Nav Bharat Times, 18 Jan 2002 : मुशर्रफ के भाषण का भारत के लिए क्या अर्थ है ? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के पहले हमें यह तय कर लेना चाहिए कि वह भाषण किसके लिए था ? भारत के लिए या पाकिस्तान के लिए ? उस भाषण का असली निशाना क्या था ? भारत था या पाकिस्तान था ? उस भाषण से किसे खुश किया जाना था ? भारत को या अमेरिका को ?
मुशर्रफ के भाषण से कुछ लोग निराश हैं| वे पूछते हैं कि उस भाषण में भारत के लिए क्या था? धमकी थी, आतंकवादियों की सूची पर टालमटोल थी और वही राग कश्मीर था| जो निराश नहीं हैं, वे असमंजस में हैं कि इस फौजी का क्या करें ? उसने तो उन नेताओं को भी मात दे दी, जो उसके पैदा होने के पहले से राजनीति कर रहे हैं| मुशर्रफ के भाषण पर प्रतिकि्रया करने में उन्हें पन्द्रह घंटे लग गए| अब भारत सरकार कह रही है कि वह मुशर्रफ को कुछ मोहलत देने को तैयार है| इसके अलावा वह क्या कह सकती है ? क्या वह मुशर्रफ के भाषण की भर्त्सना कर सकती है ? क्या उसे वह रद्द कर सकती है ? वह बड़ी दुविधा में है| फौजें हटाए या नहीं, अपनी निकली हुई तलवार को वापस म्यान में रखे या नहीं, पाकिस्तान-विरोधी अभियान चलाए या नहीं, उसकी अब कोई सुनेगा या नहीं? कम्युनिस्ट पार्टी ने तो यहाँ तक कह दिया है कि सांसदों को विदेश-यात्र पर भेजने की जरूरत नहीं है| वह अपने सांसदों को सरकारी घमन्तू टोलियों में शामिल नहीं होने देगी|
यह सब दिग्भ्रम पैदा क्यों हो रहा है ? सिर्फ इसलिए कि हम आस लगाए बैठे थे कि मुशर्रफ जो भाषण देंगे, उसका केन्द्र-बिन्दु भारत होगा| अमेरिकियों ने भी पहले बड़े कुलाबे बाँधे और फिर भाषण के एक दिन पहले कह दिया कि उससे ज्यादा उम्मीद नहीं लगाएँ| यदि मुशर्रफ के भाषण को भारत के नीति-निर्माताओं ने ध्यान से सुना होता तो वे उसी वक़्त समझ जाते कि वह भाषण भारत के लिए नहीं था, पाकिस्तान के लिए था| उस भाषण का निशाना भारत नहीं, पाकिस्तानी समाज था| वह भाषण भारतीयों नहीं, अमेरिकियों को खुश करने के लिए दिया गया था| मुशर्रफ का मुँह अमेरिका की तरफ था और पीठ भारत की तरफ !
मुशर्रफ ने अपने भाषण का ज्यादातर समय इस्लाम और पाकिस्तान पर ही केंदि्रत किया| भारत और कश्मीर पर तो मुश्किल से पाँच मिनिट लगाए| मुशर्रफ ऐसे पहले पाकिस्तानी नेता हैं, जिन्होंने उन आधारों को ही चुनौती दे दी, जिन पर पाकिस्तान खड़ा है और जिनके दम पर पाकिस्तान बना है| उनका पहला सवाल यह था कि आप पाकिस्तान को मज़हबी राष्ट्र बनाना चाहते हैं या आधुनिक राष्ट्र ? मज़हब के दम पर बने दुनिया के एक मात्र् राष्ट्र से इस तरह का सवाल पूछना किसी कुफ्र से क्या कम है ? दूसरा सवाल उन्होंने यह दागा कि क्या पाकिस्तान ने इस्लाम को फैलाने का ठेका ले रखा है ? वह अपने काम से काम क्यों नहीं रखता ? दूसरे शब्दों में उन्होंने विश्व इस्लामी समुदाय (उम्मा) की धारणा को रद्द किया| यह सुनकर मौलाना मौदूदी अपनी कब्र में करवट बदल रहे होंगे| तीसरा, उन्होंने हिंसा और आतंकवाद को गैर-इस्लामी बताया और मदरसों और मस्जिदों पर अनेक पाबंदियों की घोषणा कर दी| उन्होंने मज़हबी जिहाद (जिहादे-असगर) को मूर्खता बताया है| इसी सिलसिले में उन्होंने कश्मीर के लिए भी हिंसा और आतंकवाद के मार्ग को गलत बताया|
पाकिस्तान और सम्पूर्ण इस्लामी समाज के लिए मुशर्रफ का भाषण जबर्दस्त नसीहत है| यदि वे उस पर अमल करवा सकें तो उनका ओहदा कमाल पाशा से भी ऊँचा हो जाएगा| इस्लामी जगत को जैसा जुलाब मुशर्रफ ने दिया, उसकी उसे आज भयंकर जरूरत थी| उसामा बिन लादेन द्वारा जमा किए गए सारे कबाड़ को मुशर्रफ का भाषण साफ कर सकता है| इस्लामी जगत को तय करना होगा कि उसका आदर्श उसामा है या मुशर्रफ ?
