R Sahara, 6 Dec 2003: पॉंच-सात राज्यों के चुनाव क्या इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि वे देश की दिशा ही बदल दें ? वर्तमान चुनाव कुछ ऐसे ही हैं| पहले भी इस तरह के चुनाव हुए हैं| जैसे आपात्काल के बाद मोरारजी देसाई ने और इंदिराजी की वापसी के बाद कॉंग्रेस ने करवाए थे| बाबरी मस्जिद के टूटने के बाद भी कुछ राज्यों मेंे चुनाव हुए थे लेकिन उन सब चुनावों में केंद्र के सत्तारूढ़ दल ने बहती गंगा में हाथ धोए थे| इन चुनावों की खूबी यह है कि इन्होंने नई राजनीतिक प्रवृत्तियों की गंगा बहा दी है|
सबसे जानदार बात तो यह उभरकर सामने आई है कि भाजपा-जैसी पार्टी चाहे तो अपने मूल मुद्दे को भी छोड़ सकती है और उसके बावजूद सत्ता-सुख भोग सकती है| बिना हिन्दुत्व, बिना राम मंदिर, बिना कॉमन सिविल कोड और बिना कश्मीर-धारा के यदि चुनाव जीता जा सकता है तो फिर वह इस पचड़े में पड़े ही क्यों ? वह इन्हें हाथी के दॉंत की तरह बस दिखाने के लिए रखे रहे और खाने के लिए उन्हीं मुद्दों पर राजनीति करे, जिनकी वजह से उसे यह अपूर्व विजय मिली है| लेकिन यह रास्ता ज़रा खतरनाक है| सगुण है| ठोस है| इसमें जवाबदेही है| पॉंच साल तो दूर की बात है, सालभर में ही कुछ करके दिखाना होगा| बिजली, सड़क, पानी ही नहीं, बेरोजगारी, भूख, अशिक्षा और असुरक्षा जैसे रोज़मर्रा के मुद्दों पर अगर कुछ करके नहीं दिखाया तो कलई उतरते देर नहीं लगेगी| भाजपा को अपनी प्राथमिकता तय करने का यह स्वर्णिम अवसर मिला है| यदि उसे निरंतर राज करते रहना है, जैसा कि बंगाल में मार्क्सवादी कर रहे हैं तो जैसे उन्होंने मार्क्सवाद को ताक पर रख दिया है, वैसे ही वह चाहे तो हिन्दुत्व को बगल में रख सकती है| यदि इस नई प्रवृत्ति का सूत्रपात हो जाए तो भाजपा भी कांग्रेस की तरह सर्व-स्वीकार्य पार्टी के रूप में ढल सकती है| फिर मार्क्सवादियों और समाजवादियों को भी उससे हाथ मिलाने में ज्यादा संकोच नहीं होगा| अटलबिहारी वाजपेयी को भाजपा का यही रूप पसंद है| जब वे भाजपा अध्यक्ष बने थे तो बंबई-अधिवेशन में गॉंधीवादी समाजवाद का प्रस्ताव लाए थे लेकिन उनकी अध्यक्षता में पार्टी सिकुड़कर वामन-रूप हो गई थी| वे स्वयं नेपथ्य में चले गए थे लेकिन अब वही लहर फिर लौट रही है और उत्ताल तरंग की तरह लौट रही है| यदि भाजपा इन लौटती लहरों की बॉंसुरी बजा सके तो वे दल भी उसकी टेर सुनेंगे, जो उसे आज तक अछूत समझे बैठे हैं| इसका एक दूरगामी परिणाम यह भी होगा कि भारतीय राजनीति दक्षिण और वाम के खॉंचों से मुक्त होगी और किसी दिन भारत में द्विदलीय लोकतंत्र का सपना साकार होगा| इसका मतलब यह नहीं कि भाजपा अपनी मूल मान्यताओं का परित्याग कर दे| बस फर्क यही होगा कि उन मान्यताओं के लिए उसे व्यापक सर्वसम्मति तैयार करनी होगी|
