Dainik Bhaskar, 09 Sept 2008 : आसिफ ज़रदारी जितने प्रचंड बहुमत से पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने हैं, वह यह सिद्ध करता है कि लोग उनकी पुरानी छवि को भूलने की कोशिश कर रहे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो उन्हें 702 में से 479 वोट नहीं मिलते। उन्हें कुल मतदान के लगभग 70 प्रतिशत वोट मिले हैं। चुनाव के पहले शक यह था कि उनकी पार्टी में बगावत हो जाएगी और उनकी सहयोगी पार्टियॉं भी तहे दिल से उनका साथ नहीं देंगी। लेकिन लगता है कि हुआ कुछ उल्टा ही। शुजात हुसैन की मुस्लिम लीग के कुछ सांसदों और विधायकों ने भी जरदारी के पक्ष में वोट दिए हैं। पंजाब की दोनों मुस्लिम लीगें अगर मिल जाता तो भी ज़रदारी को हराना असम्भव था, क्योंकि सिंध, बलूचिस्तान और सरहदी सूबे में इन दोनों पार्टियों का सूपड़ा साफ़ हो गया है। यह ठीक है कि पंजाब के विधायकों ने ज़रदारी को एक तिहाई वोट भी नहीं दिए लेकिन जहां तक पूरे पाकिस्तान का संबंध है, नवाज़ शरीफ की आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह डूब गई है। अब मियां नवाज़ का यह कहना निरर्थक हो गया है कि वे इस लोकतांत्रिक सरकार को गिरने नहीं देंगे और बराबर सहयोग करते रहेंगे। ज़रदारी की जीत पीपल्स पार्टी की सरकार को नया प्राणदान कर रही है।
कोई आश्चर्य नहीं कि ज़रदारी और युसूफ रज़ा गिलानी अब नवाज़ शरीफ के पीछे हाथ धोकर पड़ जाऍं। पुराने मुकदमों के गडे मुर्दे फिर खडें हो गए हैं। सरकार के कृपाकांक्षी जज मियॉं नवाज़ और उनके छोटे भाई शाहबाज़ को कठघरे में खडे कर सकते हैं। पंजाब के राज्यपाल सलमान तासीर तो पहले से ही खार खाए बैठें हैं। उनका बस चले तो वे पंजाब में शाहबाज शरीफ की सरकार को आज ही बर्खास्त कर दें। यदि ज़रदारी और नवाज़ में सीधी टक्कर हो गई तो पाकिस्तानी राजनीति में काफी उथल-पुथल की सम्भावना बढ़ जाएगी। सारा मामाला पंजाबी बनाम सिंधी, बलूच, पठान बन सकता है। इसका असर फौज पर भी पड़ेगा। जो फौज आजकल आतंकवाद से खुलकर लड़ रही है और जिसने लाल मस्जिद में मुल्लागर्दी को धवस्त किया, वह ढीली पड़ सकती है। नवाज़ शरीफ की दूसरी शहादत के प्रति उसकी सहानुभूति इतनी बढ़ सकती है कि अमेरिका और ज़रदारी दोनों परेशान हो जाऍं। आशा है ज़रदारी फूंक फूंक कर कदम बढ़ाएंगे, वरना उनके चुनाव से उठी स्थिरता की किरण को बिखरते देर नहीं लगेगी। नवाज़ में अभी भी जुल्फिकार अली भुट्टो बनने की सम्भावनाएं हैं। जैसे अयूब-विरोधी जन-आक्रोश को भुट्टो ने भुनाया था, वैसे ही नवाज़ अमेरिका-विरोधी लहर पर सवार हो सकते हैं।
पाकिस्तान की भावी राजनीति में ज़रदारी और नवाज़ की दिशाएं विपरीत होंगी, इसमें ज़रा भी शक नहीं है। ज़रदारी अमेरिका के समर्थन में खड़े होंगे और नवाज़ विरोध में अफगानिस्तान स्थित अमेरिका सेना का वजीरिस्तान में किए गए सीधे हमलों की सर्वत्र निंदा हो रही है लेकिन ज़रदारी-गिलानी की सरकार जबानी जमा-खर्च के अलावा क्या कर सकती है? इस तरह की घटनाओं का सीधा फायदा नवाज़ को मिलेगा। मियां नवाज़ की कोशिश है कि जजों के आंदोलन का भी लाभ उन्हें मिले लेकिन ज़रदारी