R Sahara, 5 March 2003: कैसा विचित्र संयोग है कि गुट-निरपेक्षता जितनी अप्रासंगिक हो गई है, उसका सम्मेलन उतना ही सफल हुआ है| याने क्या अप्रासंगिकता सफल हुई है ? जी हॉं, मलेशिया की राजधानी क्वालालम्पुर में यही हुआ है| 116 राष्ट्र्रों के गुट-निरपेक्ष सम्मेलन में इतने राष्ट्र्रपति और प्रधानमंत्री एक साथ पहुंच गए कि जितने संयुक्तराष्ट्र्र संघ में भी नहीं पहुंचते | 63 राष्ट्र्रपतियों और प्रधानमंत्रियों ने इस 13 वें सम्मेलन में क्या किया ? अगर उनके राष्ट्र्रों की संसदें और अखबार तेज़-तर्रार हों तो वे उनका दम निकाल देंगे| वे अपने नेताओं से पूछ सकते हैं कि गरीब जनता के लाखों रुपए खर्च करके आपने अपने देश का कौनसा भला किया ? यह सम्मेलन इस दृष्टि से सफल हुआ कि इसका जमावड़ा अपूर्व रहा, नेताओं और अफसरों को एक-दूसरे से मिलने का मौका मिला, कुछ मौज-मजा और खाना-पीना हुआ लेकिन ठोस निष्पत्ति क्या हुई ? कुछ भी नहीं|
बुनियादी मुद्दों की बात बाद में करेंगे| पहले तात्कालिक मुद्रदे लें| जिन तात्कालिक मुद्रदों पर सम्मेलन ने सबसे अधिक ध्यान दिया, वे थे, एराक और आंतकवाद ! एराक़ पर सम्मेलन ने कोई ऐसी बात नहीं कही, जिससे बुश या सद्रदाम पर रत्ती भर भी असर हुआ हो| संयुक्तराष्ट्र्र संघ प्रस्ताव को ज्यों का त्यों दोहरा दिया गया और यह भी कह दिया गया कि एराक़ का निरस्त्रीकरण और प्रतिबंधों की वापसी साथ-साथ हो | यह बात अच्छी है| एराक़ी जनता के प्रति सहानुभूति दर्शानेवाली है लेकिन इससे फर्क क्या पड़ा ? यदि 116 राष्ट्र्रों के प्रतिनिधि कोई ऐसी बात कहते, जो 15 सदस्योंवाली सुरक्षा परिषद्र की बात से सवाई होती तो माना जाता कि गुट-निरपेक्ष आंदोलन का अपना कोई योगदान है| इतने बड़े आंदोलन की इतनी-सी हैसियत भी नहीं कि वह सद्दाम या बुश को अपनी-अपनी हठधर्मी छोड़ने के लिए प्रेरित कर सके| 63 राष्ट्र्रों के सर्वोच्च नेतागण कम से कम एक-एक प्रतिनिधि-मंडल तो दोनों महामल्लों के पास भेजते और उनसे पूछते कि आपने दुनिया को युद्घ के कगार पर क्यों ठेल दिया है ?लगभग चार अरब लोगों के प्रतिनिधियों में इतनी हिम्मत भी नहीं कि वे अमेरिका को नाम लेकर फटकारें और उससे कहें कि वह हमला करने से बाज़ आए|
यह अलग बात है कि सम्मेलन के नए अध्यक्ष मलेशिया के नेता महाथिर मुहम्मद ने अपने भाषण में अमेरिका को खरी-खरी सुनाई| उन्होंने यहॉं तक कह दिया कि अमेरिका की हालत उस भयाक्रांत रोगी की तरह हो गई है, जो दाढ़ी से, बुर्के से, चमड़ी के गेहुंऑं रंग से और इस्लामी नाम से भी डरने लगा है और लोगों की जेबों, ब्रीफ-केसों और जूतों में भी बम खोजने लगा है| उन्होंने यह भी कहा कि आंतकवाद का खात्मा तो बहाना है| असली निशाना इस्लाम है| यदि आंतकवाद के खात्मे के नाम पर हजारों अफगानों और लाखों एराकियों की जान ली जा सकती है तो फलिस्तीनियों को न्याय दिलाने के नाम पर 11 सितंबर की मौतों को भी अनदेखा क्यों नहीं किया जा सकता ? इसी तरह जिम्बाब्वे के राष्ट्र्रपति मुगाबे ने भी अपने भाषण में जॉर्ज बुश पर आग बरसाई| उन्होंने पूछा कि उनके चुनाव को अलोकतांत्रिक बतानेवाले जॉर्ज बुश को कौनसा बहुमत मिला था ? रिपब्लिकन जजों के फैसले के दम पर राष्ट्र्रपति