नया इंडिया, 15 नवंबर 2013 : आजकल आत्मकथाएं इतनी छप रही हैं और उनमें ऐसी-ऐसी बातें लिखी जा रही हैं कि उन पर विश्वास करें या न करें। एक अफसर ने लिखा है कि नेहरु ने पटेल को ‘घोर सांप्रदायिक’ कहा और मेरे सामने कहा। इस कथन को पुष्ट करने के लिए न तो नेहरु हमारे साथ हैं और न ही पटेल! इसी तरह अभी एक अन्य आत्मकथा प्रकाशित हुई है, एक पुराने सीबीआई के निदेशक की! डा. ए.पी. मुखर्जी की इस पुस्तक ‘अननोन फेसेट्स आफ राजीव गांधी, ज्योति बसु एंड इंद्रजीत गुप्ता’ में हमारे देश के कुछ प्रमुख नेताओं के अज्ञात पहलुओं को अनावृत्त किया गया है। डा. मुखर्जी ने श्री राजीव गांधी के बारे में जो बात लिखी है, वह हर राजनेता पर इतनी ज्यादा लागू होती है कि उस पर कोई भी अविश्वास नहीं कर सकता लेकिन मुखर्जी के लिख देने से अब इतना जरुर होगा कि हमारी राजनीति के भ्रष्ट होने की मजबूरियों पर से पर्दा हटेगा।
उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और मुखर्जी सीबीआई के निदेशक थे। राजीव गांधी को पता चला कि हथियारों के सौदों में विदेशी कंपनियां बिना मांगे ही नेताओं, मंत्रियों, नौकरशाहों और बिचैलियों को दलाली देती हैं। उस ज़माने में भी यह राशि करोड़ों की होती थी। यदि कुछ अपने लिए ज्यादा पैसा चाहते तो वे मांग कर देते थे। ये विदेशी कंपनियां अपनी चीज़ों के दाम बढ़ा देती थीं और उस अतिरिक्त दलाली का भी भुगतान कर देती थीं। भुगतान या तो नकद होता था या विदेशी बैंकों के गुप्त खातों में जमा होता था। मुखर्जी ने लिखा है कि राजीव गांधी इस धंधे से बहुत खफा थे। वे इस दलाली पर प्रतिबंध लगाना चाहते थे। उन्हें खुद तो कुछ अनुभव नहीं था। उन्होंने अपने कई बुजुर्ग साथियों से सलाह की।
इसी सलाह के आधार पर उन्होंने मुखर्जी से कहा कि अब दलाली का यह सारा पैसा व्यक्तिगत जेबों में जाने की बजाय पार्टी-कोष में जाना चाहिए। पार्टी के खर्चे इतने ज्यादा हैं और अनिवार्य हैं कि उसे ही यह पैसा मिलना चाहिए, व्यक्तियों को नहीं। राजीव की यह बात मुखर्जी ने इस ढंग से पेश की है कि इससे राजीव की छवि सुधरती है लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि भ्रष्टाचार को कैसे संस्थागत रुप मिलता है? वह कैसे सम्मानजनक बनता है? वह कैसे सुरक्षित हो जाता है? उस पर कैसे एकाधिकार हो जाता है? इसीलिए बोफर्स में खाई गई दलाली आज तक सिद्ध नहीं हुई। रिन्द के रिन्द रहे और जन्नत भी न गई। एक अर्थ में जन्नत तो चली गई। राजीव हार गए और बदनाम भी हो गए लेकिन उन्होंने जो परंपरा कायम की, वह आज सुरसा के बदन की तरह फैल गई है। अब बोफर्स की तरह 60-65 करोड़ नहीं, अरबों-खरबों खाए जाते हैं। खानेवाले या तो सीना तानकर घूमते हैं या उनमें से कुछ छोटे-मोटे गिरफ्तार भी होते हैं तो जल्दी ही छूट जाते हैं। जेल में रहकर वे मुफ्त की रोटियां तोड़ते हैं। ऐसा इसीलिए होता है कि सारे भ्रष्टाचार के टोकरे पर सत्तारुढ़ दलों का ढक्कन लगा होता है।
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