नया इंडिया, 08 अक्टूबर 2013 : पिछले आम चुनाव में किस पार्टी ने कितना खर्चा किया और उसमें से कितना पैसा नकद आया और कितना चेक से, यह अभी चुनाव आयोग ने बताया है। ये आंकड़े चुनाव आयोग ने अपनी जांच-पड़ताल से इकट्ठे नहीं किए हैं। ये उन पार्टियों ने अपनी तरफ से दिए हैं। पहले हम इन आंकड़ों को देखें और फिर उनका विश्लेषण करें। 2009 के पिछले चुनाव में भाजपा का दावा है कि उसने 448 करोड़ रु. खर्च किए, जिसमें से 49 प्रतिशत चेक से आए, बाकी 51 प्रतिशत नकद आए।
कांग्रेस का दावा है कि उसने सिर्फ 380 करोड़ रु. खर्च किए, जिसमें से सिर्फ 24 प्रतिशत चेक से आए और 76 प्रतिशत नकद आए। क्षेत्रीय पार्टियों के हिसाब तो और भी चमत्कारी हैं। उनमें से कई पार्टियों को दस प्रतिशत भी चेक से नहीं मिला है। अब इन पार्टियों से पूछा जाए कि उन्होने यह हिसाब जो चुनाव आयोग को दिया है, उसकी प्रामाणिकता क्या है? क्या वे यह दावा कर सकती हैं कि उनके पास जो भी राशि आती है, उसकी वे रसीद बनाती है? क्या सारी राशि पार्टी दफ्तरों के कोषाध्यक्षों के पास ही जमा होती है? क्या पार्षद, विधायक और सांसद लोगों से सीधे कुछ नहीं वसूलते और जो कुछ वसूलते हैं क्या उसे वे पार्टी कोश में जमा करवा देते हैं? यदि उन सबकी आमदनियों और खर्चों का पूरा हिसाब सामने आ जाए तो वह कम से कम दस गुना होगा। तीन-चार सौ करोड़ नहीं, तीन-चार हजार करोड़ होगा।
क्या आज एक करोड़ या 50 लाख रु. प्रति सीट के हिसाब से लोकसभा की 540 और लगभग 4 हजार सीटें विधानसभा की लड़ी जा सकती हैं, ? इसीलिए ये आंकड़े हाथी-दांत की तरह हैं बल्कि उनसे उल्टे हैं। यहां दिखाने के दांत छोटे हैं और खाने के बड़े हैं। भाजपा का खर्च कांग्रेस से ज्यादा निकला! इसका अर्थ आप समझे? इसका सीधा-सादा अर्थ है कि भाजपा के नेता कच्चे खिलाड़ी हैं। एक तो उन्होंने चेक से लगभग 50 प्रतिशत दिखा दिया जबकि कांग्रेस ने उससे आधा ही दिखाया। काले को धौला करने की कला भाजपा वालों को कांग्रेसियों से सीखनी होगी और अनुपात-बोध भी उनसे ही सीखना होगा।
आप 2009 का चुनाव हार गए और आपने खर्च भी कांग्रेस से सवाया दिखा दिया! अरे, आप उनसे आधा दिखा देते तो आपकी इज्जत कौनसी कम हो जाती? जरा क्षेत्रीय पार्टियों को देखिए, जिनके नेता टीवी के पर्दे पर नोटों के बंडल झपटते हुए दिखाई पड़ते हैं और जिन पर अनाप-शनाप आमदनियों के मुकदमे चल रहे हैं, अपनी पार्टियों की आमदनी और खर्च ऐसे दिखा रहे हैं, जैसे कि वे राजनीतिक पार्टियां नहीं, गरीब अनाथालय हों। देश की सभी पार्टियों का हिसाब-किताब जब तक पारदर्शी नहीं होगा, हमारी राजनीति भ्रष्टाचार मुक्त नहीं होगी। जब राजनीति का श्रीगणेश ही रिश्वत, अपराध, दलाली, दादागीरी और ब्लैकमेल के पैसे से होता है तो उसका संचालन शुद्धतापूर्वक कैसे हो सकता है? चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय चाहे तो सारे दलों को अपनी वित्तीय शुचिता के लिए मजबूर कर सकता है।
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