चुने जानेवाले बुश को क्या अधिकार है कि वह दूसरे राष्ट्र्रों के नेताओं को तानाशाह कहे| महाथिर और मुगाबे की तरह फिदेल कास्त्रो ने भी अमेरिका की खिंचाई में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन इस तरह की कटु आलोचनाऍं तो ये नेतागण अपने देश में भी करते रहते हैं| गुट-निरपेक्ष आंदोलन के जरिए उन्होंने क्या किया ? क्या उनकी राय सम्मेलन के प्रस्ताव में कोई जगह पा सकी ? क्या सम्मेलन ने बुश के विरुद्घ कोई तेवर दिखाया ?
इन अतिवादी बयानों के मुकाबले तो भारतीय प्रधानमंत्री वाजपेयी और विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा की राय कम से कम संयत और तर्कसंगत तो रही| बुश उन्हें सुनें या सुनें, संसार को तो यह पता चल रहा है कि ठीक बात क्या है| अटलजी ने कविताई की शैली में ठीक ही कहा है कि बुश पर विशाल-जन प्रदर्शनों का क्या कोई असर नहीं होगा और जो बात एराक़ पर लागू की जा रही है, वह उत्तर कोरिया पर क्यों नहीं लागू की जा रही है ? क्या एराक़ के अलावा किसी अन्य देश के पास सर्वनाशकारी हथियार नहीं हैं ? उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका की युद्घ-मुद्रा का समर्थन करना कठिन है| भारत का यह रुख गुट-निरपेक्ष आंदोलन के घोषणा-पत्र में प्रकट क्यों नहीं हुआ ? इसी लीक पर सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित क्यों नहीं हुआ ? राष्ट्र्रों के निजी बयान कितने ही उचित और निर्भीक हों, जब तक वे गुट-निरपेक्ष आंदोलन के प्रस्ताव नहीं बनते, उनकी कीमत क्या है ?
यही बात आंतकवाद के सवाल पर लागू हुई | भारत चाहता था कि सम्मेलन की क्वालालम्पुर घोषणा में राज्यों द्वारा प्रोत्साहित आंतकवाद याने पाकिस्तान-जैसे राष्ट्र्रों की भूमिका की आलोचना की जाए लेकिन ‘राजकीय आंतकवाद’ शब्द का उल्लेख-मात्र भी उस घोषणा में नहीं है| गुट-निरपेक्ष आंदोलन में लगभग 50 मुस्लिम राष्ट्र्र हैं| वे पाकिस्तान पर भारत को सीधी उंगली कैसे उठाने देंगे| लेकिन हमें यह भी मानना होगा कि ये राष्ट्र्र पाकिस्तान के हाथ में भी नहीं खेले | उन्होंने पाकिस्तान द्वारा उठाए गए ‘मूल कारण’ और ‘स्वतंत्रता संग्राम’ शब्दों को भी रद्र कर दिया| पाकिस्तान का कहना था कि आंतकवाद के मूल कारण क्या हैं, यह प्रश्न इसलिए उठाया जाना चाहिए कि कश्मीर, चेचन्या, फलस्तीन आदि में लोगों पर पहले राज्य जुल्म करते हैं और उनके जवाब में लोग आंतकवाद का सहारा लेते हैं और ये ‘जुल्मी राज्य’ जिसे आंतकवाद कहते हैं, वह वास्तव में ‘स्वतंत्रता-संग्राम’ है| दूसरे शब्दों में इन अवधारणाओं के आधार पर पाकिस्तान अपने कश्मीर मुद्रदे को पुनजीर्वित करना चाहता था और सीमा-पार आंतकवाद को जायज़ ठहराना चाहता था लेकिन गुट-निरपेक्ष राष्ट्र्रों ने पाकिस्तानी तिकड़म को दरकिनार कर दिया और अपना ध्यान कश्मीर नहीं, फलिस्तीन पर केंदि्रत किया | फलस्तीन पर गुट-निरपेक्ष घोषणा में दो-टूक बात कही गई, इस्र्र्र्र्राइल की निंदा की गई और यह भी कहा गया कि आत्म-निर्णय के अधिकार को आंतकवाद कहना गलत है| इस आखरी जुमले पर पाकिस्तान रीझा हुआ है| वह मानकर चल रहा है कि यह उसकी विजय है| उसके लिए आत्म-निर्णय का मतलब है, कश्मीर !