यह जरूरी नहीं कि इन प्रादेशिक परिणामों से उत्साहित होकर लोकसभा-चुनाव समय से पहले ही करवा दिए जाऍं| यदि वे साल भर बाद हों और ये नई सरकारें अच्छा काम करें तो भाजपा को 1999 से भी अधिक सीटें मिल सकती हैं और यदि इन सरकारों ने शिथिलता का परिचय दिया तो केंद्र का कम्बल भीगे बिना नहीं रहेगा| जो परिणाम आज मीठे लग रहे हैं, साल भर बाद वे ही कड़ुवाहट से भर उठेंगे| हम यह न भूलें कि जिन चारों राज्यों में भाजपा की सीटें और वोट बढ़े हैं, वे सब हिन्दीभाषी राज्य हैं| यदि इन सभी राज्यों में भाजपा को दो-तिहाई बहुमत मिल जाता और उसी आधार पर अगले साल लोकसभा की सीटें भी मिल जाऍं तो भी क्या वह अकेले सरकार बना सकती है ? बिल्कुल नहीं ! हिन्दी-प्रदेश में ही अभी उसे लालू, मुलायम, मायावती आदि से निपटना होगा और दक्षिण तथा पूर्व में तो उसकी उपस्थिति नगण्य ही है| अर्थात्र गठबंधन के बिना भाजपा अब भी केंद्र में दुबारा सत्तारूढ़ होने का सपना नहीं देख सकती| भाजपा के गठबंधन का गुरुत्वाकर्षण इन चुनावों ने कई गुना बढ़ा दिया है, इसमें शक नहीं है| जिस अनुपात में भाजपा का बढ़ा है, उसी अनुपात में कॉंग्रेस का घट गया है|
कॉंगे्रस के लिए यह चुनाव मरणान्तक सिद्घ हुआ है| अब कॉंग्रेस के साथ कौनसा दल गठबंधन के लिए लालायित होगा ? यह आशा करना निरर्थक है कि अगले एक साल में पछाड़ खाई कॉंग्रेस उठकर फिर खम ठोकने लगेगी| म.प्र. में तो कॉंग्रेस हारने ही वाली थी| यदि वह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत जाती तो भी कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होती| भाजपा तो तब भी फायदे में ही रहती| अब जबकि भाजपा तीन राज्यों में जीत गई है और दिल्ली में उसने अपने वोट और सीटें बढ़ा ली हैं, कॉंग्रेस का अपने पॉंवों पर चलना भी दूभर हो गया है| सोनिया गॉंधी ने अंग्रेजी मुहावरा इस्तेमाल किया है| हमें अपने मौजे चढ़ाने होंगे| मौजे काहे पर चढ़ाऍंगी ? मौजे चढ़ाने के लिए पॉंव तो होने चाहिए| कॉंग्रेस के पॉंव डगमगा चुके हैं| इसके लिए सोनिया गॉंधी के माथे ठीकरा फोड़ना भी उचित नहीं है| सोनिया वोटखेंचू नेता न पहले थीं, न अब हैं और न ही भविष्य में होंगी| पॉंच साल पहले जब सीताराम केसरी को टॅंगड़ी मारकर सोनिया तख्त पर बैठी थीं तब भी कॉंग्रेसियों ने प्रदेशों की विजय का सेहरा सोनिया के माथे पर बॉंध दिया था| तब भी मैंने लिखा था कि जरा सोचें कि कौन बड़ा है, सोनिया या प्याज ? कॉंग्रेसी भी कितने भोले हैं ? उनके-जैसा मूर्तिपूजक दल दुनिया में कोई और नहीं है| उन्होंने घोड़े पर कठपुतली बैठा दी है और उसकी पीठ पीछे दूसरों से पूछते हैं कि यह वार क्यों नहीं करती ? सवार हो तो वार करे ? पिछले संसदीय चुनाव में कॉंग्रेस को जितनी कम सीटें मिली, उतनी कम कभी नहीं मिलीं| अगले चुनाव में यह ऑंकड़ा दो अंकों तक सीमित रह जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा| दिग्विजय, अशोक गहलोत और अजीत जोगी की जगह उमा, वसुंधरा आदि का आना इस बात का सूचक है कि भाजपा में नेताओं की नई पीढ़ी का उदय हो रहा है और कॉंग्रेस