नया इंडिया, 24 फरवरी 2014: अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा और दलाई लामा की भेंट ने चीन की त्यौरियां चढ़वा दी हैं। दलाई लामा 2011 में भी ओबामा से मिल थे। लेकिन इस बार चीन इतना घबराया हुआ है कि उसने इस भेंट को दो राष्ट्रपतियों की भेंट मानकर कठोर कूटनीतिक प्रतिक्रिया दे डाली है।
दलाई लामा अगर तिब्बत में होते और उस पर चीन का कब्जा नहीं होता तो उनकी स्थिति तिब्बत के राष्ट्राध्यक्ष की ही होती लेकिन इस समय तो वे एक शरणार्थी हैं। सो ध्यान रहे ओबामा ने उनसे मिलकर उन्हें या तिब्बत को किसी प्रकार की कूटनीतिक मान्यता नहीं दी है। ओबामा ने साफ-साफ कहा है कि अमेरिका तिब्बत को चीन का हिस्सा मानता है और वह तिब्बत के अलगाव का भी समर्थन नहीं करता है। वह तो सिर्फ तिब्बतियों के मानवीय और धार्मिक अधिकारों के बारे में चिंतित है। इसके अलावा ओबामा ने जो खास बात कही, वह यह है कि दलाई लामा एक विश्व-पुरूष हैं। वे एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व हैं। उनका किसी भी धर्म के तथाकथित जगतगुरूओं से अधिक सम्मान है। राष्ट्रों के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री उनसे मिलकर आध्यात्मिक शांति का अनुभव करते हैं और गौरवान्वित भी होते हैँ।
लेकिन चीन दलाई लामा से इतना चिढ़ता है कि उसका प्रचार तंत्र निरंतर उनके विरूद्ध जहर उगलता रहता है। इसमें शक नहीं कि दलाई लामा के भारत आने के बाद तिब्बत में जितनी बगावतें, आत्महत्याएं और हिंसा हुई हैं उनके प्रति अमेरिका की सहानुभूति रही है लेकिन चीन के अनुसार अमेरिका उनको उकसाता भी रहा है। यह सच हो सकता है लेकिन हम यह न भूलें कि वह शीतयुद्ध का जमाना था। अब चीन के साथ अमेरिका अपने संबंध बेहतर बनाना चाहता है और वह यह भी जानता है कि भारत ने भी तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग मान लिया है। ऐसी स्थिति में चीन को अपना रवैया बदलना चाहिए। उसे तिब्बत के बारे में बीमार दिमाग से काम नहीं लेना चाहिए।
स्वयं दलाई लामा कह चुके हैं कि तिब्बत के स्वतंत्र राष्ट्र होने का प्रश्न ही नहीं उठता। वे तो तिब्बत के लिए सिर्फ स्वायत्तता चाहते हैं। उस स्वायत्तता का अर्थ अपनी सभी धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषायिक परंपराओं की रक्षा करना है। इस सबको स्वीकार करने में तो चीन का लाभ ही है। चीनी संस्कृति के इंद्रधनुष में एक सुरीला रंग और चमकेगा। आज का चीन माओ का चीन नहीं है। आज उसमें हांगकांग भी शामिल है, जो तिब्बत से अधिक शक्तिशाली, खुला और ताकतवर है। ताईवान से भी मिलने के संकेत आते रहते हैं। यह वह समय है, जबकि एक तनावमुक्त और संदेहमुक्त महाशक्ति की तरह यदि चीन काम करे तो 21वीं सदी को वह नए रंग-रूप में ढाल सकता है। वह दलाई लामा से अगर खुद सीधे बात करे तो संदेह के बादल घट सकते हैं।
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