लेकिन असली सवाल यह है कि उस भाषण का अर्थ भारत क्या निकाले ? भारत के लिए आशा की सबसे बड़ी किरण तो यह है कि पचपन साल में पहली बार पाकिस्तानी समाज को स्वस्थ, सभ्य, आधुनिक और प्रगतिशील बनाने का आह्नान हुआ है| यदि पाकिस्तान समाज बदलेगा तो निश्चय ही भारत को उसके साथ उत्तम संबंध बनाने में बड़ी सुविधा होगी| चाहे फिर शासक कोई भी हो| पाकिस्तान की जन्म-ग्रंथि यह है कि वह जन्मजात अस्वस्थ राष्ट्र है| यदि उसका स्वास्थ्य ठीक होगा, मज़हबी जुनून उतर जाएगा, वह अपनी सही हैसियत पहचान लेगा तो भारत के साथ भाईचारे के संबंध बनाने में उतनी ही दिक्कत आएगी, जितनी कि दो पड़ौसी राष्ट्रों को आती है| कश्मीर के सवाल में उसकी दिलचस्पी तब भी बनी रहेगी लेकिन तब कश्मीर मूलत: भारत का अन्दरूनी मामला होगा और भारत को उसे हल करना ही होगा|
मुशर्रफ ने यह कहकर भारतीयों को चिढ़ा दिया है कि कश्मीर हमारी रगों में बहता है| वह यह नहीं कहते तो क्या यह कहते कि कश्मीर भारत का ‘अटूट अंग’ है ? अगर वे इससे भी कोई नरम बात कहते तो उन्होंने मज़हबवाद की जो धज्जियाँ उड़ाई हैं, उसके खिलाफ बगावत हो जाती ! उनकी मजबूरी हम समझ सकते हैं लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि मज़हबवाद के विरुद्घ उनकी दहाड़ सिर्फ अमेरिकियों को खुश करने के लिए है और उसकी आड़ में वे कश्मीर को झपटना चाहते हैं ? यह ठीक है कि अपने लंबे भाषण में उन्होंने आतंकवादियों को ‘आतंकवादी’ ही कहा, ‘स्वतंत्र्ता-सेनानी’ नहीं, लेकिन क्या वे भारत को इसी आधार पर बातचीत के लिए मजबूर करना चाहते हैं ? सैद्घांतिक तौर पर उन्होंने अपनी स्थिति मजबूत बना ली है लेकिन जब तक आतंकवादी गतिविधियाँ चलेंगी, भारत सरकार कश्मीर के मुद्दे पर अगर उनसे बात करेगी तो माना जाएगा कि वह अमेरिकी दबाव में दबी जा रही है| आगरा में जो बात भारत ने शुरू की थी, वह निश्चय ही एक भूल थी लेकिन उदार भारतीयों ने अपनी सरकार की उस भूल को अनदेखा कर दिया| 13 दिसंबर के बाद यह सरकार दुबारा वही हिमाकत नहीं कर सकती| अगर करेगी तो पहले आतंकवादियों ने संसद को घेेरा था, अब भारत की जनता संसद को घेर लेगी| क्या मुशर्रफ को पता नहीं कि भारत का चित्त आज कितना उबाल खाया हुआ है ?
