रा. सहारा, 2 अक्टूबर 2002 : गाँधी को गए 54 साल हो गए लेकिन आज भी किसी की हिम्मत नहीं कि उन्हें वह अपने समय का सबसे असफल आदमी कह दे| इतनी हिम्मत तो उन कम्युनिस्टों ने भी नहीं की, जो गांधी और नेहरू को गालियाँ देते नहीं थकते थे लेकिन श्री एस.एस.गिल ने अपनी पुस्तक “गाँधी: उदात्त विफलता” में बड़ी दबी जुबान से यह कहने की कोशिश की है कि गाँधी ने जो-जो मुद्दे उठाए, लगभग सभी में वे विफल रहे| वे किसी भी मामले को अपने मुकाम तक नहीं पहुँचा पाए| मुद्दा चाहे स्वराज का हो या ब्रह्मचर्य का या अस्पृश्यता का या हिन्दू-मुस्लिम एकता का या भारत की अखंडता का !
यद्यपि ढाई सौ पृष्ठों की इस पुस्तक में लेखक ने चौंकानेवाले कोई नये तथ्य नहीं जोड़े हैं तथापि समस्त उपलब्ध तथ्यों को इस तरकीब से पेश किया है कि गाँधी के बारे में यदि कोई व्यक्ति इस पुस्तक को पहली पुस्तक की तौर पर पढ़़ेगा तो वह ठगा-सा रह जाएगा| वह यह मान बैठेगा कि गाँधी अपनी संपूर्ण महत्ता के बावजूद घनघोर विफल व्यक्ति थे और उन्होंने अपने मरने के पहले ठीक ही कहा था कि “मैं खाली कारतूस हो गया हूँ| “
अगर गांधी खाली कारतूस होते तो पूरे 32 साल तक (1916-48) अकेली बंदूक की तरह सारे भारत में कैसे दनदनाते रहते और जबकि लेनिन और माओ जैसी तोपें भी तूती की तरह मंद पड़ गई हैं, अब 54 साल बाद भी गाँधी-गर्जन दुनिया के कोने-कोने में क्यों सुनाई पड़ रहा है| यह गाँधी ही थे कि खुद को खाली कारतूस कह सकते थे, वरना आइन्स्रटीन का वह कथन क्या हम भूल सकते हैं कि अगले ज़माने के लोग यह कल्पना भी नहीं कर पाएँगें कि गाँधी जैसा आदमी, हाड़-मांस धारण किया हुआ आदमी कभी इस पृथ्वी पर चलता-फिरता रहा होगा|
सबसे पहले यह देखा जाए कि गांधी को लेखक ने कहाँ-कहाँ विफल होते हुए पाया है| 1919 का रौलेट एक्ट सत्याग्रह, 1921 का असहयोग आंदोलन, 1934 का सिविल नाफरमानी, 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन- चारों आंदोलन गांधी के नेतृत्व में चले, चारों अधूरे रहे| पहले दो आंदोलन हिंसा के कारण गांधी ने स्वयं स्थगित किए, तीसरा सरकार ने दबा दिया और गांधी-ईविन पेक्ट तो हो गया लेकिन स्वराज का कहीं अता-पता नहीं चला तथा 1942 का चौथा आंदोलन गांधी चलाते, उसके पहले ही वे गिरफ्तार हो गए और हिंसा-अहिंसा का यह खिचड़ी आंदोलन भी दबा दिया गया| पांच साल बाद स्वराज जरूर आया लेकिन तब आंदोलन कम चला, बातचीत ज्यादा चली|
स्वराज आया लेकिन भारत टूट गया| गांधी ने कहा कि भारत के टुकड़े करने के पहले मेरे टुकड़े करो| यदि कांग्रेस विभाजन स्वीकार करेगी तो मेरे शव पर करेगी| गांधीजी के देखते-देखते पाकिस्तान बन गया| वे कुछ नहीं कर सके| इसी प्रकार हिदू-मुस्लिम एकता के लिए गांधीजी ने क्या-क्या यत्न नहीं किए लेकिन खिलाफत आंदोलन विफल हो गया| स्वयं तुर्की ने खलीफा का पद समाप्त कर दिया और भारत के मुसलमान पहले से भी अधिक सांप्रदायिक हो गए| मलाबार में मोपला बगावत हुई और कोहट में सांप्रदायिक