नया इंडिया, 16 मई 2014: ‘नया इंडिया’ अखबार अपने आप में अजूबा है। सबसे पहली बात तो यह कि इस अखबार का संचालक या मालिक स्वयं पत्रकार है। मालिक ही संपादक भी हों, ऐसे अखबार आज भी कई हैं लेकिन क्या वे मालिक सचमुच पत्रकार होते हैं? उनके नाम से जो लेख छपते हैं, कई बार वे स्वयं भी उन्हें नहीं पढ़ते। हां, कुछ वास्तविक पत्रकार कुछ अखबारों के मालिक भी हैं लेकिन उनके अखबार भी व्यापार की तरह चलते हैं। व्यापारी के लिए तो लाभ ही शुभ है। वे संपादक कभी कोई ऐसा खतरा मोल नहीं लेते, जिससे कोई घाटा हो जाए। लेकिन आज जो अखबार घाटे और फायदे से ऊपर उठकर सिर्फ राष्ट्रहित की चिंता करता हो, उसका नाम है – नया इंडिया।
आजादी के पहले ‘नया इंडिया’ जैसे कई पत्र और पत्रिकाएं निकलती थीं। उनके पास न तो कोई बड़ी पूंजी होती थी और न ही लाखों की प्रसार-संख्या, लेकिन देश को जगाए रखने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। यही भूमिका आज ‘नया इंडिया’ निभा रहा है। वास्तव में यह ‘इंडिया’ का ‘नया’ अखबार है। हिंदी के अखबारों में बिल्कुल नया! यह हिंदी प्रदेशों की राजधानियों से निकल रहा है। ऐसा अखबार आज कोई दूसरा नहीं है। ‘नया इंडिया’ का पाठक वर्ग भी जानने लायक है। ‘नया इंडिया’ के लगभग सभी पाठकों को ‘भद्रलोक’ कहा जा सकता है याने हिंदी क्षेत्र के सभी विचारशील राजनेता, पत्रकार, अध्यापक, व्यावसायिक, उद्योगपति, समाजसेवी आदि इस अखबार को पढ़ते हैं। ‘नया इंडिया’ हिंदी भद्रलोक का कंठहार है। एक दिन ऐसा भी शीघ्र आएगा कि अपने आप को जो भी भद्रलोक का सदस्य कहलवाना चाहेगा, उसके लिए ‘नया इंडिया’ का पाठक होना जरुरी होगा।
इधर मुझे अनेक केंद्रीय मंत्रियों, विपक्ष के शीर्ष नेताओं और कई शीर्ष अखबारों के संपादकों ने फोन करके अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं। एक वयोवृद्ध संपादकजी ने बहुत पहले फोन करके बताया था कि मैंने आजकल डेढ़ सौ रुपए महिने का उनका नियमित नुकसान कर दिया है। मैंने पूछा कैसे? तो उन्होंने कहा कि ‘आप की वजह से आजकल मुझे हिंदी का सबसे महंगा अखबार रोज़ खरीदना पड़ता है’। वैसे आजकल ‘नया इंडिया’ का मूल्य तीन रु. है। पहले पांच रु. था।
‘नया इंडिया’ में मैं रोज़ लिखता हूं। पिछले 60 साल में मेरे लेख सैकड़ों अखबारों ने छापे, जिनकी पाठक-संख्या करोड़ों में है लेकिन क्या मैं आपको सच बताऊं कि जो आनंद और आत्म-संतोष मुझे ‘नया इंडिया’ में लिखने से मिलता है वह आज तक मुझे कहीं भी कभी नहीं मिला। ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘पीटीआई’ भाषा का संपादक रहते हुए भी नहीं। इसके संपादक और प्रकाशक हरिशंकर व्यास ने मुझे एक बार भी किसी बात के लिए नहीं टोका। बाहरवाला कोई टोके, यह स्थिति तो बाद में आती है। सबसे पहले अंदरवाला टोकता है। अंदरवाले के गणित में अखबार-मालिक के हित, संपादक का रुझान, अपनी छवि का डर, आदि कई तत्व काम करते रहते हैं। आप कितने ही निष्पक्ष और निडर हों लेकिन एक अदृश्य तलवार लिखते वक्त आपके सिर पर लटकी रहती है लेकिन ‘नया इंडिया’ में जब मैं लिखता हूं तो बिल्कुल भारहीन होकर तैरता हूं। मैं श्वास साधे पानी पर चित पड़ा रहूंगा या चारों दिशाओं में हाथ-पैर मारुंगा, यह भी मुझे खुद पहले से पता नहीं चलता। दूसरे शब्दों में यहां कलम उतनी ही स्वतंत्र होती है, जितनी कि मेरी श्वास-निश्वास की प्रक्रिया! यह सदेह मोक्ष की अनुभूति नहीं है तो क्या है?
