जनसत्ता, 19 मार्च 2008 : पाकिस्तानी चुनाव में कश्मीर कोई खास मुद्दा था ही नहीं| न तो नेतागण अपनी सभाओं में उसका जिक्र करते थे और न ही उम्मीदवारों को फुर्सत थी कि वे कश्मीर के सोये भूत को जगाऍं| सारे नेता, अखबार और चैनल फौजी तानाशाही, अमेरिकी वर्चस्व, आतंकवाद, बेनज़ीर की हत्या और मंहगाई को मुद्दा बनाए हुए थे| लेकिन कश्मीर पर अचानक ऩकली बहस चल पड़ी है| लाहौर और इस्लामाबाद के अखबार छह-छह कालमों के शीर्षक लगाकर कश्मीर को दुबारा उछाल रहे हैं| पाकिस्तान के सेनापति जनरल अशफाक़ परवेज़ कयानी ने फौजियों को संबोधित करते हुए दो-टूक शब्दों में कहा है कि कश्मीर के सवाल पर पाकिस्तान में राष्ट्रीय सहमति है और पाकिस्तानी जनता की महत्वाकांक्षा को ध्यान में रखते हुए फौज कश्मीर के सवाल पर पूरी तरह से डटी रहेगी| कयानी ने यह नहीं कहा कि पाकिस्तानी फौज कश्मीरी जनता की महत्वाकांक्षा का ध्यान रखेगी| कश्मीर की जनता के बजाय पाकिस्तानी जनता की महत्वाकांक्षा का मतलब है, जब तक पाकिस्तान पूरे कश्मीर पर कब्जा नहीं कर लेगा, चुप नहीं बैठेगा| अब तक यह माना जा रहा था कि पाकिस्तानी फौज को 60 साल में पहली बार यह समझ में आया है कि कश्मीर का कोई फौजी हल नहीं है| यह हल सिर्फ बातचीत से ही हो सकता है| इसीलिए जनरल मुशर्रफ ने कई नए फार्मूले उछाले थे| लेकिन अभी चुनाव के बाद ऐसा क्या हुआ कि कश्मीर पर दुबारा बहस चल पड़ी?
कुछ दिन पहले पीपीपी के नेता आसिफ अली ज़रदारी ने एक भारतीय टीवी चैनल से कह दिया कि कश्मीर का मसला बातचीत से हल करेंगे और उसे भारत-पाक मैत्री के मार्ग का रोड़ा नहीं बनने देंगे| कश्मीर पर असहमति के बावजूद दोनों राष्ट्रों के संबंध सहज होते चले जाऍंगे| पाकिस्तान की सबसे बड़ी पार्टी के नेता और भावी प्रधानमंत्री का बयान आते ही पाकिस्तान के उग्रवादी ही नहीं, अनेक संयत नेताओं ने भी कश्मीर के भूत को दुबारा जगा दिया| भारत-विरोधी अखबारों को चटापटा मुद्दा मिल गया| इस अभियान में असली निशाना कश्मीर था या नहीं, ज़रदारी जरूर थे| ज़रदारी का विरोध डॉ. मुबशर हसन जैसे भारत-पाक मैत्री के पक्षधर नेताओं ने भी किया| उर्दू अखबारों ने तेजाबी संपादकीय भी लिखे| कुछ टीवी चैनलों ने मुझसे भी प्रतिकि्रया मॉंगी| मामला इतना आगे बढ़ा कि बेचारे ज़रदारी को सफाई पेश करनी पड़ी| पीपीपी ने बयान जारी करके कहा कि वह कश्मीर को दरकिनार नहीं कर रही है और न ही वह यू.एन. प्रस्ताव को वापस लेने के पक्ष में है| वह कश्मीरी जनता की इच्छानुसार कश्मीरी मुद्दे को बातचीत से हल करने के पक्ष में है और उसका पक्ष यह भी है कि किसी एक मुद्दे के कारण भारत-पाक व्यापार, आवागमन, परिवहन तथा अन्य संबंधों को अवरूद्घ नहीं किया जाना चाहिए| इस सफाई के बावजूद पाकिस्तानी सेनापति को बयान देना पड़ा, यह इस तथ्य का प्रमाण है कि कश्मीर का मुद्दा ऊपर से चाहे ठंडा पड़ गया हो लेकिन पाकिस्तानी जनता के अवचेतन मन में वह अब भी बरकरार है| 60 साल में जो बारूद बिछाई गई है, उसमें कभी भी बत्ती लगाई जा सकती है|
