Nav Bharat, 29 Oct. 2002 : जयललिता ने धर्म-परिवर्तन विरोधी अध्यादेश जारी क्या किया, जैसे मुर्गियों के दड़बे में बिल्ली घुस गई | पादरी और मुल्ला इस क़दर चिल्ला रहे है, मानो क़यामत आ गई हो| विरोधी दल कह रहे हैं कि भाजपा की खुशामद का यह नायाब तरीका है| जयललिता अपने मुकदमे जीतना चाहती हैं और केन्द्र सरकार में भागीदारी भी ! वे कावेरी मुद्दे से भी लोगों का ध्यान हटाना चाहती हैं| इसलिए उन्होंने हिन्दू सांप्रदायिकता की तुरुप का यह पत्ता फेंका है| ये संदेह साधार हो सकते हैं लेकिन क्या इसी कारण घोड़े को गधा कहा जा सकता है और गुलाब के फूल को गेंदा माना जा सकता है ! धर्म-परिवर्तन जैसी घृणित, अमानवीय और अधर्मकारी प्रथा पर तमिलनाडु ही नहीं, देश के हर प्रांत में निगरानी का कानून बनना चाहिए| मध्यप्रदेश, ओडिशा और अरुणाचल में तो यह कानून पहले से ही लागू है लेकिन अब इसका पालन पूरी कठोरता के साथ होना चाहिए| कारण जो भी हो, जयललिता ने जो काम किया, वह ठीक है|
जयललिता के अध्यादेश या म.प्र. और ओडिशा के कानूनों ने धर्म-परिवर्तन पर प्रतिबंध नहीं लगाया है| ऐसा नहीं है कि कोई अपना धर्म-परिवर्तन करना चाहे तो भी नहीं कर सकता| उसका अर्थ केवल इतना है कि वह धर्म-परिवर्तन प्रलोभन, भय और बहकावे के आधार पर नहीं होना चाहिए और प्रत्येक धर्म-परिवर्तन की रपट जिलाधीश के कार्यालय में दर्ज होनी चाहिए| इसमें बुराई क्या है ? आपत्तिजनक क्या है ? इन प्रावधानों का पादरी और मुल्ला किसलिए विरोध कर रहे हैं ? इन प्रावधानों के कारण क्या उनका धंधा मारा जाएगा ? क्या वे प्रलोभन और भय के जरिए ही धर्म-परिवर्तन करते हैं ? इसी कार्य के लिए उन्हें विदेशों से मोटी-मोटी धनराशियां मिलती हैं| उनका चिल्ल-पों मचाना क्या यह सिद्घ नहीं करता कि चोर की दाढ़ी में तिनका है ? यदि लोग सचमुच अपना धर्म-परिवर्तन करना चाहते हों तो स्वयं परमात्मा भी उन्हें नहीं रोक सकता| आत्मा की आवाज के आगे राज्य और समाज की ताकत कुछ भी नहीं है| धर्म गोबर की तरह बाहर से नहीं थोपा जाता, वह कमल की तरह अंदर से खिलता है| यदि कोई व्यक्ति किसी धर्म के सिद्घांत और व्यवहार को भली-भँति समझकर उसमें दीक्षित होना चाहता है तो यह निश्चय ही पवित्र घटना है| लेकिन जब धर्म थोक में बाँटा जाता है, मलेरिया की गोलियों की तरह बाँटा जाता है, तब वह धर्म नहीं, शुद्घ राजनीति होता है| उसका संबंध अध्यात्म से कम, पशुबल से अधिक होता है| हर संगठित मज़हब अपना संख्याबल बढ़ाना चाहता है| इसमें प्रकटत: कोई बुराई भी नहीं लेकिन संख्या बढ़ाने का आधार प्राय: केवल बल होता है, धन-बल, सत्ता-बल, सेवा-बल, मेवा-बल, यौन-बल| ये सब बल क्या अध्यात्म के आयाम हैं ? नहीं| ये शुद्घ पशु बल के पर्देदार आयाम हैं| कुछ मज़हबों के पवित्र ग्रंथों में इन आयामों को सही बताया गया है और कुछ मज़हबों के महन्तों ने उन्हें धर्मसम्मत करार दे दिया है| इसीलिए धर्मान्तरण करते समय धर्म-ध्वजी यह भूल जाते हैं कि वे घोर अधर्म का कार्य कर रहे हैं|
इस अधर्म की ओर इशारा करते हुए महात्मा गांधी ने 1935 के ‘हरिजन’ में छपी एक भेंटवार्ता में कहा था, “अगर….. मैं कानून बना सकूँ तो मैं धर्मान्तरण पर निश्चित ही रोक लगा दूँगा|” मानव अधिकार का इससे बड़ा उल्लंघन क्या होगा कि आपने किसी को दवा दी और बदले में उसका धर्म छीन लिया, आपने किसी को शिक्षा दी और बदले में उसकी परम्परा का विनाश कर दिया, आपने किसी को आजीविका दी और बदले में उसका सारा जीवन ही कैद कर लिया| यदि यह सच नहीं है तो इस प्रश्न का क्या उत्तर है कि धर्म-परिवर्तन का कार्य केवल आदिवासियों, दलितों, ग्रामीणों और गरीबों के बीच ही क्यों होता है ? उसे शहरों के शिक्षित, सम्पन्न और समर्थ वर्गों तक क्यों नहीं ले जाया जाता ? क्या ये करोड़ों लोग ईश्वर के पुत्र नहीं हैं ? क्या इन्हें रोशनी की