया| ऐसा निराश और हताश देश भला दक्षेस को क्यों चलने देगा ?
भारत को चाहिए था कि इस बार वह पाकिस्तान को दक्षेस से निकलवाने की रणनीति बनाता| यदि राष्ट्रकुल और
गुट-निरपेक्ष आंदोलन से बाहर रहने पर पाकिस्तान को अपने आप सबक मिलते गए तो ज़रा वह दक्षेस से भी बाहर रहने का मज़ा चखे| उसकी आतंकवादी नीति का खामियाज़ा भारत ही नहीं, नेपाल भी भुगत रहा है| दिसंबर’99 में भारतीय विमान का अपहरण नेपाल से ही हुआ था| सिर्फ दक्षेस के राष्ट्र ही नहीं, उज़बेकिस्तान और ताजि़किस्तान जैसे मध्य एशियाई राष्ट्र तथा रूस और अमेरिका भी पाकिस्तान की आतंकवाद-समर्थक नीतियों के शिकार हो चुके हैं| भारत के पिलपिले नेतागण पाकिस्तान के विरुद्घ आधे-अधूरे कदम उठाकर भारतीय जनता की वाहवाही लूटना चाहते हैं, लेकिन वे जड़ पर प्रहार नहीं करना चाहते| शायद उनमें हिम्मत ही नहीं है| उनमें आग देखने की दृष्टि भी नहीं है| वरना, दक्षेस के रथ को आगे बढ़ाने का इससे बढि़या कौन-सा मौका था ? पाकिस्तान को बाहर निकाल दिया जाता या मुअत्तिल कर दिया जाता और अफगानिस्तान को अंदर ले लिया जाता तो फौजी नेताओं को समझ में आ जाता कि आतंकवाद के कारण पाकिस्तान दक्षिण एशिया का कोढ़ी देश बन गया है और स्वयं दक्षेस की प्रेत-बाधा दूर हो जाती| दक्षेस के अन्य देश राजनीति को पीछे रखते और आर्थिक सहकार को आगे| जैसे ”यूरो’ की मुद्रा यूरोप में चलने लगी है, रूपए का सिक्का दक्षिण एशिया में दौड़ने लगता| अब भी पाकिस्तान अंदर है, इसके बावजूद अन्य राष्ट्र अपने आपसी उप-क्षेत्र्ीय सहयोग की अलग योजनाएँ क्यों नहीं बनाते ? पाकिस्तान यदि बाहरी शक्तियों के टुकड़ों पर जिंदा रहना चाहता है तो उसे रहने दिया जाए, कम से कम दक्षेस तो अपने लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ना शुरू करे|
यह कितना दुखद है कि काठमाँडो की 56 अनुच्छेद की पूर्ण दक्षेस-घोषणा पर पर्दा-सा पड़ गया है और आतंकवाद
संबंधी पाँच अनुच्छेदों पर सबका ध्यान जा रहा है| ये पाँच अनुच्छेद जबानी, जमा-खर्च बने रहेंगे| इन पर कोई अमल नहीं होगा| जरूरी यह है कि शेष 51 अनुच्छेदों पर दक्षेस के सातों राष्ट्र ध्यान दें और इस बात पर भी ध्यान दें कि जो राष्ट्र इन पर अमल नहीं होने दे रहा है, उसे दक्षेस में भी रहने दे या नहीं|
Leave a Reply