मैंने अपनी इस दो सप्ताह की यात्रI में पाकिस्तान के सभी प्रमुख नेताओं को कहा कि आप साठ साल में एक भी कश्मीरी को आजाद नहीं करवा पाए लेकिन कश्मीर के चलते आपने 16 करोड़ पाकिस्तानियों को फौज और अमेरिकियों का गुलाम बना दिया| लोकतंत्र् से हाथ धो लिए| रोटी, कपड़ा, मकान, सेहत और तालीम का पैसा हथियारों पर खर्च हो गया| पाकिस्तान के लोग दुनिया के सबसे ज्यादा ‘डरे हुए राष्ट्र’ बन गए| कश्मीर ने भारत का नुकसान जरूर किया है लेकिन उससे सौ-गुना ज्यादा नुकसान उसने पाकिस्तान का किया है| अब फौज समझ गई है कि कश्मीर डंडे के जोर से नहीं लिया जा सकता| यदि अब भी वह कश्मीर को ‘कोर इश्यू’ (सर्वोच्च मुद्दा) बनाएगी तो वह अपना स्वार्थ अवश्य सिद्घ कर लेगी लेकिन पाकिस्तान का गंभीर नुकसान करेगी| ये तर्क मैंने अपनी भेंटवार्ताओं में अनेक पाकिस्तानी अखबारों और टीवी चैनलों को भी दिये| इनका जवाब न तो नेताओं के पास था और न ही भेंटकर्त्ताओं के पास था| उन्हें पता है कि फौज के अलावा कश्मीर को केन्द्रीय मुद्दा माननेवाला अब पाकिस्तान में कोई भी नहीं बचा हैं|
यदि पीपीपी और मुस्लिम लीग का गठबंधन एकदम सफल हो गया तो फौज क्या करेगी? फौज का रूतबा काफी घट जाएगा| वह ऐसा क्यों होने देगी? कश्मीर तो फौज की जान है| यदि कश्मीर नहीं होता तो फौज कहॉं होती? वहीं होती, जहॉं वह भारत या अफगानिस्तान या नेपाल में होती है| वह राष्ट्रपति-भवन (मंजिले-सदर) में नहीं, रावलपिंडी के मुख्यालय में सिकुड़ी रहती| यदि पाकिस्तान में लोकतंत्र् का यह नया प्रयोग चल पड़ा तो कश्मीर का मुद्दा अपने आप नेपथ्य में चला जाएगा| वह एक मुद्दा तो रहेगा लेकिन वह ‘कोर इश्यू’ नहीं रहेगा| वह ‘बोर इश्यू’ रहेगा| एक उबाऊ मुद्दा| ऐसा मुद्दा, जो चेहरे पर मस की तरह लटका रहेगा| ऐसा नहीं है कि अकेले ज़रदारी और पीपीपी ने कश्मीर के मुद्दे को पीछे सरकाया है| पाकिस्तान के किसी भी राजनीतिक दल ने कश्मीर को केन्द्रीय मुद्दा नहीं बनाया हैं| इसीलिए यह कहना बिल्कुल बेजा है कि ज़रदारी ने जो बयान एक भारतीय चैनल को चुनाव के बाद दिया है, अगर चुनाव के पहले दे देते तो वे चुनाव हार जाते| उन्हें आधी सीटें भी नहीं मिलतीं| ज़रा याद करें कि 1996-97 के चुनाव में क्या हुआ था? उस चुनाव में मियॉ नवाज़ शरीफ को 3/4 बहुमत मिला था, जितना कि पूरे दक्षिण एशिया में किसी भी नेता को कभी नहीं मिला था| उसके बावजूद मियॉं नवाज़ या बेनज़ीर भुट्टो या इमरान खान ने कश्मीर को मुद्दा नहीं बनाया था| अब से लगभग 10 साल पहले हुए उस चुनाव में मैंने लगभग हर नेता की सभा सुनी थी लेकिन कोई भी प्रमुख नेता कश्मीर का जि़क्र तक नहीं करता था| जिन मज़हबी नेताओं ने उस समय कश्मीर की रट लगाई थी, चुनावी बाढ़ में वे कहॉं डूब गए, किसी को पता भी नहीं चला था|
इस चुनाव में भी यदि प्रमुख दलों के घोषणा-पत्रें को ध्यान से देखा जाए तो पता चलेगा कि उन्होंने कश्मीर को केन्द्रीय मुद्दा नहीं बनाया है| जमीयते उलेमा-ए-इस्लाम मज़हबी पार्टी है| फजलुर रहमान उसके नेता हैं| वे भारत भी आ चुके हैं| उनकी पार्टी और काज़ी हुसैन अहमद की जमाते-इस्लामी हमेशा कश्मीर को उछाले रखती हैं| काज़ी साहब तो कहते हैं कि वे ‘इंडिया जाऍंगे तो टैंक पर बैठकर जाऍंगे|’ मेरे 25 साल के बावजूद इस बार वे माने हैं कि शायद वे मेरे निजी मेहमान बनकर जहाज में बैठकर भारत आऍंगे| ऐसे कट्टर भारत-विरोधी तत्वों की पार्टी जमीयत के घोषणा-पत्र् में कश्मीर को कहॉं जगह मिली है? 21 वें अध्याय के अंतिम पेरेग्राफ में और उसमें भी सबसे अंत में ! कश्मीर के पहले फलस्तीन, यरूशलम, अरब भूमि और अफगानिस्तान पर साम्राज्यवादियों के कब्जे को हटाने की बात कही है| इसी लंबे पेरे में ‘कश्मीर की आजादी’ शब्दों का प्रयोग किया गया है| इसका क्या मतलब है? कुछ नहीं| क्योंकि इस शब्दावली से यह पता नहीं चलता कि कश्मीर की आजादी को प्राप्त किया जाएगा या खत्म किया जाएगा? सिर्फ खानापूरी के लिए तीन शब्द आखिर में चिपका दिए गए हैं| इस पार्टी ने भारत से संबंध सुधारने की बात बिल्कुल नहीं कही है बल्कि भारतीय मुसलमानों के हितों के लिए लड़ने को अपनी विदेश नीति का मुख्य लक्ष्य बताया है| इस पार्टी की लुटिया डूब गई है| इसके ज्यादातर उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गई हैं|
