दैनिक भास्कर, 3 अप्रैल 2008 : साठ साल बाद अब पाकिस्तान का पुण्योदय हो रहा है| पिछले साठ साल में किसी भी प्रधानमंत्री को संसद ने कभी सर्वसम्मति से वैसे स्वीकार नहीं किया, जैसे सय्यद युसुफ रज़ा गिलानी को किया है| हारी हुई मुस्लिम लीग (क़ायदे आज़म) ने भी गिलानी का समर्थन किया है| इससे पता चलता है कि पाकिस्तान में जनमत की ऑंधी कितनी प्रबल है| गिलानी के विरोध का मतलब होता मुशर्रफ का समर्थन ! ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के सभी दल अब लोकतंत्र् की राह पर चलना चाहते हैं और फौज से अपना पिंड छुड़ाना चाहते हैं|
गिलानी को प्रधानमंत्री बनाकर पीपीपी के नेता आसिफ जरदारी ने एक तीर से दो शिकार किए हैं| पहला तो यह सिद्घ किया है कि वे पाकिस्तान की राजनीति में सिंधीवाद नहीं चलाना चाहते| अकेला पंजाब शेष सभी प्रांतों को मिलाकर भी उनसे बड़ा है| पंजाबी प्रधानमंत्री न सिर्फ बहुसंख्या का प्रतिनिधित्व करेगा बल्कि यदि आगे जाकर नवाज़ शरीफ की पार्टी से टक्कर होगी तो यह पंजाबी प्रधानमंत्री बहुत काम आएगा| दूसरा, गिलानी को आगे बढ़ाकर सिंधी नेता मख्दूम अमीन फहीम को ज़रदारी ने फ़ीका कर दिया है| बेनज़ीर की अनुपस्थिति में वे ही पार्टी चला रहे थे| वे लोकपि्रय भी थे| उनका जनाधार भी था| वे प्रधानमंत्री बन जाते तो उन्हें हटाना मुश्किल हो जाता| प्रधानमंत्री बनने के पहले ही मुशर्रफ और अमेरिकियों से उनके गुप्त संबंधों की अफवाहें फैलने लगी थीं| गिलानी को प्रधानमंत्री बनाकर ज़रदारी ने मुशर्रफ-विरोधी तत्वों को खुश कर दिया है| गिलानी को मुशर्रफ ने पॉंच साल तक जेल में बंद रखा और बेनज़ीर का साथ छोड़ने के लिए प्रलोभन भी दिया लेकिन वे फिसले नहीं| यों तो गिलानी ज़रदारी के लिए प्रधानमंत्री पद कभी भी छोड़ सकते हैं लेकिन यह भी संभव है कि जरदारी सोनिया गांधी की राह पर चल पड़ें और गिलानी पूर्णावधि तक टिके रहें| ज़रदारी के लिए यही सौदा ज्यादा फायदेमंद है|
गिलानी के बाद अब उनके मंत्रिमंडल ने भी शपथ ले ली है| पीपल्स पार्टी और मुस्लिम लीग में जैसी खींचातानी की आशंका थी, वैसी हुई नहीं| गृह, विदेश, रक्षा जैसे मंत्रलय पीपल्स पार्टी के पास हैं और वित्त तथा अन्य मंत्रलय लीग और अवामी पार्टी के पास हैं| ऐसी व्यापक गठबंधनवाली सरकार भी पाकिस्तान में पहली बार बनी है| पंजाब, सिंध, सरहद और बलूचिस्तान के दलों का यह गठबंधन वास्तव में एक राष्ट्रीय सरकार जैसा ही है| यदि मंत्रलयों के लिए ये दल आपस में लड़ते तो इसका फायदा मुशर्रफ को मिलता| मुशर्रफ को पता है कि उनके दिन गिने-चुने हैं लेकिन वे इसी उम्मीद पर टिके हुए हैं कि ये राजनीतिक दल आपस में लड़ें और उनकी छवि अचानक चमक उठे| लेकिन अब ऐसा होना कठिन है, क्योंकि प्रधानमंत्र्ी गिलानी ने दो-टूक शब्दों में कहा है कि वे मर्री घोषणा के मुताबिक 30 दिनों में जजों की वापसी करेंगे अर्थात इफ्तिखार चौधरी का उच्चतम न्यायालय मुशर्रफ के चुनाव को अवैध घोषित करेगा|
