नया इंडिया, 25 फरवरी 2014 : बिहार में बन रहे नालंदा विश्वविद्यालय का भी अजीब हाल है। आजकल उसके बारे में बहस यह चल रही है कि उसे अनाप-शनाप खर्च की अनुमति है या नहीं? यदि वह लगभग तीन हजार करोड़ रुपए खर्च करने में स्वतंत्र है, यदि वह अध्यापकों को पांच-पांच लाख रुपए महीना वेतन देने में स्वतंत्र है और विदेशियों को नियुक्त करने में स्वतंत्र है तो माना जाएगा कि वह सचमुच स्वायत्त है। हमारे वित्त मंत्रालय ने अड़ंगा लगा दिया है। वह कह रहा है कि खर्च का पूरा ब्योरा रखिए और उसकी लेखा-परीक्षा करवाइए। खर्च वक्त नियमों का पालन कीजिए।
इस आपत्ति को देखकर डॉ अर्मत्य सेन भन्ना गए हैं। अफवाह है कि वे कुलपति पद छोड़ रहे हैं। उन्होंने इसका खंडन कर दिया है लेकिन उन्होंने वित्त मंत्रालय को आड़े हाथों लिया है। वे कह रहे हैं कि यह भारत सरकार का केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं है। यह अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय है। इसे पूर्ण स्वायत्ता होनी चाहिए। ऐसी संस्थाओं के लिए मैं भी स्वायत्तता का समर्थक हूं लेकिन स्वायत्तता का अर्थ स्वच्छंदता तो नहीं है। जहां तक वित्तीय स्वायत्तता के नाम पर नव-नियुक्त अध्यापकों को पांच-पांच लाख तक वेतन देने का प्रावधान है तो फिर देश के अन्य 250 विश्वविद्यालय का क्या होगा? उनमें नियुक्त होने वाले अध्यापक कुछ हजार रुपयों में ही संतुष्ट क्यों होंगे? क्या उनमें हीनता का भाव नहीं भर जाएगा? देश के हजारों विद्वानों को अपमानित करना और मुट्ठीभर विद्वानों की अलग जमात खड़ी कर देना कहां तक उचित है? जो लोग नालंदा विश्वविद्यालय में पढ़ाएंगे, क्या वे आसमान से उतरेंगे। यह ठीक है कि यह अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय है लेकिन मेरा प्रश्न यह है कि पहले यह भारतीय है या नहीं?
नालंदा को अंतरराष्ट्रीयत्ता के नाम पर विदेशी मत बनाइए। इसे हावर्ड, ऑक्सफोर्ड और केंब्रिज की कार्बन कॉपी मत बनाइए। उसके लिए तो हमारे कई विश्वविद्यालय पहले से नकलची बने हुए हैं। नालंदा को नालंदा बनाइए। सबसे पहले उसकी पढ़ने-पढ़ाने की भाषा भारतीय होनी चाहिए। संस्कृत, पाली, प्राकृत, हिंदी, बांग्ला, तमिल वगैरह क्यों नहीं? क्या नालंदा की भाषा अंग्रेजी थी या फ्रासीसी थी या उच थ पुर्तगाली थी? क्या वहां उस जमाने में पढ़ाई का माध्यम ग्रीक या लेटिन था? यदि सारा ज्ञान-विज्ञान उस समय स्वदेशी भाषा में पढ़ाया जाता था तो अब क्यों नहीं पढ़ाया जा सकता? यह क्रांतिकारी और आधुनिक चिंतन अर्मत्य बाबू के बस की बात नहीं है। अर्मत्य बाबू का मैं आदर करता हूं लेकिन मुझे पता है कि जिन लोगों को उन्होंने अभी तक नियुक्त किया है, उनको यह समझ ही नहीं है कि नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशीला आदि कैसे विश्वविद्यालय थे। पश्चिमी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों की नकल उतारने के लिए 3000 करोड़ रुपए खर्च करने की कोई तुक नहीं है। मुझे पूरा विश्वास है कि 16वीं संसद इस नालंदा का उस नालंदा जैसा और उससे भी बेहतर बनाने की कोशिश करेगी।
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