नया इंडिया, 17 नवंबर 2013: आखिरकार मालदीव में चुनाव हो ही गए लेकिन उसके परिणाम काफी अप्रत्याशित रहे। पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद हार गए और अब्दुल यामीन जीत गए। भारत ही नहीं, दुनिया के कई देश यह आस लगाए बैठे थे कि नशीद जीतेंगे और वे दुबारा राष्ट्रपति बनेंगे लेकिन सबकी आशाओं पर पानी फिर गया। यह कैसे हुआ? अंतिम दौर के पहले जो दो दौर हुए, उन चुनावों में भी नशीद को 45 से 47 प्रतिशत वोट ही मिले। पहले दौर को चुनाव आयोग ने निरस्त किया तो सबको लगा कि नशीद के विरुद्ध षड़यंत्र हो रहा है, क्योंकि नशीद के निकटतम प्रतिद्वंद्वियों को 23 से 25 प्रतिशत ही वोट मिले। ऐसा लग रहा था कि नशीद के पक्ष में हुए शोर-शराबे के कारण नए पहले दौर में ही उन्हें 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिल जाएंगे और दूसरे दौर की जरूरत नहीं पड़ेगी। वे राष्ट्रपति घोषित हो जाएंगे। लेकिन इस नए पहले दौर में भी उनका प्रतिशत बहुत कम बढ़ा। वह अटक गया। 50 प्रतिशत का आंकड़ा पार नहीं कर पाया। इसलिए अब दूसरा दौर होना था लेकिन यह दूसरा दौर भी पुलिस और फौज की दखलंदाजी के कारण टल गया। अब ऐसा लग रहा था कि सरकार की इस साजिश के खिलाफ मालदीव की जनता का खून खोल उठेगा लेकिन जब दूसरा दौर हुआ तो नशीद फिर 46.93 पर ही अटक गए और उनके प्रतिद्वंद्वदी अब्दुल्ला यामीन 50 प्रतिशत की सीमा पार गए।
यामीन इसलिए जीते क्योंकि उन्होंने अपनी ‘प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव्ज’ का समझौता चार अन्य पार्टियों से कर लिया। ये चार पार्टियां थीं-अदालत पार्टी, जम्हूरी पार्टी, कौमी इत्तेहाद पार्टी और इस्लामिक डेमोक्रेटिक पार्टी। यामीन के विपरीत नशीद ने किसी अन्य पार्टी से समझौता नहीं किया। 2008 का चुनाव वे अन्य पार्टियों से मिलकर जीते थे। इस बार उन्हें आत्मविश्वास का आधिक्य ले बैठा। यामीन ने मालदीव के मुसलमानों को इस्लामपरस्ती का नारा भी दिया। वे मालदीव के 30 साल तक राष्ट्रपति रहे गय्यूम के भाई भी लगते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि उनको जीताने के लिए चीन और पाकिस्तान ने भी अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। मालदीव की राजधानी में एक भारतीय कंपनी जो हवाई अड्डा बना रही थी, उस प्रायोजना को रद्द कराने का बीड़ा मोहम्मद जमील नामक नेता ने उठाया था। वे अब यामीन के उपराष्ट्रपति बनेंगे। जाहिर है कि यह प्रकारांतर से गय्यूम की ही सरकार होगी। हालांकि गय्यूम के तख्ता-पलट को भारत की मदद से ही 1998 में रोका गया था लेकिन अब गय्यूम इस पुराने अहसान के लिए भारत के कृतज्ञ होंगे या नहीं, कहा नहीं जा सकता। नशीद अपने तख्ता-पलट के बाद भारतीय दूतावास में ही छिपे थे और उन्हें भारतपरस्त भी माना जाता है लेकिन अब पता नहीं, वे क्या करेंगे। अभी भी वे मालदीव के नेताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। यह असंभव नहीं कि उनकी हताशा उन्हें कहीं अराजकता फैलाने के दौर में न ले जाए। यूं तो भारत सरकार राष्ट्रपति यामीन से अच्छे संबंध बनाने की कोशिश करेगी लेकिन नशीद की हार भारत की कूटनीति के लिए एक चुनौती बनकर सामने आई है। भारत मालदीव के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करे, यह तो ठीक है लेकिन वह नशीद को सही सलाह तो दे सकता था।
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