दंगे| खुद गांधी ने कहा कि “मुस्लमान दादागीरी करते हैं और हिन्दू कायर हैं|” “मुसलमान देश के काम में बहुत कम दिलचस्पी दिखाते हैं, क्योंकि वे भारत को अब भी अपना घर नहीं समझते और इस पर गर्व नहीं करते|” हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए गांधी ने क्या-क्या द्राविड़-प्राणायाम नहीं किए| राम-रहीम योजना, ईश्वर-अल्लाह जाप, गीता-कुरान सहपाठ, हिन्दुस्तानी-प्रचार, जिन्ना-खुशामद आदि सभी पैंतरे मात खा गए| 1937 में जिस मुस्लिम लीग के सिर्फ 1330 सदस्य थे, उसके सदस्य एक ही साल में बढ़कर एक लाख हो गए और 1944 पहुँचने तक 20 लाख हो गए| दूसरे ओर स्वामी श्रद्घानंद को शुद्घि आंदोलन तेज करना पड़ा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव पड़ी और सावरकर ने ‘हिन्दुत्व’ का नारा दिया| गांधीजी के धर्म और राजनीति के समन्वय का उलटा असर हुआ| हिन्दू और मुस्लिम अतिवाद बढ़ता गया| उसकी परिणति पाकिस्तान के निर्माण और गांधीजी की हत्या में हुई|
इसी प्रकार अस्पृश्यता-निवारण और आर्थिक समता के प्रश्न पर गांधीजी के लक्ष्य तो बहुत पवित्र थे लेकिन उनकी विचित्र समझ के कारण वे न तो हरिजनों का भला कर सके और न ही दरिद्रनारायण का ! जन्मना जाति को ‘न्यूटन के नियम’ की तरह अटल मानने वाले गांधी ने दलितों को न तो उचित अनुपात में राजनीतिक प्रतिनिधित्व लेने दिया और न ही छुआछूत के विरुद्घ कानून का समर्थन किया| उन्होंने कई वर्षों तक हरिजनों के मंदिर-प्रवेश का भी विरोध किया| वे चाहते थे कि चेतना-परिवर्तन के आधार पर ही सवर्ण-शूद्र संबंधों का नया ढांचा खड़ा किया जाए| सवर्णों की कृपा और प्रेम से दलितों का उद्घार हो| आंबेडकर ने इसी गांधी-नीति को दलित-विरोधी बताया था| यही चेतना-परिवर्तन गांधीजी ने उद्योगपतियों और जमींदारों को सुझाया| 1918 में गांधीजी को सफलता भी मिली| अहमदाबाद के मिल-मालिक साराभाइयों को उन्होंने उपवास के दबाव में ले लिया| लेकिन इस चेतना-परिवर्तन को समाज-परिवर्तन का आधार बनाने में गांधी असफल रहे| उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समता के लिए कोई ठोस राजनीतिक या कानूनी कार्यक्रम नहीं दिया| जैसे कार्ल मार्क्स का केवल ‘सामाजिक परिस्थितियों’ पर एकांगी जोर था, वैसे ही गांधी का केवल चेतना पर था|
इसी प्रकार उनके सत्य-अहिंसा और ब्रह्मचर्य के प्रयोग भी आत्म-केंदि्रत रहे| उनके चारों तरफ घूमते रहे| वे राजनीतिक और सामाजिक सच्चाई नहीं बन सके| उनके अहिंसक आंदोलन कई बार इसीलिए बंद हुए की उनमें हिंसा हुई, 1930 में लॉर्ड ईविन को गांधीजी ने जो 13 मुद्दे सुझाए उनमें से एक यह भी था कि लोगों को आत्म-रक्षा के लिए हथियारों के लिए लायसंेस दिए जाएं, कश्मीर में उन्होंने सेना के बल-प्रयोग का और दंगों के वक्त आत्म-रक्षा के लिए हिंसा का समर्थन किया तथा उन्होंने यह भी कहा कि यदि मुझे कायरता और हिंसा में से किसी एक का चुनाव करना हो तो मैं हिंसा का चुनाव करूँगा| क्या यह विडंबना नहीं कि भारत की आजादी और विभाजन के वक्त लाखों लोगों का खून बहा ? गांधी की उपस्थिति के बावजूद हिंसा का अपूर्व तांडव हुआ|