कश्मीर के सवाल पर मुशर्रफ ने अपनी खूब जगहॅंसाई करवाई ! कोई भी मंच हो और कोई भी माहौल हो, पाकिस्तानी नेता राग कश्मीर अलापने से बाज़़ नहीं आते | क्वालालॅॅम्पुर में भी उन्होंने कश्मीर का ‘रेकार्ड’ बजा दिया| भारतीय प्रधानमंत्री ने तो करारा जवाब दिया ही, अध्यक्ष महाथिर मुहम्मद ने भी कह दिया कि यह राग बेसुरा है| यह आपसी मामला है| इसे सम्मेलन में क्यों घसीटा जा रहा है| यह सम्मेलन राष्ट्र्रों को जोड़ने के लिए है, तोड़ने के लिए नहीं| राष्ट्र्रपति मुशर्रफ ने एक भेंट-वार्ता में खुले-आम स्वीकार किया है कि कोई भी पाकिस्तानी नेता कश्मीर पर शोर मचाए बिना जिन्दा नहीं रह सकता| दुर्भाग्य यही है कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन और दक्षेस जैसे मंचों को भी पाकिस्तानी नेता नहीं बख्शते ! इस 13वें गुट-निरपेक्ष सम्मेलन में भारत-पाक लत्तम-धत्ता ही बड़ी खबर बनी रही | अगर दोनों राष्ट्र्र चाहते तो इस मौके का फायदा उठाकर कुछ गुपचुप संपर्क करते और जैसा कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री कसूरी ने कहा इस उप-महाद्वीप में नए युग का सूत्रपात करते| वास्तव में भारत और पाकिस्तान मिलकर गुट-निरपेक्ष आंदोलन को ही नई दिशा और नया जीवन प्रदान करते| तात्कालिक मुद्रदों पर गुट-निरपेक्ष आंदोलन पते की कोई बात नहीं कह पाया और जो बुनियादा मुद्रदे हैं, उन पर तो किसी ने ध्यान दिया ही नहीं|
सबसे पहला प्रश्न तो यह है कि जब दुनिया से सैन्य-गुट-नाटो,सीटो,सेन्टो,वारसा पेक्ट- ही खत्म हो गए तो अब गुट-निरपेक्ष आंदोलन की ही क्या जरुरत रह गई ? गुट-निरपेक्ष शब्द का आज उतना ही महत्व है, जितना किसी गंजे के लिए कंघे का होता है| जरुरत तो यह है कि इस संगठन का नाम बदला जाए| इसे अब विश्व विकास और शांति सम्मेलन कहा जाए| अब से 40-45 साल पहले जब नेहरु,नासिर और टीटो ने इस सम्मेलन की नींव डाली थी, तब रूस और अमेरिका के दो खेमों में दुनिया बॅंटी हुई थी, दोनों प्रतिद्वंद्वी परमाणु शस्त्रों से लैस थे और तीसरी दुनिया के देश नए-नए आज़ाद हुए थे| इनके नेता ऐसे लोग थे, जो चुनावों के कारण नहीं, स्वाधीनता संग्रामों के कारण शीर्ष पर पहुंचे थे| लाखों-करोड़ों लोग उनके अनुयायी थे और नेतागण समझते थे कि उनकी हैसियत किसी रुजवेल्ट , किसी खुश्चौफ, किसी मेकमिलन से कम नहीं है| उनकी आवाज़ अपने देश में ही नहीं, सारे संसार में भी सुनी जाती थी| इसी नैतिक शक्ति के सहारे उन्होंने अन्तरराष्ट्र्रीय जलवा खड़ा कर लिया था लेकिन तब भी महाशक्तियॉं अपने राष्ट्र्रीय स्वार्थों के मुताबिक काम करती थीं| उस समय इतना दिलासा तो था कि दुनिया के करोड़ों निष्पक्ष लोगों के