की नई पीढ़ी भी अस्ताचलगामी हो गई है| शीला दीक्षित की जीत पत्थर की लकीर की तरह खिंची हुई थी| उनके मिजाज और तौर-तरीके में एक खास गरिमा और सुगंध है, जो दिल्लीवासियों की पसंद से मेल खाती है| भाजपा के स्थानीय नेताओं की आपसी खींचातानी और अति नाटकीयता ने भी दिल्ली के मतदाताओं को उससे विरत किया| शीला दीक्षित को उन रचनात्मक गतिविधियों का भी लाभ मिला, जो केंद्र सरकार ने दिल्लीवासियों के लिए शुरू कीं| आम मतदाता सिर्फ यह जानता है कि उसे राहत मिल रही है| उसे इस बारीकी में जाने की फुर्सत नहीं कि उस राहत में केंद्र का कितना योगदान है और राज्य का कितना ? सड़क चिकनी और सपाट है, चलनेवाले के लिए यही काफी है| राज्य ने उसमें कितना तारकोल लगाया है और केंद्र ने कितनी रोड़ी बिछाई है, इससे उसका क्या लेना-देना ? राज्य उसके ज्यादा पास है, इसलिए उसने राज्य के नेतृत्व को पुरस्कृत किया तो इसमें कोई खास आश्चर्य नहीं है| महत्वपूर्ण बात यही है कि आज शीला दीक्षित की साख देश में सोनिया गॉंधी से भी ज्यादा है| यों भी चुनावों परिणामों की गहमागहमी में सोनिया गॉंधी तो नेपथ्य में कहीं खोई हुई थीं, जबकि शीला दीक्षित दी.वी. के पर्दे पर बराबर चमचमा रही थीं|
इस समय शीला दीक्षित ही नहीं, पॉंच-पॉंच महिलाऍं एक साथ मुख्यमंत्री के पदों को सुशोभित करेंगी| भारतीय राजनीति की यह अपूर्व घटना है| यह घटना उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी कि इंदिरा गॉंधी का प्रधानमंत्री होना था| दुनिया का कोई लोकतंत्र ऐसा नहीं है, जहॉं पॉंच-पॉंच महिलाऍं एक साथ इतने शक्तिशाली पदों पर बैठी हों| जब इंदिरा गॉंधी प्रधानमंत्री और सुचेता कृपालानी उ.प्र. की मुख्यमंत्री थीं तो उसे लोकतंत्र का अजूबा कहा जाता था| यदि पॉंचों महिला मुख्यमंत्री दलीय मतभेदों को भुलाकर कोई मिला-जुला न्यूनतम कार्यक्रम बनाऍं और उसे लागू कर दें तो भारत की राजनीति में नए युग का सूत्रपात हो सकता है| बिना आरक्षण के ही विधानसभा और लोकसभा में महिलाओं का बहुमत हो जाएगा| राबड़ी देवी के अलावा सभी महिलाओं ने तिलक धारण करने के पहले खुद तलवार भॉंजी है| उनके पद उन्हें किसी ने तश्तरी में रखकर पेश नहीं किए हैं| ध्यान देने लायक तथ्य यह भी है कि उमा भारती ने भी चुनाव-अभियान के आखिरी दौर में उसी मर्यादा और गरिमा का परिचय दिया जो वसुंधरा राजे और शीला दीक्षित ने शुरू से दिया था| आशा है, मायावती और जयललिता अपनी नाट्रयशाला की इन नई नायिकाओं को रद्द नहीं करेंगी| भारतीय राजनीति में इस शील और गरिमा की कितनी अधिक जरूरत है|