उनके लिए यह काफी नहीं कि वे पाकिस्तान को आतंकवाद से मुक्त करें| यदि वे चाहते हैं कि भारत की फौजें सचमुच वापस लौट जाएँ तो उन्हें अपने कश्मीर से भी आतंकवाद को खत्म करने का बीड़ा उठाना पड़ेगा| यदि अब वे कोई बहाना बनाएँगे तो उनका यह काम भारत सरकार को करना पड़ेगा| या तो वे भारत सरकार की मदद करें या भारत सरकार उनकी मदद करेगी| अब कोई तीसरा रास्ता नहीं है| अगर वे ये सोचे बैठे हैं कि ईमानदारी का काम कूटनीतिक कलाबाजी से चला लेंगे तो वे घाटे में रहेंगे| भारत तो सैन्य-कार्रवाई के लिए मजबूर होगा ही, पाकिस्तानी समाज भी अराजकता के नए दौर में प्रवेश कर जाएगा| मज़हबी और आतंकवादी तत्व पाकिस्तान के पक्के हुक्मरान होंगे| अभी जैसे फौज ने राजनीतिक दलों को किनारे लगा रखा है, वैसे ही मज़हबी और आतंकवादी तत्व फौज और राजनीतिक दलों पर कब्जा कर लेंगे| फौज का मज़हबीकरण जनरल जि़या के दिनों में काफी हद तक हो गया था और तालिबान आतंकवादियों ने अफीम की कमाई से राजनीतिक दलों में भी अपनी कठपुतलियाँ खड़ी कर ली थीं| अगर मुशर्रफ ने अपने इस एतिहासिक भाषण पर अमल नहीं किया तो ये सब तत्व एक होकर उनका तख्ता तो उलट ही देंगे, पाकिस्तान को भी तबाह कर देंगे| अमल का पहला प्रमाण यही है कि वे आतंकवादियों को पकड़कर भारत भेजें| भारत न भेजना चाहते हों तो अन्तरराष्ट्रीय पुलिस के हवाले करें या अमेरिका ही भेजे, जैसे कि वे तालिबान आतंकवादियों को भेज रहे हैं या जैसे कि 1993 में न्यूयॉर्क ट्रेड टॉवर पर बम लगानेवाले दो अरब नागरिकों को भेजा था| सिर्फ गाल बजाकर भारत को फौज हटाने के लिए कहना हथेली में सरसों उगाना है|
जहाँ तक भारत का प्रश्न है, उसे यह पता होना चाहिए कि आतंकवादी हमेशा किसी की कठपुतली नहीं होते, जैसे कि अफगान आतंकवादी जनरल जि़या के नहीं हुए और श्रीलंका के तमिल आतंकवादी भारत के नहीं हुए| इसी प्रकार यह जरूरी नहीं कि पाकिस्तानी और कश्मीरी आतंकवादी जनरल मुशर्रफ की बात सुन ही लें| वे कुछ दिनों तक ‘अपुन भरोसे’ तोड़-फोड़ मंे लगे रह सकते हैं| ऐसी स्थिति में भारत को धैर्य जरूर रखना पड़ेगा लेकिन साथ-साथ यह भी जाँचना पड़ेगा कि उन्हें पाकिस्तानी गुप्तचर विभाग (आई0एस0आई0) की मदद बंद हुई या नहीं ? यदि मदद बंद हो गई है, यह विश्वास हो जाए तो उसे आगे होकर हुर्रियत तथा अन्य कश्मीरी संगठनों से बात चलानी चाहिए और अगर आतंकवादियों को पाकिस्तानी मदद जारी रहती है तो उसे अमेरिका और बि्रटेन या चीन की सलाह सुनने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है| उसे सिर्फ भारत की जनता की सलाह सुननी होगी| उसकी सलाह, जिसकी मेहरबानी से वह सत्ता में है और सलाह यह है कि आतंकवाद और उसकी जड़, दोनों को उखाड़ देने का वक़्त आ चुका है| मुशर्रफ के भाषण ने भारत की म्यान और तलवार में फासला कुछ बढ़ा जरूर दिया है लेकिन यह वक्त तलवार के दुबारा म्यान में जाने का नहीं है|
Leave a Reply