विवेक का प्रतिनिधित्व करनेवाली एक निर्र्र्गुट आवाज़ विश्व-पटल पर गूंज रही है लेकिन आज स्थिति क्या है ? आज तो फिदेल कास्त्रो के अलावा कोई भी विश्व-विख्यात नेता गुट-निरपेक्ष आंदोलन में नहीं बचा है ? मिस्र, यूगोस्लााविया और इंडोनीशिया के वर्तमान नेताओं का मुकाबला क्या नासिर, टीटो और सुकर्ण से हो सकता है ? भारत और उसके नेता, दोनों की कुछ विश्व-हैसियत जरुर है लेकिन उन्हें भी वह नाटकीय प्रचार उपलब्ध नहीं है, जो कभी नेहरु को उपलब्ध था|
जो प्रचार कभी गुट-निरपेक्ष नेताओं को प्राप्त था, वह आजकल फ्रांस और जर्मनी को मिल रहा है| उनका बर्ताव गुट-निरपेक्षता की सभी शर्तें पूरी कर रहा है| अमेरिका के साथी होते हुए भी वे अमेरिका का साथ नहीं दे रहे हैं| रूस और चीन भी उनके अनुयायी के समान मालूम पड़ रहे हंै| एराक को लेकर तीसरी दुनिया में आज वैसी हलचल नहीं है, जैसी की पहली और दूसरी दुनिया में है| इस हलचल के महानायक फ्रांस और जर्मनी हैं, भारत, मिस्र और इंडोनीशिया नहीं ! ऐसा क्यों ? इसलिए कि आज गुट नहीं रहे और जब गुट ही नहीं हैं तो फिर निर्गंुट का क्या काम ? मध्यस्थ की अब कौनसी भूमिका रह गई है ? ऐसी स्थिति में गुट-निरपेक्ष सम्मेलन सिर्फ मेले के अलावा क्या रह गया है ?
तो क्या इस मेले को विसर्जित कर दिया जाए ? नहीं, इसे विसर्जित करना ठीक नहीं होगा| लगभग पॉंच दशक तक इतने बड़े संगठन का चलते रहना अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है| इस शिवजी की बारात का एक ही बस में यात्रा करना एक चमत्कार-सा है| तरह-तरह की विचारधाराओं,विविध शासन पद्घतियों, विचित्र जीवन-पद्घतियों और यहॉं तक की एक-दूसरे के जानी दुश्मन राष्ट्र्रों का एक ही मंच पर नियमित मिलन विश्व-समुदाय के रुपान्तरण में अद्वितीय भूमिका अदा कर सकता है| इस भूमिका की ओर भारत के प्रधानमंत्री ने स्पष्ट संकेत भी किया है| श्री वाजपेयी ने अपने भाषण में एक ‘गरीबी उन्मूलन कोष’ का प्रस्ताव प्रस्तुत किया है, जिसके अन्तर्गत यदि पूंजी के अन्तरराष्ट्र्रीय आवागमन पर एक प्रतिशत का एक-चौथाई टैक्स भी लगा दिया जाए तो लगभग 300 अरब डॉलर का कोष तैयार हो सकता है| इस तरह का एक छोटा कोष भारत की पहल पर अफ्रीका के लिए तैयार किया गया था| दुनिया के लगभग दो अरब लोगों को पेट भर रोटी नहीं मिलती, उनके सिर पर छत नहीं है, उनकी शिक्षा और चिकित्सा का ठीक प्रंबध नहीं है| इनमें से ज्यादातर लोग गुट-निरपेक्ष देशों में ही रहते हैं| ये देश आपस मे सहयोग का कोई जबर्दस्त अभियान क्यों नहीं चलाते ? सम्पन्न राष्ट्र्रों का अंधानुकरण करते हुए ये राष्ट्र्र भी उपभोक्तावाद की खाई में क्यों जा पड़ना चाहते हैं ?