इस चुनाव का एक और बड़ा अजूबा यह है कि दिलीपसिंह जूदेव के बावजूद भाजपा राजस्थान और म.प्र. में ही नहीं, छत्तीसगढ़ में भी बड़े आराम से जीत गई| तो क्या अब भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं रह गया है ? मुद्दा तो वह है और बहुत जोरदार है| इसीलिए भाजपा किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई थी लेकिन जूदेव को जोगी मिल गए| सेर को सवा सेर ! अजीत जोगी ही नहीं, उनके परिवार और रिश्तेदार-सभी की छवि कुछ ऐसी बन गई कि जूदेव की करनी छत्तीसगढ़ के लोगों को जॅूं बराबर भी नहीं लगी| इसके अलावा लोगों को यह भी लगा कि हाथ की सफाइयों के महान कलाकार जोगी ने ही जूदेव कॉंड करवाया हो सकता है| जिस लोकमत ने अपराध सिद्घ हुए बिना ही राजीव गॉंधी को कुर्सी से उतार दिया, उस लोकमत ने रंगे हाथ पर्दे पर दिखाए जा रहे जूदेव को अनदेखा कर दिया, इसका क्या अर्थ लगाया जाए ? इसका कारण शायद यह भी रहा हो कि जूदेव की घटना ऐन चुनाव के वक़्त ही घटी थी| अब जूदेव को मॅूंछें मुंडाने की जरूरत नहीं है लेकिन उनकी मॅूंछे वट-वृक्ष की तरह पूरी भारतीय राजनीति के चेहरे पर फैली हुई हैं और उनमें रिश्वत और अपराध की जूऍं कुलबुला रही हैं| इन जूओं को निकालने के काम में अगर भाजपा ने ढील छोड़ दी तो वह कॉंग्रेस का विकृत संस्करण बनकर रह जाएगी|
इन चुनावों ने जूदेव की मॅूंछे तो बचा दीं लेकिन ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि ज्यादातर अखबार, टी.वी. चैनल और चुनाव-विशेषज्ञों की मूंछें अपने आप ही मॅुड गई हैं| वास्तविक लोकमत से हमारा प्रचार-तंत्र कितना दूर है, यह इन चुनाव-परिणामों ने सिद्घ कर दिया है| आत्मरतिग्रस्त प्रचार महारथियों को यह पता ही नहीं चला कि जोगी कैसे वियोगी हो गए और संन्यासिन कैसे सिंहासीन हो गई| बड़े-बड़े विशेषज्ञ सिर्फ अटकलपच्चू सिद्घ हुए| इस अवसर पर यह विचार करना भी जरूरी है कि चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण आदि की परंपरा को बंद किया जाए या चालू रखा जाए ? चुनाव आयोग को प्रचार-तंत्र के लिए किसी आचार-संहिता के निर्माण पर विचार करना होगा|
तीन राज्यों की अप्रत्याशित विजय पर भाजपा के शीर्ष नेताओं को एक-दूसरे के मॅुंह में मिठाई रखते हुए देखना भी मजेदार प्रपंच है| कोई आश्चर्य नहीं कि इन चुनाव परिणामों को वे अपनी उपलब्धियों का पुरस्कार समझ बैठें| मिजोरम समेत पॉंच राज्यों में से किसी में भी भाजपा की सरकार ही नहीं थी| इसीलिए उपलब्धि या अनुपलब्धि का कोई सवाल ही नहीं उठता| कॉंग्रेसी सरकार की अनुपलब्धियॉं ही भाजपा की उपलब्धियॉं बन गईं| यदि भाजपा नेतृत्व इस सत्य को हृदयंगम कर रहा हो तो वह गर्वोन्मत्त नहीं होगा| यदि केंद्र सरकार की उपलब्धियॉं चमत्कारी होतीं तो शीला दीक्षित को भी डूबने से कौन बचा सकता था| केंद्र की नाक के नीचे ही कॉंग्रेस का मस्सा उग आया है| यह तथ्य काफी है, भाजपा नेतृत्व को अगले साल तक सतत अपने पंजों पर दौड़ाए रखने के लिए| भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को यह पता होना चाहिए कि उसके उद्घार के लिए इस बार दूसरा करगिल होता दिखाई नहीं पड़ता| हॉं, सोनिया गॉंधी उसकी विजय की गारंटी के तौर पर तो सही-सलामत रहेंगी ही|
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