राष्ट्रीय सहारा, 26 जून 2013 : अमेरिका के विदेश मंत्री बनने के बाद जॉन कैरी की यह पहली भारत-यात्रा थी. जॉन कैरी सीनेट की शक्तिशाली विदेश-संबंध समिति के बरसों अध्यक्ष रहे हैं और उन्होंने भारत-अमेरिकी परमाणु समझौता करवाने में सक्रिय भूमिका अदा की थी. इस दृष्टि से उनकी भारत-यात्रा काफी महत्वपूर्ण थी लेकिन इससे नाटकीय नतीजों के सामने आने की संभावना कम ही थी. इसका अर्थ यह नहीं है कि कैरी की भारत-यात्रा निर्थक रही. ठीक है कि किसी नए बड़े समझौते पर दस्तखत नहीं हुए लेकिन दोनों सरकारों के बीच हुए कई ऐतिहासिक समझौतों को, जो अब तक अधर में लटके हैं, परवान चढ़ाने की बात हुई.
भारत-अमेरिकी संबंधों की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि परमाणु सौदा माना जाता है. इसके खातिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार को दांव पर लगाकर कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन तोड़ दिया था और कई प्रमुख कांग्रेसी नेताओं को भी नाराज कर दिया था. इस सौदे को संपन्न हुए चार साल हो गए लेकिन अब तक यह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा है. इसके मार्ग में दो बड़ी कठिनाइयां हैं. अमेरिकी संस्थाओं को भारत की वे शत्रे मंजूर नहीं हैं, जिनके मुताबिक परमाणु-दुर्घटनाओं के लिए उन्हें काफी मुआवजा देना पड़ेगा और दूसरा, वेस्टिंग हाउस द्वारा गुजरात में तथा जनरल इलेक्ट्रिक्स द्वारा आंध्र में छह-छह परमाणु भट्ठियां लगाने को अमेरिकी परमाणु नियामक आयोग की स्वीकृति अब तक नहीं मिली है. सलमान खुर्शीद और कैरी की बातचीत से संकेत मिलते हैं कि ये मुद्दे सितम्बर-अक्टूबर तक सुलझा लिए जाएंगे. उन्हीं दिनों प्रधानमंत्री की वाशिंगटन-यात्रा का भी कार्यक्रम बन रहा है.
परमाणु सौदे को अमली जामा पहनाने के लिए भारत के मुकाबले अमेरिका ज्यादा बेकरार है. अमेरिका को करोड़ों-अरबों डॉलर का फायदा तो है ही, भारत पर उसकी कूटनीतिक और राजनीतिक पकड़ भी मजबूत होगी. इस सौदे के बदले भारत चाहता है कि वह परमाणु सप्लायर्स ग्रुप का सदस्य बना लिया जाए, मिसाइल तकनीक नियंतण्रएजेंसी और वाजेनार व्यवस्था का अंग भी बन जाए. अमेरिका ने भारत का समर्थन तो किया है लेकिन जॉन कैरी ने न अपने भाषण में, न संयुक्त वक्तव्य में और न व्यक्तिगत बातचीत में भारत को आश्वासन दिया है कि वह उसे सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनवाने का समर्थन करेगा, जबकि अमेरिका के अभिन्न सहयोगी फ्रांस जैसे कई राष्ट्र भारत को इस बाबत स्पष्ट आश्वासन दे चुके हैं.
आखिर अमेरिका भारत को समझता क्या है? भारत पाकिस्तान तो हो नहीं सकता, किसी का पिछलग्गू नहीं बन सकता है. वह तो बराबरी के मित्र की तरह रह सकता है. इस समता-भाव के अभाव के कारण ही बहुत से अमेरिकी इरादे परवान नहीं चढ़ पाते. चीन के साथ दोस्ती की पींगें बढ़ाने में क्ंिलटन, बुश और ओबामा तक झुकने को तैयार रहते हैं लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र को बराबरी के दज्रे पर रखने में भी अमेरिका को संकोच है. समझ नहीं आता कि भारत का विदेश मंत्रालय सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के मसले पर अमेरिका को क्यों नहीं दबाता है? यह मामला भारत ही नहीं, संपूर्ण संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन का है, विश्व राजनीति को नई दिशा देने का है. दोनों विदेश मंत्रियों के बीच भारतीय कंपनियों के आईटी विशेषज्ञों के वीजा के सवाल पर भी बात हुई लेकिन इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी कैरी ने स्पष्ट आश्वासन नहीं दिया. अमेरिकी संसद में जिस आव्रजन विधेयक को लाने की बात है, अगर वह जस का तस पास हो गया तो भारतीय विशेषज्ञों को अमेरिका जाने में बड़ी दिक्कत होगी.
इस समय अमेरिका की अर्थव्यवस्था और सूचना तकनीक को, जो भारतीयों का योगदान मिल रहा है, वह घटेगा; लेकिन ओबामा स्थानीय लोगों को खुश करने के लिए ऐसी व्यवस्था बना रहे हैं, जिससे अमेरिका का ही नुकसान ज्यादा होगा. इस मुद्दे को भी 12 जुलाई की उस बैठक के लिए टाल दिया गया है, जो वाशिंगटन में बड़ी कंपनियों के मुख्य अधिकारियों के बीच होनी है. इस प्रकार दोनों देशों में पूंजी-विनियोग की संधि भी टल गई है. अमेरिकी दवा-निर्माता कंपनियों के मामले को अमेरिकी अफसरों ने जमकर उठाया. वे चाहते हैं कि भारत की उन कंपनियों पर प्रतिबंध लगे, जो कैंसर आदि की दवाएं यहीं बना लेती हैं.