ऐसी चालें चल रहे हैं कि उस आंदोलन की ही कमर टूटने लगी है। ज़दरदारी ने पहले सिंध में आठ जज बहाल करवा दिए और अब उच्चतम न्यायालय में भी तीन जजों की वापसी हो गई। वे मुख्य न्यायाधीश इफित्खार चौधरी को उसी पद पर लौटाने के पक्ष में नहीं हैं। इस मुद्दे पर वे नवाज़ से ज्यादा मुशर्रफ के करीब हैं। वे मुशर्रफ के खिलाफ कोई बदले की कार्रवाई भी नहीं करना चाहते। वे एक जिम्मेवार और संतुलित नेता की छवि अपनाना चाहते हैं।
इसीलिए वे बार-बार कह रहे हैं कि वे राष्ट्रपति पद को संसद के आधीन करेंगे। वे 17 वें संशोधन को रद्द करेंगे। क्या वे सचमुच ऐसा करेंगे? यह मुश्किल लगता है। सत्ता किसे प्यारी नहीं होती? संसद और सरकार को भंग करने, सेनापति और मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति तथा परमाणु-बटन दबाने का अधिकार कोई राष्ट्रपति आसानी से कैसे छोड़ देगा? मान लें कि वे ये अधिकार औपचारिक तौर पर छोड़ भी दें तो उनके दबदबे में कोई कमी होने का सवाल ही नहीं उठता। वे पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हैं और प्रधानमंत्री गिलानी उनके पार्टी- कार्यकर्त्ता हैं। गिलानी की क्या मजाल कि वे ज़रदारी से अलग कुछ सोच भी सकें। यदि ज़रदारी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दें तो और बात है कि लेकिन तब पार्टी की लगाम उनका बेटे बिलावल के हाथ में होगी। याने ज़रदारी, गिलानी और बिलावल- इन तीन घोड़ों की बग्घी में चलेगा, पाकिस्तान का निजाम। यह ठीक से चलेगा, यह जरुरी नहीं है। राष्ट्रपति फारुक लघारी और बेनज़ीर भुट्टो, दोनों ही पीपल्स पार्टी के थे लेकिन लधारी ने बेनज़ीर को बर्खास्त कर दिया था। अब तक पाकिस्तान के लगभग सभी गैर-फौजी राष्ट्रपति राजनीतिक दष्टि से हल्के-फुल्के लोग रहे हैं।इस्कंदर मिज़ा, फ़जले-इलाही, गुलाम इज़हाक, वसीम सज्जाद, फारूक लधारी, रफीक त़राड़ आदि आसिफ ज़रदारी के सामने कैसे लगते हैं? जैस कि वे लोग अमर-बेल की तरह हों। पहली बार पाकिस्तान ने ऐसा राष्ट्रपति मंजिले-सदर में भेजा है, जो अपने पॉंव पर खड़ा है। उससे मियां नवाज़ कह रहे हैं कि वह नाम-मात्र का गुड्डा बन जाए। यह कैसे होगा?
यदि ज़रदारी सचमुच सर्वशक्तिमान राष्ट्रपति की तरह पेश आऍंगे तो अमेरिकियों को काफी सुविधा हो जाएगी। उन्हें मुशर्रफ की याद नहीं सताएगी लेकिन पीपल्स पार्टी और संयुक्त सरकार में विग्रह पैदा हो जाएगा। जन-आक्रोश भी भड़केगा। यदि वे वाकई लोकतांत्रिक तेवर अपनाएंगे तो क्या विकेंद्रित सत्ता के दम पर वे आतंकवाद, महंगाई, फौजा और आई.एस.आई. के वर्चस्व पर लगाम लगा पाऍंगे? भारत और अफगानिस्तान में उनकी कितनी साख बची रह जाएगी? पाकिस्तान का असली कर्त्ता-धर्त्ता कौन है, यह सवाल वे खुद से रोज़ पूछेंगे। राष्ट्रपति बनकर ज़रदारी विकट दुविधा में फॅंस गए हैं। आतकंवादी उन्हें मारने पर तुले हुए हैं और फौज घात लगाए बैठी है कि यह नौसिखिया नेता कब लक्ष्मण-रेखा पार करे और वह कब उसे दबोच लें। दुविधा की ड्यौढ़ी पर खड़े इस राष्ट्रपति के लिए शुभकामनाऍं ही की जा सकती हैं।
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