इसी तरह गुट-निरपेक्ष आंदोलन के राष्ट्र्र परमाणु खतरे को समाप्त करने के लिए क्या कर रहे हैं ? कुछ नहीं ! कम से कम वे ऐसा प्रस्ताव तो पारित कर सकते थे कि महाशक्तियॉं अपने परमाणु शस्त्रास्त्रों को खत्म करने का टाइम-टेबल पेश करें| भारत और पाकिस्तान मिलकर इस विचार की अगुवाई कर सकते थे| यदि जैविक और रासायनिक हथियारों पर अन्तरराष्ट्र्रीय प्रतिबंध लग सकता है तो परमाणु हथियारों पर क्यों नहीं ? क्या इसलिए नहीं कि पॉंचों महाशक्तियों के गले में घंटी कौन बॉंधे ?
भारत जैसे राष्ट्र्रों का दायित्व है कि वे संयुक्तराष्ट्र्र संघ के बुनियादी ढॉंचे में भी परिवर्तन की मॉंग उठाऍं| सुरक्षा परिषद्र के वीटोधारी स्थायी सदस्यों में अफ्रीका, एशिया और लातीनी अमेरिका का उचित प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है ? यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं कि आज तक गुट-निरपेक्ष आंदोलन का कोई स्थायी सचिवालय नहीं बन पाया है| यदि अगले कुछ वर्षों में इस आंदोलन की कार्यपद्घति में अमूल-चूल परिवर्तन नहीं किया गया तो इसका मेले-ठेले का रूप भी खतरे में पड़ सकता है| यदि 21 वीं सदी के इस नए मोड़ पर कोई दूरदृष्टि सम्पन्न नेता इस आंदोलन को मिल जाऍं तो वे विश्व राजनीति को नई दिशा दे सकते हैं| यह ठीक है कि दुनिया अब दो-धुर्र्र्र्र्रवीय नहीं रही लेकिन अमेरिका का यह एक धु्रव भी कब तक कायम रहेगा ? एराकी संकट ने इस एक ध्रुवीय दुनिया में कुछ तड़कन तो पैदा कर दी है| आश्चर्य नहीं कि आनेवाले कुछ वर्षों में यह दुनिया एकधु्रवीय या दो धु्रवीय की बजाय बहुधु्रवीय बन जाए| हर महाद्वीप पर कई-कई छोटे-मोटे धु्रव काम करने लगें| ऐसी स्थिति में गुट-निरपेक्ष आंदोलन दुनिया के लिए वरदान सिद्घ हो सकता है| अब भी लगभग सवा सौ राष्ट्र्र जब कुछ मुद्रदों पर सर्वसम्मति का निर्माण कर सकते हैं तो वे इसी प्रकि्र्र्र्र्रया को आगे क्यों नहीं बढ़ा सकते हैं और उसे नखदन्तमय भी क्यों नहीं बना सकते है ? गुट-निरपेक्ष आंदोलन चाहे तो अपने दरवाजे अब उन गोरे राष्ट्र्रों के लिए भी खोल सकता है, जो कभी सैन्य-गुटों के सकि्रय सदस्य रहे हैं| ऐसा करके वह अपना यह दाग भी धो सकता है कि वह तीसरी दुनिया के गरीब देशों का धोबीघाट है| वह स्वंय वीटोविहीन समानान्तर संयुक्तराष्ट्र्र संघ भी बन सकता है| यदि गुट-निरपेक्ष आंदोलन इस नई लीक पर चल पड़े तो विश्व संसद और विश्व सरकार की बातें कोरा सपना भर नहीं रह जाऍंगी|
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