नया इंडिया, 31 अक्टूबर 2014: दिल्ली के उप-राज्यपाल नजीब जंग यदि भाजपा, आप और कांग्रेस की कोई मिली-जुली सरकार खड़ी कर सकें तो यह एक लोकतांत्रिक चमत्कार ही होगा। अभी तो वे सिर्फ उप-राज्यपाल हैं। फिर उन्हें भारत का अगला राष्ट्रपति चुनने में भी किसी को एतराज़ नहीं होगा। अदालत ने फटकार लगाने के बाद भी उन्हें मोहलत दे दी है लेकिन अदालत जरा खुद सोचे कि दिल्ली में सरकार कैसे बन सकती है? और धींगामस्ती करके बना भी ली गई तो वह चलेगी कैसे? जिस दिन शक्ति परीक्षण होगा, वह उसी दिन धराशायी हो जाएगी।
भाजपा के कुछ नेताओं का यह सोचना कि वे सरकार बना सकते हैं, बिल्कुल अनैतिक और अव्यावहारिक है। अनैतिक इसलिए कि भाजपा के पास उतनी सीटें भी नहीं हैं, जितनी कि चुनाव के बाद थीं। तीन सीटें कम हो गई हैं। जब ज्यादा सीटें होने पर उसने सरकार बनाने से मना कर दिया तो अब कम सीटें होने पर वह कौन सा जादू चलाएगी? आज की परिस्थिति में सरकार बनाने की बात करना ही अपनी छवि बिगाड़ना है। अपने आपको अनैतिक होने का प्रमाण-पत्र देना है।
भाजपा का सरकार बनाना अव्यावहारिक इसलिए भी है कि वह गठबंधन किसके साथ करेगी? क्या कांग्रेस के साथ? असंभव! क्या ‘आप’ के साथ? संभव है। लेकिन यह अमृतघट विषभरा है। जिस पार्टी के साथ उसकी असली टक्कर होनी है, उसके कंधे पर बैठकर सरकार बनाना क्या किसी विषपान से कम है? वह सरकार कितने दिन चलेगी? उतने दिन भी नहीं, जितने दिन ‘आप’ की शेखचिल्ली सरकार चली थी।
तो क्या भाजपा चाहती है कि वह सरकार बना ले, उसे चाहे जल्दी ही तोड़ दे लेकिन अगला चुनाव तो वही करवाए? इससे बढ़कर ‘चोर-दरवाजा प्रवेश’ क्या हो सकता है? आज राष्ट्र के नेतृत्व का दम भरने वाली पार्टी के लिए क्या यह शोभा देगा? ऐसी छवि उसको चुनाव में पटकनी खिला देगी। बेचारे नरेंद्र मोदी की उल्टी गिनती शुरु हो जाएगी। यह भी कितने अफसोस की बात है कि अदालतें हमारे नेताओं के कान खींचती रहती हैं। उनकी रही-सही इज्जत भी आए दिन धूल-धूसरित होती है। नेता अपने भाग्य का खुद फैसला क्यों नहीं करते? सभी पार्टियां मिलकर उप-राज्यपाल से विधानसभा भंग करने के लिए क्यों नहीं कहतीं?
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