जरूरत नहीं है ? यदि आपका धर्म ‘बेहतर’ है तो इन ‘बेहतर’ लोगों पर भी तो उसे आजमाकर देखिए| यदि आपके धर्म में अध्यात्म गहरा है, युक्ति पैनी है और मानव उद्घार की अद्रभुत क्षमता है तो किसी कट्टर से कट्टर विधर्मी को पिघला देने की क्षमता भी उसमें होनी चाहिए| लेकिन आश्चर्य यह है कि धर्मान्तरण केवल दलितों, आदिवासियों और गरीबोें का ही होता है और उनमें भी केवल हिन्दुओं का ! क्या हम कभी सुनते हैं कि कहीं इतने मुसलमानों को ईसाई बनाया गया या इतने ईसाइयों को मुसलमान बनाया गया ? यदि ऐसा होने लगे तो अन्तरराष्ट्रीय ईसाई समाज और मुस्लिम समाज में खलबली मच जाएगी| वह ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ का रूप धारण कर लेगा| लेकिन वे भारत में कुछ भी करें, यहाँ कोई संघर्ष नहीं है|
शताब्दियों से भारत मज़हबी शिकारियों का चरागाह बना हुआ है| कभी तलवार, कभी थैली, कभी दवा-दारू और कभी सुरा-सुदंरी के ज़रिए भारत के भोले और गरीब लोगों को धर्म की दीक्षा दी जाती है| इन तिकड़मों पर प्रतिबंध के लिए जब कानून बनाया जाता है, तो उसे लोग सांप्रदायिकता की संज्ञा देते हैं| जो लोग इस तरह के कानून का विरोध कर रहे हैं, अगर वे सच्चे धार्मिक व्यक्ति होते तो वे जयललिता का अभिनंदन करते और उनसे कहते कि आपके कानून की वज़ह से अब हमारी प्रामाणिकता बढ़ेगी याने अब जो भी धर्म-परिवर्तन होगा, उस पर राज्य की मुहर भी लग जाएगी| प्रत्येक धर्मान्तरित व्यक्ति वह होगा, जो कानून की छलनी से छनकर बाहर आएगा| भय और प्रलोभन का कचरा ऊपर ही अटक जाएगा|
भय और प्रलोभन से होनेवाले धर्मान्तरण पर प्रतिबंध सर्वथा स्वागत योग्य है लेकिन क्या यह मानकर चलना ठीक है कि सारे धर्मान्तरण भय और प्रलोभन से ही हुए हैं| यह ठीक है कि मुहम्मद के पास तलवार थी लेकिन बुद्घ के पास क्या था, महावीर के पास क्या था, ईसा के पास क्या था, नानक के पास क्या था, दयानंद के पास क्या था ? धर्मान्तरण के इन सब महान पुरोधाओं के पास न तलवार थी और न तिजौरी थी| केवल उजाला था, तर्क था, उद्घार का नया रास्ता था| मुहम्मद ने भी अज्ञानलोक (जाहिलिया) में पड़े अरबों को नई और जबर्दस्त रोशनी दी| आदमी जब से पैदा हुआ है, उसे रोशनी की तलाश है| तलाश का यह वेग उतना ही प्रबल है जितना कि भय और प्रलोभन का ! रोशनी की तलाश ने भय और प्रलोभन को इतिहास में कई बार जबर्दस्त मात दी है| यह ठीक है कि दुनिया के दूसरे देशों की तरह भारत पूरी तरह ईसाइयत और इस्लाम की गिरफ्त में नहीं चला गया लेकिन यह भी नग्न सत्य है कि भारत का सामाजिक परिदृश्य काल-कोठरियों की तरह दमघोटू है| जातिवाद, अस्पृश्यता और दरिद्रता की इन काल-कोठरियों से मुक्त होने की चाह में अगर लोग इस्लाम, ईसाइयत और बौद्घ धर्म की शरण में जाते हैं तो उन्हें कौन रोक सकता है ? समाज उन्हें ठेलेगा और राज्य उन्हें रोकेगा तो राज्य को मुँह की खानी पड़ेगी| यदि धर्मान्तरण संबंधी कानूनों का लक्ष्य उक्त सामाजिक जड़ता को बनाए रखना है तो उससे अधिक प्रतिगामी कदम क्या हो सकता है| जातिवाद और अस्पृश्यता पर प्रहार किए बिना मुसलमानों और ईसाइयों को दुबारा हिन्दू बनाने की कोशिश उतनी ही अधार्मिक है और अमानवीय है, जितनी कि पादरियों और मुल्लाओं की कोशिश| याद रहे कि हिन्दू धर्म में लौटने के दरवाज़े खोलनेवाले 19वीं सदी के महानायक महर्षि दयानंद ने जन्मना जाति को पूरी तरह रद्द किया था| भारत के दलितों, आदिवासियों और गरीबों का दुर्भाग्य यह है कि धर्म-परिवर्तन के बावजूद उनका मर्म-परिवर्तन नहीं होता| वे किसी भी संगठित धर्म में जा घुसें, उनकी मूल स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहती है| धर्म-परिवर्तन भी मृग-मरीचिका ही सिद्घ होता है| भारत का उद्घार धर्म-परिवर्तन से नहीं, मर्म-परिवर्तन से होगा|
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