मुशर्रफ के चुनाव के अवैध घोषित होने पर पाकिस्तान में असली राजनीति की शुरूआत होगी| यह संभव है कि मुशर्रफ चुपचाप इस्तीफा दें और खुद ही देश-निकाला ले लें| दूसरा विकल्प यह है कि वे राष्ट्रपति के अधिकार का इस्तेमाल करके दुबारा आपातकाल थोप दें, संसद भंग कर दें और पुराने जजों को शपथ ही न लेने दें| यह संभावना बहुत क्षीण है, क्योंकि न तो फौज उनका साथ देगी, न अमेरिका देगा और न ही मीडिया| यदि उन्होंने मनमानी की तो पाकिस्तान में खून की नदियॉं बहेंगी| जर्बदस्त जन-आंदोलन का आगाज़ हो जाएगा| अगर मुशर्रफ बिदा हो गए तो वह गोंद सूख जाएगा, जो जरदारी और नवाज़ शरीफ को जोड़े हुए है| दोनों प्रमुख दल अपनी-अपनी राजनीति खेलना शुरू करेंगे| यह खेल इतना बिगड़ सकता है कि न चाहते हुए भी फौज को हस्तक्षेप करना पड़े| यदि ऐसा हुआ तो यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य होगा| यही डर शायद इस गठबंधन सरकार को लंबे समय तक बॉंधे रहेगा|
फिलहाल प्रधानमंत्री गिलानी ने जो घोषणाऍं की हैं, उनसे आशा बंधती है कि यह नई गठबंधन सरकार कुछ क्रांतिकारी कदम उठाएगी| सबसे पहले तो वह पाकिस्तान को अमेरिका का दुमछल्ला बने रहने से रोकेगी| कबाइली इलाकों में अंधाधुंध बमबारी करने के बजाय वह तालिबान और अल-क़ायदा के लोगों से बात करेगी| गिलानी ने साफ़-साफ़ कहा है कि वे 1901 में बने सरहदी अपराध कानून को खत्म करेंगे| अमेरिकी उप-विदेश मंत्री जॉन नीग्रोपोंत को नवाज़ शरीफ ने दो-टूक शब्दों में कहा कि आपके आतंकवाद-विरोधी युद्घ में हम आपका साथ जरूर देंगे लेकिन यह नहीं हो सकता कि आपके गॉंव और शहर तो सुरक्षित हो जाऍं और हमारे शहर और गॉंव ‘मौत के मैदान’ बन जाऍं| प्रधानमंत्री गिलानी ने भी अमेरिकी नेताओं से कह दिया है कि अब पाकिस्तान की नीति का निर्धारण एक व्यक्ति नहीं, संसद करेगी| नई सरकार बनने के मौके पर अमेरिकी नेताओं की उपस्थिति को पाकिस्तानी जनता ने अच्छा नहीं माना हैं| ज़रदारी का पहले अमेरिकी राजदूत से मिलना भी बुरा माना गया था| इसका अर्थ यह हुआ कि बेनज़ीर और बुश-प्रशासन के बीच जो गुप्त समझौता हुआ था, अब उसका चल पाना मुश्किल होगा| नई सरकार नई लीक पर चल रही है|
यदि पाकिस्तान अमेरिकी चंगुल से निकल गया तो वह भारत के प्रति भी रचनात्मक रवैया अपना सकता है| पाकिस्तान अमेरिका का सहारा इसीलिए लेता है कि उसे भारत का विरोध करना होता है| नई सरकार भारत से अच्छे संबंध बनाएगी, यह बात ज़रदारी, नवाज़ और गिलानी तीनों ने कही है| वे कश्मीर पर कुछ न कुछ बोलते जरूर रहेंगे| यह उनकी राजनीतिक मजबूरी है लेकिन वे भारत-पाक संबंधों को कश्मीर का बंधक नहीं बनने देंगे| वैसे भी अभी पाकिस्तान अपनी आंतरिक उलझनों में इतना फंसा रहेगा और भारत भी चुनावी दौर में इतना उलझ जाएगा कि कश्मीर का सवाल अपने आप दरी के नीचे सरक जाएगा|
पाकिस्तान की नई सरकार के सामने आतंकवाद सबसे बड़ी चुनौती तो है ही लेकिन बढ़ती हुई मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और अराजकता ऐसी चुनौतियॉं हैं, जिनका सामना किए बिना इस सरकार का चलना असंभव हो जाएगा| यदि यह नई राष्ट्रीय सरकार अमेरिका और फौज के शिकंजे से मुक्त हो गई तो पाकिस्तान का कायाकल्प हो जाएगा| पाकिस्तान एक सभ्य, स्वस्थ और सच्चे सार्वभौम राष्ट्र की तरह सिर ऊंचा करके चल सकेगा|
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