दैनिक भास्कर, 24 अगस्त 2013 : डॉ. दाभोलकर उस महान परंपरा के सपूत थे, जिसका सूत्रपात 19वीं सदी में महर्षि दयानंद सरस्वती और राजा राममोहन राय ने किया था। वे 30 साल पहले डॉक्टरी छोड़कर पूरा वक्त समाज सुधार में देेने लगे थे। उन्होंने महिलाओं को मंदिर प्रवेश का कानूनी अधिकार दिलवाया।
डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर की हत्या पर देश में आक्रोश की जैसी आंधी उठनी चाहिए थी, नहीं उठी। आंधी उठाने में मीडिया की भूमिका सर्वप्रमुख होती है। हमारा मीडिया आजकल कोयला घोटाले की गुमी हुई फाइलों, सरकार और रुपए की गिरती कीमतों, सीमांत पर पाकिस्तान की कारगुजारियों आदि मामलों में उलझा हुआ है। संसद भी इन मामलों को लेकर चल रही है और बार-बार बंद हो रही है। उसे दाभोलकर की हत्या पर प्रतिक्रिया देने की फुर्सत भी नहीं है।
किसी सांसद या नेता के न रहने पर संसद के सत्र को स्थगित कर देना समझ में आता है, लेकिन दाभोलकर जैसे क्रांंतिकारी और प्रामाणिक समाज-सुधारक की जघन्य हत्या के मौके पर हमारी संसद का मौन आखिर किस बात का सूचक है? क्या इसे इस बात का संकेत नहीं समझा जाएगा कि हमारा भारतीय समाज हीरे और कंकड़ में फर्क करना नहीं जानता?
दाभोलकर जैसे लोग भारत में कितने हैं? वे उस महान परंपरा के सपूत थे, जिसका सूत्रपात उन्नीसवीं सदी में महर्षि दयानंद सरस्वती और राजा राममोहन राय जैसे महापुरुषों ने किया था। इस परंपरा को आगे बढ़ानेवालों में डॉ. बाबा साहब आंबेडकर, ज्योतिबा फुले, डॉ. राम मनोहर लोहिया आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं। दाभोलकर पेशे से डॉक्टर थे लेकिन उन्होंने लगभग 30 साल पहले अपनी डॉक्टरी छोड़ दी। गृहस्थी का बोझ डॉक्टर पत्नी पर डाल दिया और अपना पूरा समय समाज-सुधार के कामों में देने लगे।
उन्होंने स्त्रियों के मंदिर प्रवेश का आंदोलन चलाया। महाराष्ट्र के विभिन्न शहरों और गांवों से चलकर आई सैकड़ों स्त्रियों ने अहमदनगर के शनि मंदिर के द्वार खुलवाए। बाद में डॉ. दाभोलकर सारे मामले को अदालत में ले गए और उन्होंने स्त्रियों को मंदिर-प्रवेश का कानूनी अधिकार दिलवाया। पहले जिन लोगों ने दाभोलकर का विरोध किया था, उन्हीं संगठनों ने बाद में अपने-अपने क्षेत्र में इसी आंदोलन को चलाया।
जिस कारण डॉ. दाभोलकर की हत्या हुई, वह था, उनका अंध-श्रद्धा-विरोध! उन्होंने अपने संगठन ‘महाराष्ट्र अंध-श्रद्धा उन्मूलन समितिÓ की ओर से देश में चलनेवाले भूत-प्रेतों के टोटके, जादू-टोने, तंत्र-मंत्र, पाखंड, ढोंग, हवाई चमत्कारों आदि का जमकर विरोध किया। वे अपनी पत्रिका ‘साधनाÓ में बड़े-बड़े तथाकथित साधु-संतों, तांत्रिकों-मांत्रिकों, श्यानों-भोपों और जादूगरों की पोल खोलते थे और आम जनता को इन ठगों से सावधान करते रहते थे। वे धर्म या ईश्वर विरोधी नहीं थे लेकिन उनका कहना सिर्फ यह था कि जो भी बात आप मानें, उसके बारे में पहले तर्क करें। यानी वैज्ञानिक मिजाज बनाएं।
यह ठीक है कि मानवीय मामलों में सदा विज्ञान और गणित के अनुसार चलना असंभव होता है। विज्ञान, गणित और तर्क के परे भी एक दुनिया है और उसका दायरा बहुत बड़ा है लेकिन दाभोलकर जैसे लोगों का कहना है कि आप देखते हुए भी मक्खी क्यों निगल रहे हैं? श्रद्धा का अर्थ है सत+धा अर्थात सत्य के द्वारा धारण करना।
लेकिन हमारे दैनंदिन कार्यकलापों और सामाजिक चेतना को धर्म और श्रद्धा के नाम पर इस तरह नियंत्रित कर लिया जाता है कि हमें पता ही नहीं चलता कि हमारी सामान्य बुद्धि को ताक पर रख दिया गया है। क्या यह संभव है कि पत्थर की मूर्तियां दूध पीने लगें? क्या किसी ने देखा है कि कोई बाबा बिना औजार सिर्फ उंगली से शल्य-चिकित्सा कर दे? क्या यह संभव है कि कोई तांत्रिक किसी स्त्री के मुंह में थूक दे और वह पुत्रवती हो जाए? क्या कभी ऐसा हो सकता है कि कोई बाबा की जूठन खा ले तो दूसरे दिन परीक्षा में उसे सबसे ज्यादा अंक मिल जाएं?