इसके विपरीत मुहाजिरों की पार्टी एमक्यूएम ने अपने घोषणा-पत्र् में भारत से अच्छे संबंध बनाने पर विशेष जोर दिया है और कहा है कि कश्मीर मसले का हल बातचीत के जरिए निकाला जाएगा और बातचीत बहुत ही ईमानदारी और सदभाव के साथ की जाएगी| कश्मीरी जनता की मर्जी का ध्यान रखा जाएगा| इस पार्टी को प्रचंड विजय मिली है| इसने संसद की 19 सीटें जीती हैं और यह पार्टी पहली बार पीपीपी के साथ मिलकर सिंध में प्रांतीय सरकार बनाएगी| अब तक जो पार्टी सत्तारूढ़ रही, याने मुस्लिम लीग (क़ायदे आजम), उसने अपने घोषणा पत्र् में कहा है कि वह कश्मीरियों के आत्म-निर्णय के अधिकार को मान्यता देती है| संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव को मानती है लेकिन वह ‘उस हर प्रस्ताव और हल को’ स्वीकार कर लेगी, जिसे कश्मीरी जनता मानेगी| ‘वह भारत के साथ शांति-प्रकि्रया को पूरी ताकत के साथ आगे बढ़ाएगी|’ मुशर्रफ के साथ नत्थी होने के बावजूद इस पार्टी को संसद में 39 सीटें मिली हैं और पंजाब व बलूचिस्तान की प्रांतीय एसेम्बलियों में भी उसकी उपस्थिति ठीक-ठाक है| वास्तव में पीपीपी के घोषणा-पत्र् में कश्मीरी जनता के अधिकारों का समर्थन किया गया है लेकिन शांति-प्रकि्रया को आगे बढ़ाने की बात खुलकर कही गई है| उसमें कश्मीर को अन्य मुद्दों के साथ जोड़ा गया है| उसे एकमात्र् और मुख्य मुद्दा नहीं बताया गया है| और यह भी कहा गया है कि उस एक मुद्दे को प्रगति के मार्ग का रोड़ा नहीं बनने दिया जाएगा| भारत-चीन सीमा-विवाद का उदाहरण पेश करते हुए कहा गया है कि सीमा पर असहमति रहते हुए भी जैसे दोनों देश आगे बढ़ रहे है, वैसे ही भारत और पाकिस्तान भी आगे क्यों नहीं बढ़ सकते? पीपीपी ने दक्षेस (सार्क) को यूरोपीय संघ की तरह आर्थिक सहकार क्षेत्र् बनाने की बात भी कही है| इस पार्टी को इस चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं|
मियॉं नवाज़ शरीफ को पाकिस्तान में दक्षिणपंथी-जैसा माना जाता है| यह भी कहा जाता है कि मुल्ला-मौलवी उनके ज्यादा नज़दीक हैं लेकिन लोग भूल गए कि पिछले चुनाव में 3/4 बहुमत मिलने के बाद उन्होंने क्या कहा था| उन्होंने भारत से संबंध सुधारने को अपनी पहली प्राथमिकता कहा था और चुनाव के एक दिन पहले कश्मीर को शांतिपूर्ण बातचीत के ज़रिए हल करने का वादा किया था| चुनाव के दिन सुबह के अखबारों में जब यह बयान सुर्खियों में छपा तो मियॉं साहब के कुछ दोस्तों ने मुझसे कहा कि आज मियॉं की लुटिया डूब जाएगी लेकिन चुनाव-परिणामों ने उग्रवादी तबकों को हतप्रभ कर दिया था| इस बार भी मियॉं नवाज़ ने अपनी चुनाव-सभाओं में कश्मीर का कोई खास जिक्र नहीं किया और अपने घोषणा पत्र् में पुरानी घिसी-पिटी इबारत का इस्तेमाल किया| सं.रा. प्रस्ताव, आत्म-निर्णय का अधिकार, कश्मीरी जनता की इच्छा आदि का जिक्र जरूर है लेकिन उसमें भारत के साथ सभी मसलों के ‘शांतिपूर्ण समाधान’ को अपनी विदेशी नीति की ‘विशेष प्राथमिकता’ बताया है| इस प्राथमिकता को अब पाकिस्तानी फौज उलट नहीं सकती| यदि वह प्रवाह के विरूद्घ तैरेगी तो उसे इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा|
(लेखक दो सप्ताह की पाकिस्तान-यात्र से अभी लौटे हैं)
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