गांधीजी का ब्रह्मचर्य भी विचित्र था| 37 साल की भरी जवानी में उन्होंने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया लेकिन उसका पालन उन्होंने अपने ढंग से किया| न सिर्फ देसी और विदेशी स्त्र्िायों का घेरा उनके चारों तरफ सदा बना रहा बल्कि अपने आखरी दिनों में उन्होंने अपने ब्रह्मचर्य की परीक्षा के लिए नग्न होकर सोने और नग्न युवा स्त्रियों को अपने साथ सुलाने के भी प्रयोग किए| 1920 में 51 साल की आयु में लाहौर की प्रातिभ सुंदरी सरला देवी के साथ महात्माजी के ‘आध्यात्मिक विवाह’ की बात ने उनके अनुयायियों को हतप्रभ कर दिया था| लेकिन कामासक्ति से मुक्ति पाने की अपनी हठ पर वे 79 साल की आयु तक डटे रहे| 13 साल के पति के रूप में जिस काम-बाधा ने उन्हें जकड़ लिया था, उससे वे अंत तक मुक्त न हो सके|
यानी क्या गांधी पूर्णरूपेण असफल हो गए ? गांधी पर इतनी कठोर टिप्पणी स्वयं गिल भी नहीं करना चाहते लेकिन अच्छा होता कि गांधी की असफलताओं का इतना सशक्त विवेचन करते हुए वे उन रहस्यों को भी पकड़ पाते, जिन्होंने गांधी को गांधी बनाया| गांधी से पहले गांधी जैसा मुनष्य इस पृथ्वी पर कभी नहीं हुआ, अगर इस सत्य को हम मान लें तो गांधी की तलाश में हमारा पहला कदम आगे बढ़ेगा| स्वयं गांधी इस सत्य को जानते थे| इसीलिए उन्होंने कहा था कि मेरे लेख नहीं, मेरी किताबें नहीं, मेरे भाषण नहीं, मेरे विचार नहीं, “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है|” गांधी का जीवन संपूर्ण गांधीवाद की धुरी है| गांधी की सशरीर उपस्थिति के बिना गांधीवाद की कल्पना नहीं की जा सकती| गांधी और गांधीवाद, दोनों की यही कमजोरी है और यही ताकत भी है| गांधी के किसी विचार या कर्म को क्या साक्षात्र गांधी के बिना अन्जाम दिया जा सकता है ? गांधी ने खुद अपने लिए इतने ऊँचे लक्ष्य खड़े कर लिए थे कि वे स्वयं वहां तक नहीं पहुँच पाते थे| इसमें संदेह नहीं कि गांधी के बहुत-से काम अधूरे रह गए लेकिन उनका अधूरापन किसी भी पूरेपन से कहीं अधिक पूरा है| जैसे मक्खी मारना एक काम है| आपने मक्खी मार दी| काम पूरा हो गया| आप सफल हुए| आप मक्खीमार कहलाए| शेर मारना भी एक काम है| आप शेर नहीं मार पाए लेकिन आपने शेर को पछाड़ दिया| आप सफल नहीं हुए लेकिन आप क्या कहलाए ? शेरपछाड़ ! अब बताएँ की मक्खीमार बड़ा है कि शेर पछाड़ ? गाँधी ने पता नहीं, कितने शेर पछाड़े| अंग्रेजी राज, हिंसा, अस्पृश्यता, भोगवाद, सांप्रदायिक संकीर्णता और कामासक्ति-इन सब जंगली शेरों से जैसा युद्घ गांधी ने लड़ा, शायद उनके पहले किसी महापुरुष ने नहीं लड़ा ! ऐसी स्थिति में गांधी को विफल या उनके अपने शब्दों में ‘खाली कारतूस’ कहना आसान है लेकिन मानव इतिहास में दूसरा गांधी ढूँढना कठिन है|
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