‘नया इंडिया’ अखबार कितने कम साधनों से निकल रहा है, इसकी जानकारी आपको नहीं होगी। इस अखबार को अगर कोई सबल वित्तीय संबल मिल जाए तो यह सारे अंग्रेजी अखबारों को मात दे सकता है। हरिशंकर व्यास का विलक्षण पुरुषार्थ ही है, जिसके कारण हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में यह नया प्रतिमान स्थापित हुआ है। हरिशंकर व्यास जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में पढ़े हैं। उन्होंने जनसत्ता में वर्षों काम किया है। काम भी किया है और नाम भी किया है। वे जनसत्ता के प्रारंभिक निर्माताओं में से रहे हैं। अपने उस सघन अनुभव को वे प्रतिदिन अपनी कलम से ‘नया इंडिया’ में उतारते हैं। जनसत्ता छोड़ने के बाद उन्होंने हिंदी में नेटजाल.कॉम नामक वेबसाइट शुरु की थी। मैं उससे भी जुड़ा हुआ था। उन्होंने इस वेबसाइट के जरिए हिंदी पत्रकारिता को तकनीकी दृष्टि से समृद्ध किया था। उन्होंने पत्रकारों की एक नई पीढ़ी खड़ी कर दी है। हरिशंकर व्यास ने हिंदी में ‘कंप्यूटर संचार-सूचना’ पत्रिका भी निकाली और उसे कई वर्षों तक चलाते रहे। उस पत्रिका का उद्घाटन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा और मैंने किया था। उस पत्रिका ने हिंदी जगत को कंप्यूटर की संचार-क्रांति से अवगत करवाया। देश के हजारों नौजवानों को उस पत्रिका ने कंप्यूटर-चालन में निष्णात किया। व्यासजी की संस्था ने कंप्यूटर-चालन सिखाने के लिए तब हिंदी में अनेक पुस्तिकाएं भी प्रकाशित की थी!
व्यासजी अच्छे पत्रकार, प्रबंधक और लेखक तो हैं हीं लेकिन वे एक उत्तम टीवी एंकर हो सकते हैं, इसका मुझे पता नहीं था। उनका कार्यक्रम ‘सेंट्रल हाल’ ईटीवी पर कितना लोकप्रिय है, इसका अंदाज मुझे तब लगता है, जब मैं दिल्ली से बाहर जाता हूं। रेल और हवाई जहाज में मुझे अक्सर लोग मिलते हैं, जो मेरे हस्ताक्षर लेना चाहते हैं। मैं उनसे पूछता हूं कि यह आपको क्यों चाहिए तो वे बोलते हैं कि ‘सेंट्रल हाल’ में आप जब व्यासजी के संवालों का जवाब देते हैं तो ऐसा लगता है कि आप हमारे सवालों का जवाब दे रहे हैं। व्यासजी के साथ टीवी पर बातचीत करते हुए मुझे कभी ऐसा नहीं लगता है कि मैं किसी एंकर के साथ बैठा हूं। हमेशा लगता है कि जैसे हम घर में बैठकर किसी मित्र के साथ एकदम बेबाक और आत्मीय बात कर रहे हैं। हरिशंकर व्यास का विषय—चयन ओर संवाद का दो—टूक पैनापन ऐसा है कि देश के अत्यंत प्रसिद्ध और व्यावसायिक एंकरों को भी उनसे काफी—कुछ सीखने लायक मिल सकता है। देश और विदेश के किस एंकर (हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, ईरानी, पाकिस्तानी, अफगान, चीनी, ब्रिटिश, रुसी और अमेरिकी) के साथ मुझे टीवी पर आने का अवसर नहीं मिला है लेकिन यह बात मैं बिना अतिश्योक्ति के लिख रहा हूं कि जो सार्थकता मुझे व्यासजी के साथ लगती है, वह अब तक गिने—चुने एंकरों के साथ ही लगती रही है।
व्यासजी यों तो उम्र में मुझसे काफी छोटे हैं लेकिन उद्यमशीलता, प्रबंधन और धैर्य में वे मुझसे बहुत बड़े हैं। एक ही जीवन में वे कई जीवनों का काम कर रहे हैं। ईटीवी पर रोज़ उल्लेखनीय कार्यक्रम ‘सेंट्रल हॉल’ करना, वेबसाइट चलाना और दैनिक अखबार चलाना- और ये सब काम खुद करना याने पीर, बावर्ची, भिश्ती और खर एक साथ बने रहना किसी जादूगरी से कम नहीं है। इतना सब कुछ करते हुए भी सदा प्रसन्न दिखाई पड़ना, लेश-मात्र भी अहंकार न होना और सतत कर्मठता बनाए रखना- यह गहरी आध्यात्मिकता के बिना संभव नहीं है।
इस अवसर पर मैं ‘नया इंडिया’ की उत्तरोत्तर सफलता की कामना करता हूं और ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि व्यासजी शतायु हों। वे भारतीय लोकतंत्र को सुद्दढ़ बनाने में इसी तरह सक्रिय योगदान करते रहें।
(लेखक, नवभारत टाइम्स और पीटीआई भाषा के संपादक रह चुके हैं और उन्होंने ‘हिंदी पत्रकारिता: विविध आयाम’ नामक प्रसिद्ध महाग्रंथ का संपादन किया था। वे अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ हैं और उन्होंने अनेक जन-आंदोलनों का नेतृत्व और मार्गदर्शन किया है।)
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