लेकिन इस तरह के पाखंड भारत में ही नहीं, दुनिया के सभी देशों में चलते हैं। जिन देशों में साम्यवाद रहा है, उनमें भी मैंने अपनी आंखों से लोगों को अंधविश्वास की नदी में डुबकी लगाते देखा है। आखिर ऐसा होता क्यों है? इसीलिए कि सभी मजहबों में अंधविश्वास को अति महत्वपूर्ण स्थान मिला हुआ है। किन-किन धर्मग्रंथों के नाम गिनाएं, जिनमें ईश्वरीय चमत्कारों का पाखंड नहीं फैलाया गया है। इन धर्मग्रंथों में सर्वथा अवैज्ञानिक और तर्कहीन बातें कही गई हैं। लेकिन उनका विरोध कौन करे? प्रवाह के विरुद्ध कौन तैरे? यूरोप में गैलीलियो जैसे कई वैज्ञानिकों और नीत्शे, इमेनुअल कांट और तॉल्सतॉय जैसे विचारकों को मर्मांतक-प्रताडऩाएं सहनी पड़ी हैं। अपने देश में पाखंड खंडनी पताका गाडऩे के लिए ही महर्षि दयानंद को अपने प्राणों की बलि चढ़ानी पड़ी थी।
दाभोलकर की हत्या कोई मामूली अपराध नहीं है। यह सिर्फ एक-दो सिरफरे लड़कों द्वारा किया गया कुकर्म नहीं है। यह हमारे समाज में छिपी गहरी बीमारी का विस्फोट है। यदि हमारा समाज इस बीमारी से ग्रस्त नहीं होता तो इस हत्याकांड पर पूरा देश भड़क उठता लेकिन उसने इस सारे जघन्य कुकर्म को आसानी से पचा लिया। जरा तुलना करें, रामलीला मैदान और जंतर-मंतर पर हुए नाटकों से, इस घटना की। जरा तुलना करें, उन क्षणिक महानायकों से, इस कर्मवीर दाभोलकर की! पिछले 18 साल से दाभोलकर अंधविश्वास उन्मूलन के लिए कानून बनवाने की कोशिश कर रहे थे।
महाराष्ट्र सरकार की नींद अब खुली। वह अध्यादेश ले आई है लेकिन क्या सिर्फ कानून से अंध-श्रद्धा यानी अंधविश्वास समाप्त किया जा सकेगा? कानून का कुछ न कुछ असर जरूर होगा लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है कि बाल्यकाल से ही बच्चों को बुद्धिवादिता और तार्किकता के संस्कार दिए जाएं। समाज में ढोंग और पाखंड इसीलिए जिंदा हैं कि लोग अपनी हर समस्या का समाधान अति सस्ता और अति सरल रास्ते से चाहते हैं। हमारे देश में सस्ता और सरल रास्ता बतानेवाले तांत्रिकों-मांत्रिकों की दुकानें चलती ही इसलिए हैं कि लोग ठगे जाने को तैयार बैठे रहते हैं।
दाभोलकर का बलिदान हमारे लोकतंत्र के लिए भी बड़ी चुनौती है। हम यह समझ बैठे हैं कि सिर्फ राजनीति ही देश के उद्धार के लिए काफी है लेकिन हम यह भूल गए कि हमारी राजनीति भी इसलिए भ्रष्ट हो गई है कि हमारा समाज अंधविश्वास का शिकार हो गया है। एक ही नेता, एक ही परिवार, एक ही पार्टी के प्रति लोगों के अंधविश्वास ने हमारी राजनीति को पंगु बना दिया है। उसकी द्वंद्वात्मकता नष्ट कर दी है। राजनीति को बदलने के लिए पहले हमें अपने समाज को बदलना होगा। दाभोलकर ने अपने प्राणों की आहुति चढ़ाकर समाज को बदलने का शंखनाद कर दिया है।
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