जो दवाई अमेरिका में लाखों रुपए की बिकती हैं, वे भारत में कुछ हजार में ही बन जाती हैं. भारत के उच्चतम न्यायालय ने इसे अंतरराष्ट्रीय कॉपीराइट का उल्लंघन नहीं बताया है. अमेरिकियों को डर है कि दूसरे देशों के दवा-निर्माता भी यही करने लगे तो अमेरिका का खरबों डॉलर का दवा-धंधा चौपट हो जाएगा. इस मामले में भी भारत सरकार का रवैया दो-टूक होना चाहिए. यदि अमेरिकी नेता अपनी कंपनियों का धंधा बचाने के लिए खुले में खम ठोंक सकते हैं तो हम अपने गरीब लोगों की जान बचाने के लिए मुंहफट क्यों नहीं हो सकते?
तालिबान से सीधी अमेरिकी बातचीत के सवाल पर भारत का रवैया दबा-दबा सा रहा लेकिन हामिद करजई की जवांमर्दी ने जॉन कैरी को भारत में सफाई देने पर मजबूर कर दिया. अमेरिकियों और पाकिस्तान की मदद से जब कतर की राजधानी दोहा में तालिबान ने दफ्तर खोल लिया तो करजई ने अमेरिका से चल रही अपनी सुरक्षा-वार्ता भंग कर दी. अब कैरी ने यह सफाई पेश की है कि तालिबान से असली वार्ता तो अफगान सरकार ही करेगी बशत्रे वे लोग अफगान-संविधान मानें, हिंसा त्यागें और अल-कायदा से संपर्क तोड़ें. वास्तव में अमेरिका के लिए सिर्फ तीसरी शर्त ही मुख्य शर्त है. उसे तो अपना उल्लू सीधा करना है. वह अफगानिस्तान से ससम्मान वापसी चाहता है. उसे तालिबान की किसी अन्य बात से एतराज नहीं है.
पांच साल के तालिबानी शासन के दौरान वाशिंगटन और काबुल के संबंध मधुर ही रहे. तालिबान के शीर्ष नेताओं से वाशिंगटन का संपर्क कायम रहा. उन दिनों अमेरिकी कंपनियां मध्य एशिया के राष्ट्रों से तेल और गैस अफगानिस्तान-पाकिस्तान होकर हिंद महासागर तक लाना चाहती थीं. अमेरिका को इसकी कोई परवाह नहीं थी कि काबुल में तालिबान का राज है या मुजाहिदीन का. अब भी वह अफगान सरकार को दरकिनार कर अंदर ही अंदर तालिबान से समझौता चाहता है. उसकी इस गुप्त-कूटनीति का दुष्परिणाम क्या होगा, वह अच्छी तरह जानता है.
उसे पता है कि तालिबान का मनोबल ऊंचा होगा और करजई सरकार का नीचा. अफगान फौज और पुलिस भी घबराहट महसूस करेंगी. अगर तालिबान का काबुल पर कब्जा हो गया तो सबसे ज्यादा खतरा भारत को ही होगा. कैरी कुछ भी कहें, भारतीय नीति-निर्माताओं को उक्त बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए. क्या भारत के विदेश मंत्रालय के पास कोई सुनिश्चित अफगान-नीति है? वह अमेरिका के भरोसे रहा तो पछताए बिना न रहेगा. उसे अमेरिका के विशेष दूत जेम्स डोबिन के साथ दो-टूक बात करनी चाहिए.
जहां तक कुछ अन्य प्रमुख विदेशी मामलों का सवाल है, भारत की राय अमेरिका से भिन्न है. जैसे ईरान, सीरिया, चीन संबंधी मामलों में! भारत ने राय जाहिर की है लेकिन दबी जुबान से! कम से कम अपने क्षेत्र के मामलों में भारत का दब्बूपन शोभा नहीं देता. उसने आतंकवाद के विरुद्ध सीधी कार्रवाई की बात संयुक्त विज्ञप्ति में क्यों नहीं कही? कैरी का यह कथन आपत्तिजनक नहीं है कि भारत और पाक एक-दूसरे के यहां पूंजी लगाएं, लेकिन इसे देखकर अन्य देश भी पूंजी लगाएंगे, यह कौन-सा तर्क है?
इसी प्रकार अमेरिका को ईरान के विरुद्ध सनक सवार है. जैसे उसने सद्दाम पर रासायनिक हथियारों का झूठा आरोप लगाया था, वैसे ही अब ईरान पर परमाणु बम बनाने का इल्जाम लगा रहा है. भारत को चाहिए कि अमेरिका के प्रतिबंधों का साथ देने की बजाय वह दोनों के बीच मैत्रीपूर्ण मध्यस्थ का काम करे. कैरी की यात्रा के दौरान भारत यह पहल कर सकता था लेकिन जिस सरकार के हाथ से घरेलू मामलों की लगाम छूट चुकी है, उससे विदेशी मामलों में पहल की क्या उम्मीद की जाए?
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