नया इंडिया, 08 नवंबर 2013 : दो मंत्रियों की मजे़दार दास्तान सामने आई हैं। एक हैं, उत्तरप्रदेश के मंत्री आजम खान और दूसरे हैं, रेल्वे मंत्री मल्लिकार्जुन खड़गे! कोई आदमी मंत्री बन जाए तो क्या उसके सुरखाब के पर लग जाते हैं? किसी और लोकतंत्र में लगें या न लगें, भारत में तो लग ही जाते हैं। मंत्री की शपथ लेते ही आदमी समझता है कि वह अतिमानव बन गया है। इसमें उसकी गल्ती जितनी है, उससे ज्यादा जनता की है। जनता उसकी आदत बिगाड़ देती है। कुछ लोग तो अपने छोटे-मोटे स्वार्थों की खातिर उसकी चाटुकारिता करते हैं और ज्यादातर लोग अकारण ही उसके सामने लम्बायमान हुए रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि मंत्री को पता ही नहीं चलता कि उसका व्यवहार कितना रुखा, यांत्रिक और अपमानजनक हो जाता है। वैसा व्यवहार उसके स्वभाव का अंग बन जाता है। आज़म खान के साथ यही हुआ है। मंत्री बनने के पहले ही वे अपने मुंहफट स्वभाव और बड़बोलेपन के कारण कुख्यात हो चुके थे। मंत्री बनने के बाद उनके कई बयान और भाषण ऐसे थे, जो कि खरे-खरे तो थे लेकिन शिष्टता की मर्यादा को लांघ जाते थे। उनके विरोधी तो तिलमिला उठते ही थे, उनकी सत्तारुढ़ पार्टी भी कई बार असमंजस में पड़ जाती रही है।
लगता था कि आजम खान अब गए कि तब गए। लेकिन अब आजम खान के साथ बहुत बुरी गुजर रही है। यह इस्तीफे से भी बदतर बात है। बड़े लोग आपको रद्द करें तब आपको इस्तीफा देना पड़ता है। यहां तो आपसे छोटों ने आपको रद्द कर दिया है। अब आप क्या कर सकते हैं। पिटते भी रहिए और उफ भी नहीं कर सकते। आजम खान के सात निजी सचिवों और सहायकों ने मांग की है कि वे आजम के साथ नहीं रहना चाहते। वे बेतहाशा गाली-गलौज़ और दुर्व्यवहार करते हैं। क्या आज तक किसी खुर्राट मंत्री की कभी इतनी दुर्दशा हुई है? वह भी निचले स्तर के कर्मचारियों द्वारा? हॉं, कई सचिव और संयुक्त सचिव स्तर के अफसरों की कई मंत्रियों से ठनती रही है लेकिन किसी मंत्री का निजी स्टाफ ही बगावत कर दे तो उसकी इज्जत क्या रह जाती है? स्टाफ के लोग 12 नवंबर से हड़ताल पर जाने वाले थे। उ.प्र. की सरकार ने उन निजी सचिवों का तबादला कर दिया है। बेचारे मुख्यमंत्री में इतनी हिम्मत कहां कि वह आजम खान को फटकारे? इसी तरह रेल मंत्री मल्लिकार्जुन खड़गे की विशेष ट्रेन का डिब्बा ज़रा दूरी पर लगा दिया गया। वहां नहीं लग पाया, जहां उन्हें आकर खड़ा होना था। उन्हें दस-पांच कदम चलना पड़ गया। सिर्फ इसीलिए संयुक्त सचिव स्तर के एक रेल अधिकारी को मुअत्तिल कर दिया गया। यह हिमाकत इसीलिए हुई कि हमारी नौकरशाही अभी भी गोरे अंग्रेज की गुलामी से मुक्त नहीं हुई है। रेल मंत्री या प्रधानमंत्री के लिए विशेष ट्रेन या विशेष डिब्बा लगाना बिल्कुल औपनिवेशिक गुलामी का प्रतीक है। और यदि उन्हें अपने डिब्बे तक चलकर जाना पड़े तो इसमें उनका अपमान मानना तो उन लाखों यात्रियों का अपमान है, जो अपनी सीटों तक खुद चलकर जाते हैं। देश में ऐसे अनेक यात्री भी हैं, जो किसी प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री से कम नहीं हैं। अच्छा हुआ कि संबंधित अधिकारी की मुअत्तिली वापस ले ली गई है। वरना देश के मंत्रियों की इज्जत पर वह भारी पड़ जाती।
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